बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
शोले गिराते रोज हैं
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
शोले गिराते आप तो क्या, आज शबनम क्यों डरे
फ़ितरत ज़माने की समझ वह, आग से यारी करे।
फ़ितरत ज़माने की समझ वह, आग से यारी करे।
झुकते नफ़ासत से लिए वो, हाथ में खंजर सदा
मासूमियत ये आपकी जो, कर रहे सज़दा अरे।
मासूमियत ये आपकी जो, कर रहे सज़दा अरे।
देते रहे सबदिन तगाफ़ुल, चाशनी में सानकर
कातिल यहाँ खुद देखता है, प्यार आँखों से झरे।
कातिल यहाँ खुद देखता है, प्यार आँखों से झरे।
कुदरत सँवारे वो हमेशा, पेड़ को ही काटकर
सींचा करें सब झाड़ियाँ पर रोज अब जंगल मरे।
सींचा करें सब झाड़ियाँ पर रोज अब जंगल मरे।
लुटके यहाँ सब बेख़ुदी के, जश्न में लहरा रहे
ख़ैरात जो है बाँटता वह, रोज़ ही लूटा करे।
ख़ैरात जो है बाँटता वह, रोज़ ही लूटा करे।
करते रहे रहबर गुमाँ तो, हो गए मगरूर सब
सबपे नज़र रक्खो "अमर" अब, कब तलक कोई डरे।
सबपे नज़र रक्खो "अमर" अब, कब तलक कोई डरे।
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