रविवार, 11 जून 2017

चराग जलाकर आया हूँ

चराग जलाकर आया हूँ
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
लम्बी स्याह रात में इक चराग जलाकर आया हूँ
मौत के आगोश से जिन्दगी को छीनकर लाया हूँ।
विवश-बेचैन हो जो उमड़े थे मजबूरियों के आँसू
प्यार की जुम्बिशों से आज उन्हें सोख आया हूँ।
निराला जिन्दगी का सफर रहती नहीं तन्हा डगर
हर-हाल उम्मीदों की लहराती पौध रोप आया हूँ।
चलो चलें गांव अपने अभी जिन्दगी जिन्दा है वहाँ
कई बरस पहले जहाँ कुछ शरारतें छोड़ आया हूँ।
दिखाया न तुमको कभी दरकती छत की टपकती बूंदें
लेकिन खिलती है जिन्दगी यहाँ ये राज बताने आया हूँ।
कोहरा घना है माना 'अमर' कब तलक रुकता उजाला
बादलों को चीर निकलता आफताब देखने आया हूँ।

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