गजल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--987160362
कड़ा पहरा है मुझपर तो सँभलकर देखता हूँ मैं,
बदन की क़ैद से बाहर निकलकर देखता हूँ मैं।
कभी गिरना कभी उठना यही है दास्ताँ मेरी,
बचा क्या पास है मेरे ये चलकर देखता हूँ मैं।
जिधर देखो उधर है आग छूतीं आसमाँ लपटें,
चलो इस अग्निपथ पर भी टहलकर देखता हूँ मैं।
बहुत है दूर मुझसे चांद पर छूने की ख़्वाहिश है,
उसे छूने को बच्चों सा मचलकर देखता हूँ मैं।
नहीं उलझन सुलझती है कठिन हैं प्रश्न जीवन के,
पहेली से बने जीवन को हल कर देखता हूँ मैं।
ग़मों के बोझ से बोझिल हुईं गमगीन पलकें जब,
तेरी आँखों से बनकर अश्क ढलकर देखता हूँ मैं।
न बदला है न बदलेगा 'अमर' दस्तूर दुनिया का,
मगर तेरे लिये ख़ुद को बदलकर देखता हूँ मैं।
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