शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

दह़ान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
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दहान-ए-ज़िस्म जबसे रिसने लगा
अज़ीब सुकूँ फिर से मिलने लगा।
ज़िगर चाक-चाक होता रहा लेकिन
शब़-ए-ग़म से बेखौफ गुजरने लगा।
ज़र्द पड़ गए ज़िस्म की पासबानी ये
रूहे-फ़ना को कब़ा से लपेटने लगा।
भटके हैं उम्र भर दिल्ली की सड़कों पे
पहचान सदा-ए-ज़रस की करने लगा।
न पढ़ा हर्फे-इबारत नसीब की 'अमर'
करीब को यूँ करीब से समझने लगा।

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