शुक्रवार, 19 जून 2020

आग कैसी जल रही है (ग़ज़ल)

ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाँ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

आग कैसी जल रही है आजकल
क्या वबा ये पल रही है आजकल

हाल अपना मैं कभी कहता नहीं
ख़ामुशी पर खल रही है आजकल

हर ख़बर तो क़हर ही बरपा रही
पाँव बिन जो चल रही है आजकल

धैर्य का कब ख़त्म होगा इम्तिहाँ
हर चमक तो ढल रही है आजकल

हो रही है बेअसर हर घोषणा
योजना हर टल रही है आजकल

नफ़रतों की लहलहाती फ़स्ल ही
ज़ह्र बनकर फल रही है आजकल

फिर 'अमर' गहरा अँधेरा जायेगा
जोर से लौ बल रही है आजकल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें