(बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212)
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212)
ढहने लगी ईमारतें
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
09871603621
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
09871603621
ढहते गए सारे मकां, जलती फ़सल खलिहान में
खोजूँ कहाँ मैं आदमी, बस भीड़ है दालान में।
खोजूँ कहाँ मैं आदमी, बस भीड़ है दालान में।
करते रहे हम कोशिशें, उनको बताने की सदा
रखते नहीं कुछ फ़ासले, इंसान वो भगवान में।
रखते नहीं कुछ फ़ासले, इंसान वो भगवान में।
पोखर सभी थे भर चुके, हम रह गए पर फिर वहीं
सब लौट आए छू तरल, तल आप के फ़रमान में।
सब लौट आए छू तरल, तल आप के फ़रमान में।
रातें कटे ना चैन से, आती नहीं हैं नींद अब
होने लगी बेजान भी, जम्हूरियत मैदान में।
होने लगी बेजान भी, जम्हूरियत मैदान में।
बीती कहानी भर नहीं, जज्बा तिरा था मीत वह
अपनों भरी दुनिया यही, थी बात कुछ मुस्कान में।
अपनों भरी दुनिया यही, थी बात कुछ मुस्कान में।
कैसे उसे दें छोड़ जो, दे जिंदगी का हौसला
उलफ़त “अमर” अहसास है, बसता नहीं शैतान में ।
उलफ़त “अमर” अहसास है, बसता नहीं शैतान में ।
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