ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मुल्क़ है ख़ुशहाल बतलाती रही मुझको हँसी
नित नये किस्सों से भरमाती रही मुझको हँसी
गफ़लतों में झूमते थे छुप गया है सूर्य अब
बादलों की सोच पर आती रही मुझको हँसी
मौत आगे लोग पीछे, था सड़क पर क़ाफ़िला
क़ाफ़िले का अर्थ समझाती रही मुझको हँसी
देखकर मायूस बचपन और सहमी औरतें
चुप्पियाँ हर ओर शरमाती रही मुझको हँसी
गालियों के संग अब तो मिल रहीं हैं लाठियाँ
मौत सच या भूख उलझाती रही मुझको हँसी
अब करोना का क़हर बरपा रहा है ख़ौफ तो
घर में होकर क़ैद चौंकाती रही मुझको हँसी
जान लो ये सच 'अमर' के दर्द ही तेरी दवा
आइना हर बार दिखलाती रही मुझको हँसी
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मुल्क़ है ख़ुशहाल बतलाती रही मुझको हँसी
नित नये किस्सों से भरमाती रही मुझको हँसी
गफ़लतों में झूमते थे छुप गया है सूर्य अब
बादलों की सोच पर आती रही मुझको हँसी
मौत आगे लोग पीछे, था सड़क पर क़ाफ़िला
क़ाफ़िले का अर्थ समझाती रही मुझको हँसी
देखकर मायूस बचपन और सहमी औरतें
चुप्पियाँ हर ओर शरमाती रही मुझको हँसी
गालियों के संग अब तो मिल रहीं हैं लाठियाँ
मौत सच या भूख उलझाती रही मुझको हँसी
अब करोना का क़हर बरपा रहा है ख़ौफ तो
घर में होकर क़ैद चौंकाती रही मुझको हँसी
जान लो ये सच 'अमर' के दर्द ही तेरी दवा
आइना हर बार दिखलाती रही मुझको हँसी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें