वक़्त का फ़रमान
{अब तक की मेरी 75 ग़ज़लें (बा-बह्र)}
{अब तक की मेरी 75 ग़ज़लें (बा-बह्र)}
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
(1)
बात बताते वो कब हैं
---------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल - 9871603621
बात बताते वो कब हैं
---------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल - 9871603621
बात बताते वो कब हैं, पर लोग सभी पहचान गए
काँप रहे जों लब उनके, मन में क्या है सब जान गए।
काँप रहे जों लब उनके, मन में क्या है सब जान गए।
नजरें उनपर ही ठहरी, मानो वो मूरत हो कोई
साँचे में ढला मस्त बदन, कह सारे मेहरबान गए।
साँचे में ढला मस्त बदन, कह सारे मेहरबान गए।
क्या कहता था वक़्त कहाँ फिसली क्यों उनपर आज नजर
कैसे पार करें फिसलन, मन ही मन हम कुछ ठान गए।
कैसे पार करें फिसलन, मन ही मन हम कुछ ठान गए।
रोज उड़ा करता लेकिन, उडता हूँ बनकर राख यहाँ
सूँघ महक फैली जो है, ये कदरदान अब जान गए।
सूँघ महक फैली जो है, ये कदरदान अब जान गए।
आज छिड़ी जब बात अगर, तो फिर हमको भी कहने दो
टूटे तारे बिखरे हैं, पर चाँद के कब अरमान गए।
टूटे तारे बिखरे हैं, पर चाँद के कब अरमान गए।
कौन उड़ाता परचम झूठे वादे का हर ओर "अमर"
अब लमहों की बात रही, तेरा भी सच सब जान गए।
अब लमहों की बात रही, तेरा भी सच सब जान गए।
(2)
भागने का सब
--------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
भागने का सब
--------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
भागने का सबब जान लेते।
हाँफती साँस पहचान लेते।
हाँफती साँस पहचान लेते।
आज टूटे सितारे बने हम
चाँद से रार ना ठान लेते।
चाँद से रार ना ठान लेते।
रात का ही उजाला डराता
धूप की बात भी मान लेते।
धूप की बात भी मान लेते।
मैं नहाया उसी चाँदनी में
शबनमी भोर से जान लेते।
शबनमी भोर से जान लेते।
चेहरे पे खुशी का छलावा
भाँपके तुम कहा मान लेते।
भाँपके तुम कहा मान लेते।
रोज किसकी किसे याद आती
काश तुम भी "अमर" जान लेते।
काश तुम भी "अमर" जान लेते।
(3)
नव बरस की जान
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
नव बरस की जान
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
नव बरस की जान हो तुम
नव सुबह की शान हो तुम।
नव सुबह की शान हो तुम।
राग छेड़े चाँदनी उस
आसमाँ का गान हो तुम।
आसमाँ का गान हो तुम।
देख लो पूरब दिशा को
लाल सा अरमान हो तुम।
लाल सा अरमान हो तुम।
रोशनी खिलती रही जो
फिर नया उपमान हो तुम।
फिर नया उपमान हो तुम।
रोज सागर पाँव धोता
हाँ वही चहुमान हो तुम।
हाँ वही चहुमान हो तुम।
सब "अमर" बस दाँव खेले
वक़्त का फ़रमान हो तुम।
वक़्त का फ़रमान हो तुम।
(4)
समंदर किसे खोजता
------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
समंदर किसे खोजता
------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
समंदर किसे खोजता तू तड़पकर
लुटाता रहा है सभी कुछ विहँसकर।
लुटाता रहा है सभी कुछ विहँसकर।
हजारों दिलों की सुलगती कहानी
सुनाता यहाँ तू सदा ही बिलखकर।
सुनाता यहाँ तू सदा ही बिलखकर।
उसे है कहाँ सुध कि गहरा बहुत है
हमेशा भुलाती लहर ये थिरककर।
हमेशा भुलाती लहर ये थिरककर।
भला जीत सकता यहाँ कौन उनसे
सुनाती कहानी तरंगें उछलकर।
सुनाती कहानी तरंगें उछलकर।
सहूँ मैं सभी कुछ सुनो ऐ जमाना
मगर चुप समझ मत जताता गरजकर।
मगर चुप समझ मत जताता गरजकर।
छिपाया अभी तक ग़मे-जिंदगी है
कहो कुछ "अमर" पर कहो बस समझकर।
कहो कुछ "अमर" पर कहो बस समझकर।
(5)
बात ना भी कहें
---------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल - 9871603621
बात ना भी कहें
---------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल - 9871603621
बात ना भी कहें वो कि हम जान गए
छिप सके ना कि हम आज पहचान गए।
छिप सके ना कि हम आज पहचान गए।
नजर भी जम गई आज कुछ यूँ कि बस
जिस्म के पार भी है बदन जान गए।
जिस्म के पार भी है बदन जान गए।
बात चल ही गई तो कहें फिर अभी
टूटकर जो बिखर चुके वो मान गए।
टूटकर जो बिखर चुके वो मान गए।
आइना भी यहाँ जो बचा रह गया
हर दफा बदलता चेहरा जान गए।
हर दफा बदलता चेहरा जान गए।
मैं उड़ा जब कभी राख बनके कहीं
आसमाँ में सभी महक से जान गए।
आसमाँ में सभी महक से जान गए।
कौन परचम उड़ाता रहा है "अमर"
आज फिर बेनकाब वह सब जान गए।
आज फिर बेनकाब वह सब जान गए।
(6)
गर फिर मिलो
----------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
गर फिर मिलो
----------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
गर फ़िर मिलो तो मैं कहूँ जिन्दादिली को रोक मत
गाते रहो यूँ ही उमर भर आशिकी को रोक मत।
गाते रहो यूँ ही उमर भर आशिकी को रोक मत।
कहते रहेंगे दिलजले कुछ पल अभी तू रुक वहीं
आया करे ये रात भी पर रोशनी को रोक मत।
आया करे ये रात भी पर रोशनी को रोक मत।
शामों-सहर तू रोज आ फिर से लिपटके दिल मिला
गुल भी यहाँ सब दिन कहे तू बेकली को रोक मत।
गुल भी यहाँ सब दिन कहे तू बेकली को रोक मत।
बरसों बरस मैं भी उड़ा फ़िर आसमाँ से जब गिरा
थामा मुझे है धूल ने इस बेबसी को रोक मत।
थामा मुझे है धूल ने इस बेबसी को रोक मत।
गहरा समंदर पूछता तुम चीख को भी सुन कभी
बनके शजर देखो जरा दिल की नमी को रोक मत।
बनके शजर देखो जरा दिल की नमी को रोक मत।
अब हैं यहाँ मसरूफ़ सब खुद से कभी पूछो "अमर"
उल्फ़त कहे हर बार है तुम उस जबीं को रोक मत।
उल्फ़त कहे हर बार है तुम उस जबीं को रोक मत।
(7)
दिन-रात तो सब साथ है
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
दिन-रात तो सब साथ है
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
दिन-रात तो सब साथ है फिर भी कहाँ वह पास है
दिन भर सभी कहते रहे किस शख़्स की अब आस है।
दिन भर सभी कहते रहे किस शख़्स की अब आस है।
कहना नहीं कुछ भी तुझे अब जो हुआ बस हो गया
कुछ बात तुम अब भी कहो कहना तेरा सब खास है।
कुछ बात तुम अब भी कहो कहना तेरा सब खास है।
बहकी हुई धड़कन कहे बस और तू कुछ पूछ मत
महकी हुई इस साँस में ही प्यार का अहसास है।
महकी हुई इस साँस में ही प्यार का अहसास है।
गुल की फिज़ा हँसके कहे अब खार से तुम दूर हो
गुल की हँसी जब भी हटी बस खार का परिहास है।
गुल की हँसी जब भी हटी बस खार का परिहास है।
अब भी हवा सब देखती बिन गुफ़्तगू पहचानती
कुछ लोग ही बस जानते अब भी उसे कुछ आस है।
कुछ लोग ही बस जानते अब भी उसे कुछ आस है।
बहती हवा फिर पूछती सब भूलकर वह झूमती
वह जानती है ये "अमर" क्यों सब करे उपहास है।
वह जानती है ये "अमर" क्यों सब करे उपहास है।
(8)
अश्क चूने लगे
---------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
अश्क चूने लगे नहाना तुम
उम्र भर की सदा सुनाना तुम।
उम्र भर की सदा सुनाना तुम।
कौन जाने किसे लुभाते हैं
चश्म अपने नहीं छुपाना तुम।
चश्म अपने नहीं छुपाना तुम।
सर्द खूँ दौड़ता रंगों में तो
गर्म जज्बात ना दिखाना तुम।
गर्म जज्बात ना दिखाना तुम।
आसमाँ में घटा छँटी है अब
आब को मत कहीं लुटाना तुम।
आब को मत कहीं लुटाना तुम।
आतिशों की इमारतें हैं ये
फिर दिलों में दिये जलाना तुम।
फिर दिलों में दिये जलाना तुम।
ये हमारी "अमर" विरासत है
जख़्म गहरे मगर भुलाना तुम।
जख़्म गहरे मगर भुलाना तुम।
(9)
बेवक्त तुम यहाँ
--------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
--------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
बेवक्त तुम यहाँ हो कुछ छूटने लगे अब
टूटे परों परिन्दे उड़ते कहाँ दिखे कब।
टूटे परों परिन्दे उड़ते कहाँ दिखे कब।
वह वाकया अज़ब जो दिल ने छुपा रखा है
कटकर सभी धड़ों में चलते हुए मिले जब।
कटकर सभी धड़ों में चलते हुए मिले जब।
शमशीर का निशाना पर फूल बन रहे हैं
फूलों के भार से ही हर पल दबे पड़े अब।
फूलों के भार से ही हर पल दबे पड़े अब।
हसरत रही मुझे के तुमको जता सकूँ मैं
हर चीर जब रहे थे सबके सिले हुए लब।
हर चीर जब रहे थे सबके सिले हुए लब।
करते शुरू नया जब कोई सितम अनूठा
पैग़ाम भेजते हैँ वो फिर नए-नए तब।
पैग़ाम भेजते हैँ वो फिर नए-नए तब।
बातेँ सभी करें अब दिन-रात दीन ही की
दीनो-धरम "अमर" है मतलब अगर सधे तब।
दीनो-धरम "अमर" है मतलब अगर सधे तब।
(10)
(22 22 22 22 22 22 22 2)
शायर है तू
---------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
शायर है तू
---------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
शायर हो अपने दिल के तुम, जज़्बात बचाए रखना
सब को छू लें वो सारे फिर, अंदाज बचाए रखना।
सब को छू लें वो सारे फिर, अंदाज बचाए रखना।
वक्त अभी नाजुक ऐसी बातें, तो सब कहते रहते
सच कहने वाले हैं कुछ जो, लमहात बचाए रखना।
सच कहने वाले हैं कुछ जो, लमहात बचाए रखना।
आँधी भी तुमको अबतक तो, ज़ड़ से ना हिला पाई है
तकती यार निगाहें सब कि, मुलाक़ात बचाए रखना।
तकती यार निगाहें सब कि, मुलाक़ात बचाए रखना।
खेतों में उगती धान नहीं, बेवक्त अगर बारिश हो
हालात भरोसे के हों जो, दिन-रात बचाए रखना।
हालात भरोसे के हों जो, दिन-रात बचाए रखना।
पल-पल में रंग बदलता है, गिरगिट सा आज ज़माना
साया छोड़े साथ मगर तुम, अहसास बचाए रखना।
साया छोड़े साथ मगर तुम, अहसास बचाए रखना।
खुद को ही देखा करते* 'अमर', बेखुद होके अक्सर तुम
अक्स दिलों में उतरे जब वह, बरसात बचाए रखना।
अक्स दिलों में उतरे जब वह, बरसात बचाए रखना।
(11)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
2122 2122 2122 212
जब ग़ज़ल मैंने कही
-------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
जब ग़ज़ल मैंने कही, तुम क्यों पशेमाँ हो गए
आज धड़का दिल मेरा, तो सब बयाबाँ हो गए।
आज धड़का दिल मेरा, तो सब बयाबाँ हो गए।
दुश्मनोँ मेँ भी नहीँ, तुमको गिना हमने कभी
तुम हमारे ना हुए, सब तो शहीदाँ हो गए।
तुम हमारे ना हुए, सब तो शहीदाँ हो गए।
हैं गज़ब अंदाज अब, तेरे सितम ढ़ाने के भी
जब मिले तुम भी कभी, हट के परीशाँ हो गए।
जब मिले तुम भी कभी, हट के परीशाँ हो गए।
मैं कहाँ वाकिफ के ये, फितरत हुकूमत की रही
आज तेरे साथ थे, जो कल गुरेजाँ हो गए।
आज तेरे साथ थे, जो कल गुरेजाँ हो गए।
तुम सिखाते हो सदा, सबको नचाने का सबब,
आज मिल तुमसे सभी, फिर देख हैराँ हो गए।
आज मिल तुमसे सभी, फिर देख हैराँ हो गए।
सुन अदावत तो “अमर”, होती अदब में भी नहीं
पर अदावत के हुनर, में तुम नुमायाँ हो गए।
पर अदावत के हुनर, में तुम नुमायाँ हो गए।
(12)
बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
शोले गिराते रोज हैं
-----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
शोले गिराते आप तो क्या, आज शबनम क्यों डरे
फ़ितरत ज़माने की समझ वह, आग से यारी करे।
फ़ितरत ज़माने की समझ वह, आग से यारी करे।
झुकते नफ़ासत से लिए वो, हाथ में खंजर सदा
मासूमियत ये आपकी जो, कर रहे सज़दा अरे।
मासूमियत ये आपकी जो, कर रहे सज़दा अरे।
देते रहे सबदिन तगाफ़ुल, चाशनी में सानकर
कातिल यहाँ खुद देखता है, प्यार आँखों से झरे।
कातिल यहाँ खुद देखता है, प्यार आँखों से झरे।
कुदरत सँवारे वो हमेशा, पेड़ को ही काटकर
सींचा करें सब झाड़ियाँ पर रोज अब जंगल मरे।
सींचा करें सब झाड़ियाँ पर रोज अब जंगल मरे।
लुटके यहाँ सब बेख़ुदी के, जश्न में लहरा रहे
ख़ैरात जो है बाँटता वह, रोज़ ही लूटा करे।
ख़ैरात जो है बाँटता वह, रोज़ ही लूटा करे।
करते रहे रहबर गुमाँ तो, हो गए मगरूर सब
सबपे नज़र रक्खो "अमर" अब, कब तलक कोई डरे।
सबपे नज़र रक्खो "अमर" अब, कब तलक कोई डरे।
(13)
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
आज़ाद उड़ते हम परिंदे
---------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
आज़ाद उड़ते हम परिंदे बांधने की सोच मत
लांघा करें सबदिन समंदर रोकने की सोच मत।
लांघा करें सबदिन समंदर रोकने की सोच मत।
आकाश को जब नाप लेते रोज अपने पंख से
पर्वत झुका है राह में तो खेलने की सोच मत।
पर्वत झुका है राह में तो खेलने की सोच मत।
तूफ़ान से यारी रही पर आज मौसम साफ़ है
थक कर नहीं बैठे कभी तो बैठने की सोच मत।
थक कर नहीं बैठे कभी तो बैठने की सोच मत।
दिखने लगा साहिल यहाँ से चाल थोड़ी तेज कर
दुश्मन खड़ा पतवार अपने छोड़ने की सोच मत।
दुश्मन खड़ा पतवार अपने छोड़ने की सोच मत।
फ़िर भा गई उनकी अदा लगने लगीं वो खुद ग़ज़ल
अब इस लहर में डूबकर तुम तैरने की सोच मत।
अब इस लहर में डूबकर तुम तैरने की सोच मत।
कुछ प्रीति की भी रीत होती तू समझ ले ये "अमर"
वो कह गए दिल खोलकर फ़िर भूलने की सोच मत
वो कह गए दिल खोलकर फ़िर भूलने की सोच मत
(14)
बहरे रजज़ मुसद्दस सालिम
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन
उलझन बहुत
--------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
--------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
उलझन बहुत हाँ पर नहीं, सुलझन कहीं
दिन भर भटककर शाम में, थे फ़िर वहीं।
दिन भर भटककर शाम में, थे फ़िर वहीं।
क्या कशमकश कैसे कहें, अब आज हम
खुद जिंदगी की रंगतें, कहतीं रहीं।
खुद जिंदगी की रंगतें, कहतीं रहीं।
तुम तो सदा कहते रहे, हम पास हैं
दुश्वारियाँ सब दिन यहाँ, यूँ ही रहीं।
दुश्वारियाँ सब दिन यहाँ, यूँ ही रहीं।
महफ़ूज थे हम मौन थे, उस छाँव में
हमको हमेशा याद वो, आती रहीं।
हमको हमेशा याद वो, आती रहीं।
होती रही बारिश यहाँ, जब आग की
खोए रहे पर तुम बजा, बंशी कहीं।
खोए रहे पर तुम बजा, बंशी कहीं।
धुन बाँसुरी की खींचती, तुमको "अमर"
पर बांस बिन तो बाँसुरी बनती नहीं।
पर बांस बिन तो बाँसुरी बनती नहीं।
(15)
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम:
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
(212 212 212 212 )
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
(212 212 212 212 )
ना दिशा ना किनारा
----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ना दिशा ना किनारा, बही जिंदगी
ना फ़जा ना फ़साना, यही जिंदगी।
ना फ़जा ना फ़साना, यही जिंदगी।
आबरू की फ़िकर थी, आज भी बहुत
इसलिए बेख़बर भी, लही जिंदगी।
इसलिए बेख़बर भी, लही जिंदगी।
फिर चली मौसमी है, यहाँ भी हवा
दर्द सब सह सके जो, वही जिंदगी।
दर्द सब सह सके जो, वही जिंदगी।
देख पाए नहीँ हम नज़र भर जिन्हेँ
बात उनकी सुनी अनकही जिंदगी।
बात उनकी सुनी अनकही जिंदगी।
बह रही हर बरस बस, पुरानी हवा
गंध बासी मग़र हँस, रही जिंदगी।
गंध बासी मग़र हँस, रही जिंदगी।
खेल सब जानते हैं, गज़ब ये ‘अमर’
जीतकर हार में जी, रही जिंदगी।
जीतकर हार में जी, रही जिंदगी।
(16)
1212/22/2/,212/22/2
मफ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा/, फ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा
मफ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा/, फ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा
बदल रहा गर सबकुछ
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
बदल रहा गर सब कुछ, तो बदल जाने दो
ठहर जरा मदहोशी, भी मगर छाने दो।
ठहर जरा मदहोशी, भी मगर छाने दो।
तड़क-भड़क देखो तो, होश उड़ जाते हैं
चहक रही वासंती प्रीति को पाने दो।
चहक रही वासंती प्रीति को पाने दो।
हमें गई बौरा ये, बेरहम होली भी
बचे हुए पल हैं कम, ग़म सभी खाने दो।
बचे हुए पल हैं कम, ग़म सभी खाने दो।
बने रहे वाइज़ हम, उम्र-भर रोज़े रख
बिना पिए मुझको अब, रिन्द कहलाने दो।
बिना पिए मुझको अब, रिन्द कहलाने दो।
खबर मुझे कुछ भी ना, वक़्त के जाने की
महक रही साँसों से, देह महकाने दो।
महक रही साँसों से, देह महकाने दो।
बज़ा रही ढ़ोलक रुत, झाल-मंजीरे भी
सुनो 'अमर' तुम भी अब, नज़्म कुछ गाने दो।
सुनो 'अमर' तुम भी अब, नज़्म कुछ गाने दो।
(17)
(बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 )
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 )
फूल ही फूल हैं कब खिले
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
फूल ही फूल हैं अब खिले
प्यार में जब लुटे दिल मिले।
प्यार में जब लुटे दिल मिले।
पूछ लूँ वक्त से गर रुके
वक़्त से ही हमें हैं गिले।
वक़्त से ही हमें हैं गिले।
अश्क जो बह रहे रात भर
भोर तक वे कुमुद बन खिले।
भोर तक वे कुमुद बन खिले।
रूठकर वह गया, प्यार था
बेफ़िकर होठ सब हैं सिले।
बेफ़िकर होठ सब हैं सिले।
शुक्र है कुछ हवा तो चली
सूखती शाख से मन मिले।
सूखती शाख से मन मिले।
आज तुम मत कहो कुछ "अमर"
सिल गए होठ जो भी हिले।
सिल गए होठ जो भी हिले।
(18)
22 22 22 22 22 22
नज़रें जो फिसलीं हैं
--------------------------------
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
--------------------------------
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
नज़रें जो फिसलीं हैं इनको अब टिकने दो
आवाजें ख़ामोशी की मुझको सुनने दो।
आवाजें ख़ामोशी की मुझको सुनने दो।
चुप्पी का दीवानापन पहचाना मैंने
चुप्पी में अपनी तुम मुझको अब बसने दो।।
चुप्पी में अपनी तुम मुझको अब बसने दो।।
गूँथा है जूड़े में उजले वनफूलों को
बागों में जूही अब रूठी कुछ कहने दो।
बागों में जूही अब रूठी कुछ कहने दो।
पुरइन भी सरखी भी महके इन साँसों में
प्रेमी हूँ बात मुझे सबसे यूँ करने दो।
प्रेमी हूँ बात मुझे सबसे यूँ करने दो।
पीछे सब कहते पागलपन की हद हूँ मैं
आशिक दीवाना हूँ धड़कन में पलने दो।
आशिक दीवाना हूँ धड़कन में पलने दो।
लैला की आँखों में काजल भी लाली भी
आँखों को पीकर फिर आज 'अमर' बहने दो।
आँखों को पीकर फिर आज 'अमर' बहने दो।
(19)
रोज होते रहे हादसे
-------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
रोज होते रहे, हादसे ही मगर
वो नहीं आ सके, बन कभी भी खबर।
वो नहीं आ सके, बन कभी भी खबर।
आज मायूस सा, तुम खड़े हो जहाँ
गा रहे थे सभी, कल वहीं नाचकर।
गा रहे थे सभी, कल वहीं नाचकर।
हादसों बिन कहाँ, कट रहा वक्त भी
जानते हम सभी, अब कँटीली डगर।
जानते हम सभी, अब कँटीली डगर।
कौन सुनता यहाँ, चीख सच की कभी
बन गया आज तो, सच छुपाना हुनर।
बन गया आज तो, सच छुपाना हुनर।
जानते सब मगर, हम जताते नहीं
मौज़ ही बन गई, जिंदगी का भँवर।
मौज़ ही बन गई, जिंदगी का भँवर।
है बदल सी गई, कुछ फ़िजा वक़्त की
अश्क की धार भी, रुक गई जो 'अमर'।
अश्क की धार भी, रुक गई जो 'अमर'।
(20)
जब भी हँसते तुम आते हो
------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
जब भी हँसते तुम आते हो
कुछ सौगातें भी लाते हो।
कुछ सौगातें भी लाते हो।
भूली-बिसरी यादें छेड़ी
घाव हरे अब कर जाते हो।
घाव हरे अब कर जाते हो।
ऐसा तो सौ बार हुआ है
हरदम मुझको भरमाते हो।
हरदम मुझको भरमाते हो।
नैनों के कोरों से छलके
धीरे से जब मुस्काते हो।
धीरे से जब मुस्काते हो।
ढलता यौवन भी इतराता
मुझको अब भी ललचाते हो।
मुझको अब भी ललचाते हो।
बीते जीवन के पल कितने
अब भी अमर' क्यों सकुचाते हो।
अब भी अमर' क्यों सकुचाते हो।
(21)
ब़ुत बनाकर
-----------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ब़ुत बनाकर रोज ही तुम तोड़ते हो
कर चुके जिसको दफ़न क्यों कोड़ते हो।
कर चुके जिसको दफ़न क्यों कोड़ते हो।
अब बता दो कौन सी बाक़ी कसक है
आज फिर क्यों सर्द साँसें छोड़ते हो।
आज फिर क्यों सर्द साँसें छोड़ते हो।
ख़्वाब सबने तो सुहाने ही दिखाए
बन गई नासूर यादें फोड़ते हो।
बन गई नासूर यादें फोड़ते हो।
एक मन मंदिर बना लो उस जगह तुम
बैठकर दिल से जहाँ दिल जोड़ते हो।
बैठकर दिल से जहाँ दिल जोड़ते हो।
फिक्र कब तक डर अजाने का करोगे
हादसों की सोच क्यों मुँह मोड़ते हो।
हादसों की सोच क्यों मुँह मोड़ते हो।
बेस़बब तो नैन फिर छलके नहीं हैं
क्यों 'अमर' ऐसे जिग़र झिँझोड़ते हो।
क्यों 'अमर' ऐसे जिग़र झिँझोड़ते हो।
(22)
ढल रही अब शाम
---------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ढल रही अब शाम तो फ़िर देखता हूँ प्यार को
ढह रही दीवार थी रोके नदी की धार को।
ढह रही दीवार थी रोके नदी की धार को।
उठ रहा था जो बवंडर इस समंदर में कभी
बन गया है वो भँवर अब देखकर पतवार को
बन गया है वो भँवर अब देखकर पतवार को
जो दिखाती जिंदगी अब देख मत चुपचाप तू
ना मिले साहिल कभी तो चूम ले मँझ धार को।
ना मिले साहिल कभी तो चूम ले मँझ धार को।
हो सके तो आज पढ़ तुम ज़र्द रुख़ के हर्फ़ को
सुर्ख़ गालों ने छुपाया आँसुओं की धार को।
सुर्ख़ गालों ने छुपाया आँसुओं की धार को।
कशमकश की इस ख़लिश में चाँद गर मिलता मुझे
पूछता ये दाग क्यों है क्या कहें संसार को।
पूछता ये दाग क्यों है क्या कहें संसार को।
चाहते हो कैद करना देह की इस गंध को
जज्ब कर पहले 'अमर' तुम ग़म के पारावार को
जज्ब कर पहले 'अमर' तुम ग़म के पारावार को
(23)
उठे नैन फ़िर से
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय)
मोबाइल - 9871603621
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय)
मोबाइल - 9871603621
उठे नैन फ़िर से मग़र आज बिन खिले
जहाँ तक नज़र जाए बेचैन सब मिले।
जहाँ तक नज़र जाए बेचैन सब मिले।
अँधेरों से लड़ते अकेले रहे हम
सभी शूरमाओं के जो लब़ थे सिले।
सभी शूरमाओं के जो लब़ थे सिले।
अँधेरों से कह दो सिमट जाए ख़ुद में
चराग़ों की लौ से कभी ना करे गिले।
चराग़ों की लौ से कभी ना करे गिले।
सुबह फिर हुई औ परिन्दे भी चहके
चली है हवा जो नई तो वो भी हिले।
चली है हवा जो नई तो वो भी हिले।
बनाया है उसने सलीके से उल्लू
करम सबके अपने मिलेंगे कभी सिले।
करम सबके अपने मिलेंगे कभी सिले।
हँसी में 'अमर' तुम ग़ज़ल कह रहे हो
समेटे हुए ग़म सभी कब सुकूँ मिले।
समेटे हुए ग़म सभी कब सुकूँ मिले।
(24)
कोई कैसे समझे
----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल - 9871603621
----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल - 9871603621
कोई कैसे समझे मुसीबत हमारी,
मुझे तो पता है विवशता तुम्हारी।
मुझे तो पता है विवशता तुम्हारी।
सिमटती हुई रौशनी के सहारे
सफ़र है तुम्हारा अँधेरों में जारी।
सफ़र है तुम्हारा अँधेरों में जारी।
कभी मत कहो ये कि मजबूरियाँ हैं
अँधेरों से लड़ने की आई है बारी।
अँधेरों से लड़ने की आई है बारी।
अँधेरों से लड़ते रहे तुम अकेले
सभी शूरमाओं पे तुम ही हो भारी।
सभी शूरमाओं पे तुम ही हो भारी।
अँधेरों से कह दो सिमट जाए खुद में
च़रागों की लौ से अमावस भी हारी।
च़रागों की लौ से अमावस भी हारी।
सुबह हो रही है परिन्दे भी चहके
हवाएँ दिखाएँ जो फिर बेकरारी
हवाएँ दिखाएँ जो फिर बेकरारी
सलीके से उसने दिया सबको धोखा
सफ़र मेँ है बेचैन हर इक सवारी ।
सफ़र मेँ है बेचैन हर इक सवारी ।
ग़ज़ल कह रहे हो 'अमर' उस जगह तुम
लुटी जा रही है जहाँ आज नारी।
लुटी जा रही है जहाँ आज नारी।
(25)
किसको बताएँ
-------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
मोबाइल-9871603622
-------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
मोबाइल-9871603622
किसको बताएँ क्यों जहर जीवन में अब ये भर गया
जलती हुई इस आग में वह राख सब कुछ कर गया।
जलती हुई इस आग में वह राख सब कुछ कर गया।
वादे सभी हैँ खोखले, जब भी हवा थी कह रही
पर था समां ऐसा बना तब बिन कहे जग मर गया।
पर था समां ऐसा बना तब बिन कहे जग मर गया।
थी जब चली उसकी सुनामी बाँध भी टूटे कई
चुपचाप सब सहते रहे अब सच कहें अवसर गया।
चुपचाप सब सहते रहे अब सच कहें अवसर गया।
रणबाँकुरे आगे बढ़े हैं जंग फिर से छिड़ गई
सैलाब भी अब थम रहा तो फिर दिलों से डर गया।
सैलाब भी अब थम रहा तो फिर दिलों से डर गया।
चलती रहीं सब कोशिशें पर लोग अब बहके नहीं
काँटे डगर में हर तरफ काँटों से मैं मिलकर गया।
काँटे डगर में हर तरफ काँटों से मैं मिलकर गया।
कब तक चलेंगे खोटे सिक्के रो रहा बाजार भी
सपने दिखाए थे बहुत अब तो 'अमर' जी भर गया।
सपने दिखाए थे बहुत अब तो 'अमर' जी भर गया।
(26)
कैद करने चला है
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
कैद करने चला है हवाओं को वो
अनसुनी कर रहा सब सद़ाओं को वो।
अनसुनी कर रहा सब सद़ाओं को वो।
हुक्म है मौज़ भी ना मचलकर बहे
हर समय तौलता है वफ़ाओं को वो।
हर समय तौलता है वफ़ाओं को वो।
चाहती हो बरसना, इज़ाज़त तो लो
कह रहा है हमेशा घटाओं को वो।
कह रहा है हमेशा घटाओं को वो।
हर जगह गूँजती है उसी की जुबाँ
बाँधना चाहता है दिशाओं को वो।
बाँधना चाहता है दिशाओं को वो।
अब चलीं आँधियाँ तो लगा चौंकने
दोष देने लगा फिर फज़ाओं को वो
दोष देने लगा फिर फज़ाओं को वो
जब भड़कने लगी जंग की आग तो
कोसने अब लगा शूरमाओं को वो।
कोसने अब लगा शूरमाओं को वो।
लुट रही आबरू बेटियों की जहाँ
मुँह दिखाए 'अमर' कैसे माँओं को वो।
मुँह दिखाए 'अमर' कैसे माँओं को वो।
(27)
नज़रें मिलाने की इज़ाजत
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
नज़रें मिलाने की इज़ाजत अब कहाँ
पलकें झुकाने की इज़ाजत अब कहाँ।
पलकें झुकाने की इज़ाजत अब कहाँ।
दिल को चुकाना तो पड़ेगा मोल कुछ
लब को हिलाने की इज़ाजत अब कहाँ।
लब को हिलाने की इज़ाजत अब कहाँ।
इज़हार तुमसे प्यार का कैसे करें
दिल भी लगाने की इज़ाजत अब कहाँ।
दिल भी लगाने की इज़ाजत अब कहाँ।
तुम भी गढ़ो उनके कसीद़े बैठकर
मन की सुनाने की इज़ाजत अब कहाँ।
मन की सुनाने की इज़ाजत अब कहाँ।
कैसे कहे कोई ग़ज़ल भी इस तरह
सच को बताने की इज़ाजत अब कहाँ।
सच को बताने की इज़ाजत अब कहाँ।
फैला अँधेरा हर तरफ से है मग़र
दीया जलाने की इज़ाजत अब कहाँ।
दीया जलाने की इज़ाजत अब कहाँ।
देखो 'अमर' जलवे सियास़त के सभी
नफ़रत मिटाने की इज़ाजत अब कहाँ।
नफ़रत मिटाने की इज़ाजत अब कहाँ।
(28)
पूछ मत बेखबर आज क्यों हैं सभी
-------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
पूछ मत बेखबर आज क्यों हैं सभी
राग मायूस चुप साज क्यों हैं सभी।
राग मायूस चुप साज क्यों हैं सभी।
तुम जवाँ पर जुबाँ कैसे खामोश है
टूटते हुए अल्फ़ाज क्यों हैं सभी।
टूटते हुए अल्फ़ाज क्यों हैं सभी।
हर तरफ़ चल रहीं तेज हैं आंधियाँ
फ़िर भी हैरान-नाराज क्यों हैं सभी।
फ़िर भी हैरान-नाराज क्यों हैं सभी।
इश्क़ बेचैन होने लगा हर जगह
पर उजागर तेरे राज क्यों हैं सभी।
पर उजागर तेरे राज क्यों हैं सभी।
ऐ मुलाज़िम यहीं कैद है जिंदगी
इस कफ़स पे करे नाज क्यों हैं सभी।
इस कफ़स पे करे नाज क्यों हैं सभी।
लाएगा रंग तेरा जुनूँ भी 'अमर'
अब ज़माने के मुँहताज क्यों हैं सभी।
अब ज़माने के मुँहताज क्यों हैं सभी।
(29)
कोई तो बचा लो
-----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
कोई तो बचा लो हैं चाहत के मारे
जला है नशेमन अदावत के मारे।
जला है नशेमन अदावत के मारे।
कोई हद नहीं अपनी दीवानगी की
कहाँ जायें आखिर मुहब्ब़त के मारे।
कहाँ जायें आखिर मुहब्ब़त के मारे।
ये आवारगी का फ़साना हमारा
सुनाएँ किसे हम हैं उल्फ़त के मारे।
सुनाएँ किसे हम हैं उल्फ़त के मारे।
सदा दिल की उनके सुनाई पड़ी जब
मचलने लगा दिल मुहब्ब़त के मारे।
मचलने लगा दिल मुहब्ब़त के मारे।
निगाहें तुम्हारी उठीं आज हम पर
रहे हम खड़े पर शराफ़त के मारे।
रहे हम खड़े पर शराफ़त के मारे।
'अमर' आज मंजूर तेरा कहर है
डरेंगे नहीं हम मुसीबत के मारे।
डरेंगे नहीं हम मुसीबत के मारे।
(30)
22 22 22 22
हर ठौर नहीं दिल अब मिलता
--------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
--------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
हर ठौर नहीं अब दिल मिलता
जों फूल नहीं हर पल खिलता।
जों फूल नहीं हर पल खिलता।
वो दौर बना फिर से सपना
तुमसे दिल मिलकर जब खिलता।
तुमसे दिल मिलकर जब खिलता।
अपनी दुनिया बदली जबसे
कोई भी नहीं तुम सा मिलता।
कोई भी नहीं तुम सा मिलता।
सारी दुनिया भटका लेकिन
वो प्यार पुराना नहीं मिलता।
वो प्यार पुराना नहीं मिलता।
कोशिश कर लो तुम भी पर अब
यह ज़िस्म नहीं पल भर हिलता।
यह ज़िस्म नहीं पल भर हिलता।
धड़कन चलती तब तक जब तक
है जख़्म 'अमर' तुमसे सिलता।
है जख़्म 'अमर' तुमसे सिलता।
(31)
लहरों पर बहते जाना
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
लहरों पर बहते जाना ही अब भी अच्छा लगता है
हिचकोले खाते बढ़ता हूँ तब भी अच्छा लगता है।
हिचकोले खाते बढ़ता हूँ तब भी अच्छा लगता है।
लम्बी स्याह सी रातें गुजरीं और अभी है भोर हुई
देखा थोड़ा निकला सूरज तब भी अच्छा लगता है।
देखा थोड़ा निकला सूरज तब भी अच्छा लगता है।
सब दिन तुम जिस राह चले हो मंज़िल मेरी आज उधर
उठता है तूफ़ान बवंडर जब भी अच्छा लगता है।
उठता है तूफ़ान बवंडर जब भी अच्छा लगता है।
चलते-चलते थक जाऊँ तो कल की याद दिला देना
तेरे मुँह की लाली का मतलब भी अच्छा लगता है।
तेरे मुँह की लाली का मतलब भी अच्छा लगता है।
हर पल अपना साथ रहे सो दिखती बस तरक़ीब यही
तकती आँखों का तो हर करतब भी अच्छा लगता है।
तकती आँखों का तो हर करतब भी अच्छा लगता है।
वक़्त बड़ा बलवान 'अमर' है भरता रहता जख़्मों को
इज़लास-अदालत से ऊपर रब भी अच्छा लगता है।
इज़लास-अदालत से ऊपर रब भी अच्छा लगता है।
(32)
क़ुदरत लुभाती जा रही है
----------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
----------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
क़ुदरत लुभाती जा रही है फिर मुझे।
फ़ितरत रुलाती जा रही है फिर मुझे।
फ़ितरत रुलाती जा रही है फिर मुझे।
लहरें झुलाती जा रहीं हैं फिर मुझे
यादें बहाती जा रहीं हैं फिर मुझे।
यादें बहाती जा रहीं हैं फिर मुझे।
हर दिन मजाज़ी कुफ्र से निस्बत रही
अब क्या बनाती जा रही है फिर मुझे ।
अब क्या बनाती जा रही है फिर मुझे ।
मालिक ने मेरा क्या मुकद्दर लिख दिया
हर शै जताती जा रही है फिर मुझे।
हर शै जताती जा रही है फिर मुझे।
किस खेल में सिमटी रही ये ज़िन्दगी
अब क्या दिखाती जा रही है फिर मुझे।
अब क्या दिखाती जा रही है फिर मुझे।
मिटतीं लकीरें हाथ से हैं क्या कभी
किस्मत सिखाती जा रही है फिर मुझे।
किस्मत सिखाती जा रही है फिर मुझे।
हाकिम 'अमर' खामोश क्यों है इस तरह
चुप्पी सताती जा रही है फिर मुझे।
चुप्पी सताती जा रही है फिर मुझे।
(33)
1222 1222 1222 1222
सभी कहते रहे
'''"'""""""""""''""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
'''"'""""""""""''""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
सभी कहते रहे उसकी हक़ीक़त का फ़साना अब
कहाँ तक वो गिरोगा देखता है ये ज़माना अब।
कहाँ तक वो गिरोगा देखता है ये ज़माना अब।
फ़कत वादों के झ़ांसे में सभी खोए रहे सब दिन
मग़र फ़िर वक्त भी गाने लगा बदला तराना अब।
मग़र फ़िर वक्त भी गाने लगा बदला तराना अब।
कली को चूसकर जो गुनगुनाता बेशरम भौंरा
पड़ी जब हर तरफ से मार तो ढूँढे बहाना अब।
पड़ी जब हर तरफ से मार तो ढूँढे बहाना अब।
छुपाने की करे कोशिश वही सब दिन गुनाहों को
नहीं उसका शरीफ़ों के शहर में है ठिकाना अब।
नहीं उसका शरीफ़ों के शहर में है ठिकाना अब।
हँसी है हो गई गायब दिखा मायूस अब हाक़िम
घिरा जब हर दिशा से वो हँसा दुश्मन पुराना अब।
घिरा जब हर दिशा से वो हँसा दुश्मन पुराना अब।
मुकर्रर वक्त हर अंजाम का होता सुनो तुम भी
'अमर' है हो रहा रुस्वा जो बनता था सयाना अब।
'अमर' है हो रहा रुस्वा जो बनता था सयाना अब।
(34)
11212 11212 11212 11212
इस रोग का है इलाज़ क्या
""""""""""""""""""""""""""""""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
""""""""""""""""""""""""""""""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
इस रोग का है इलाज़ क्या मुझे इश्क है जो रक़ीब से
कमबख़्त यह मिटता नहीं कोई क्या कहेगा हब़ीब से।
कमबख़्त यह मिटता नहीं कोई क्या कहेगा हब़ीब से।
कहते रहे सब उम्र भर बदले नहीं तुम ही कभी
दहलीज़ पर अब ज़िंदगी वह देखती है क़रीब से।
दहलीज़ पर अब ज़िंदगी वह देखती है क़रीब से।
नफ़रत जहाँ तक फैलती घुटता वहाँ तक आदमी
खुद को लुटा अब प्यार पर मिलता मगर जो नसीब से।
खुद को लुटा अब प्यार पर मिलता मगर जो नसीब से।
दिल चीर के दिखला रहे हम पास में महबूब है
पर सुर्ख खूँ बहता रहा बचते रहे वो गरीब से।
पर सुर्ख खूँ बहता रहा बचते रहे वो गरीब से।
सब थक चुके पर वो नहीं उनकी रही मुझ पर नज़र
वह चाहते हैं तोड़ना सबको इसी तरक़ीब से।
वह चाहते हैं तोड़ना सबको इसी तरक़ीब से।
बहने लगी बदली हवा चुभने लगी कुछ आँख को
हँसने लगी रुत भी 'अमर' डरने लगे वो सलीब से।
हँसने लगी रुत भी 'अमर' डरने लगे वो सलीब से।
(35)
2212 2212 2212 2212
थे हम गए जब उस गली
-------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
थे हम गए जब उस गली
-------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
थे हम गए जब उस गली देखा हवा भी रो रही
पाकर मगर फ़िर पास मुझको वादियों में खो रही।
पाकर मगर फ़िर पास मुझको वादियों में खो रही।
मिलकर सभी ने खूब लूटा थी बची केवल तपिस
दो बूंद टपके नैन से थी सुध नहीं बस रो रही।
दो बूंद टपके नैन से थी सुध नहीं बस रो रही।
हर वक़्त बहती ही रही कब मानती लेकिन हवा
दुख-दर्द सब सहते हुए चुपचाप खुद में खो रही।
दुख-दर्द सब सहते हुए चुपचाप खुद में खो रही।
प्यासी हुई नज़रों से देखा छा रही नभ में घटा
पर फ़िर अचानक कुछ हुआ शोलों की बारिश हो रही।
पर फ़िर अचानक कुछ हुआ शोलों की बारिश हो रही।
किस आग में जलती रही वह जो कभी बुझती नहीं
किसको पता ये बात के वह पाप सबके ढो रही।
किसको पता ये बात के वह पाप सबके ढो रही।
चिंता नहीं अपनी उसे वह तो दुखी सबके लिए
होके 'अमर' बेचैन वह माँ की तरह ही रो रही।
होके 'अमर' बेचैन वह माँ की तरह ही रो रही।
36.
(2212 2212 2212 212)
ढहने लगी ईमारतें
-----------------------------
-----------------------------
ढहते गए सारे मकां, जलती फ़सल खलिहान में
खोजूँ कहाँ मैं आदमी, बस भीड़ है दालान में।
खोजूँ कहाँ मैं आदमी, बस भीड़ है दालान में।
करते रहे हम कोशिशें, उनको बताने की सदा
रखते नहीं कुछ फ़ासले, इंसान वो भगवान में।
रखते नहीं कुछ फ़ासले, इंसान वो भगवान में।
पोखर सभी थे भर चुके, हम रह गए पर फिर वहीं
सब लौट आए छू तरल, तल आप के फ़रमान में।
सब लौट आए छू तरल, तल आप के फ़रमान में।
रातें कटे ना चैन से, आती नहीं है नींद अब
होने लगी बेजान भी, जम्हूरियत मैदान में।
होने लगी बेजान भी, जम्हूरियत मैदान में।
बीती कहानी भर नहीं, जज्बा तिरा था मीत वह
अपनों भरी दुनिया यही, थी बात कुछ मुस्कान में।
अपनों भरी दुनिया यही, थी बात कुछ मुस्कान में।
कैसे उसे दें छोड़ जो, दे जिंदगी का हौसला
उलफ़त “अमर” अहसास है, बसता नहीं शैतान में।
उलफ़त “अमर” अहसास है, बसता नहीं शैतान में।
37.
चली थी किधर से किधर जा रही है
---------------------------------------------
चली थी किधर से किधर जा रही है
न मालूम कैसी जिया आ रही है।
---------------------------------------------
चली थी किधर से किधर जा रही है
न मालूम कैसी जिया आ रही है।
नहीं था वहाँ आज भी कुछ नहीं है
हवा आज सौगात क्या ला रही है।
हवा आज सौगात क्या ला रही है।
देखूँ गर कभी कुछ नहीं दीखता है
अभी धूप थी अब घटा छा रही है।
अभी धूप थी अब घटा छा रही है।
मचलता रहा जिस्म जलता जिगर है
देखो आग अब किस कदर खा रही है।
देखो आग अब किस कदर खा रही है।
रोती सी वो सूरत पे हँसने की आदत
ख़ुशी और ग़म के ग़ज़ल गा रही है।
ख़ुशी और ग़म के ग़ज़ल गा रही है।
समा क्या अजब कुछ 'अमर' देख तुम भी
नई है ये रंगत गजब ढा रही है।
नई है ये रंगत गजब ढा रही है।
38.
2212 212 2212 212
उनकी मिली छाँव तो
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
उनकी मिली छाँव तो मशहूर तुम हो गए
किसने पुकारा के यूँ मजबूर तुम हो गए
किसने पुकारा के यूँ मजबूर तुम हो गए
किसको बताएँ तड़प दिल की बनी ही रही
उनकी हँसी देखकर मगरूर तुम हो गए।।
उनकी हँसी देखकर मगरूर तुम हो गए।।
दबकर पड़े थे कहीं पत्थर के जो ढेर में
जबसे छुआ उसने कोहेनूर तुम हो गए।
जबसे छुआ उसने कोहेनूर तुम हो गए।
मक़सद तुम्हारा गया बन चीरना अब तमस
यूँ ही नहीं उस नज़र के नूर तुम हो गए।
यूँ ही नहीं उस नज़र के नूर तुम हो गए।
कुछ तो करम अपने कुछ रब की दुआ भी रही
आँधी चली धूल की जब दूर तुम हो गए।
आँधी चली धूल की जब दूर तुम हो गए।
इस भीड़ में सब अकेला चल रहा है 'अमर'
अच्छा हुआ कारवां से दूर तुम हो गए।
अच्छा हुआ कारवां से दूर तुम हो गए।
39.
2122 1212 22
प्यार पे ऐतबार कर लेना
"""""""""""""""""""""""""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
प्यार पे ऐतबार कर लेना
"""""""""""""""""""""""""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
प्यार पे ऐतबार कर लेना
इस तपिस में बहार कर लेना।
इस तपिस में बहार कर लेना।
कर रहे हो सफ़र अगर तन्हा
दिल नहीं बेक़रार कर लेना।
दिल नहीं बेक़रार कर लेना।
नाव गर डूबती हो साहिल पे
मौज़ से तुम तो प्यार कर लेना।
मौज़ से तुम तो प्यार कर लेना।
कामयाबी मिले नसीबों से,
तुम मुहब्बत शुमार कर लेना।
तुम मुहब्बत शुमार कर लेना।
जब उजाला लगे तुम्हें डसने
बन्द आँखों को यार कर लेना
बन्द आँखों को यार कर लेना
आग मौसम लगे उगलने तो
बस 'अमर' इंतजार कर लेना।
बस 'अमर' इंतजार कर लेना।
40.
वक्त का रूप ज्यों-ज्यों बदलता रहा
---------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
वक़्त का रूप ज्यों-ज्यों बदलता रहा
ज़ुल्म का भी नया खुलता रस्ता रहा ।
ज़ुल्म का भी नया खुलता रस्ता रहा ।
आपदाएँ अभी हैं खड़ीं सामने
बंद आँखें तू फिर भी तो करता रहा।
बंद आँखें तू फिर भी तो करता रहा।
साज़िशें चल रही थीं पुरानी सभी
साज़िशों की इब़ारत़ भी पढता रहा।
साज़िशों की इब़ारत़ भी पढता रहा।
वो भी शामिल हुए दुश्मनों में अभी
यार जिनको तू अपना समझता रहा।
यार जिनको तू अपना समझता रहा।
इस इमारत में अब धूप आती नहीं
रोशनी देखने को तड़पता रहा।
रोशनी देखने को तड़पता रहा।
रात में देखकर आँसुओं को 'अमर'
हर धड़ी करवटें ही बदलता रहा।
हर धड़ी करवटें ही बदलता रहा।
41.
देखती ही रही
"""""""""""""""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
"""""""""""""""""""
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
देखती ही रही राह तेरी सनम
बीते ना जाने कितने जनम।
बीते ना जाने कितने जनम।
मैं तुम्हारे लिए ही तो सजती रही
ना खतम हो कभी भी मेरा ये भरम।
ना खतम हो कभी भी मेरा ये भरम।
सूखने सब शजर के लगे शाख हैं
पर बचे फूल कुछ जान इसका मरम।
पर बचे फूल कुछ जान इसका मरम।
ढूँढती आज मैं हर दिशा यार को
फल मिलेगा मुझे जैसे होंगे करम।
फल मिलेगा मुझे जैसे होंगे करम।
सोचना तुम नहीं भींख हूँ माँगती
जिद यही प्यार में अब करें क्यों शरम।
जिद यही प्यार में अब करें क्यों शरम।
सिर्फ है इश्क की बात ये अब नहीं
आन की बात है मत 'अमर' हो नरम।
आन की बात है मत 'अमर' हो नरम।
42.
212 212 212 212
जिन्दगी जीने फिर की ललक बढ़ गई
---------------------------------------------------
जिन्दगी जीने की फ़िर ललक बढ़ गई
आज छक के पीने की चसक बढ़ गई।
---------------------------------------------------
जिन्दगी जीने की फ़िर ललक बढ़ गई
आज छक के पीने की चसक बढ़ गई।
हाथ पर हाथ रख बैठते जो रहे
आखेँ सबको दिखाते चमक बढ़ गई।
आखेँ सबको दिखाते चमक बढ़ गई।
नफरतों में हुई कैद जब ज़िंदगी
खत्म शर्मो-हया बस ठसक बढ़ गई।
खत्म शर्मो-हया बस ठसक बढ़ गई।
आग फ़ैली हुई पर अँधेरा है क्यों
घर धुएँ से बने ये सनक बढ़ गई।
घर धुएँ से बने ये सनक बढ़ गई।
किसे छू आ रही ये महकती हवा
रुक बहारो दिलों की कसक बढ़ गई।
रुक बहारो दिलों की कसक बढ़ गई।
हँस के ही आज पीना पड़ेगा जहर
अब ‘अमर’ फ़िर तुम्हारी महक बढ़ गई
अब ‘अमर’ फ़िर तुम्हारी महक बढ़ गई
43.
कहना ग़ज़ल अब मेरी आदत बन गई
--------------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
--------------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
कहना ग़ज़ल अब मेरी आदत बन गई
कुदरत की हर शै की इबादत बन गई।
कुदरत की हर शै की इबादत बन गई।
लमहों में जीने का मज़ा अब आ रहा
पल पल में यूँ मरने की किस्मत बन गई।
पल पल में यूँ मरने की किस्मत बन गई।
जब भी कभी पीते तो बढ़ती प्यास ही
पीये बिना अब सब मुसीबत बन गई।
पीये बिना अब सब मुसीबत बन गई।
तन्हा कोई पीता तो कोई बज़्म में
अब गुफ्तगू भी एक हसरत बन गई।
अब गुफ्तगू भी एक हसरत बन गई।
पीते हमेशा अपने हिस्से का सभी
ग़म पीने की अपनी तो फितरत बन गई।
ग़म पीने की अपनी तो फितरत बन गई।
बेचैन तुम पीने की ख़्वाहिश में 'अमर'
अब अश्क़ ही पीने की चाहत बन गई।
अब अश्क़ ही पीने की चाहत बन गई।
44.
122 122 122 122
किधर ज़िंदगी अब चली जा रही है
------------------------------------------
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
किधर ज़िंदगी अब चली जा रही है
------------------------------------------
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
किधर ज़िंदगी अब चली जा रही है ?
न जाने कहां से ज़िया आ रही है ?
न जाने कहां से ज़िया आ रही है ?
मिले तो नहीं पर दिखाई दिए वो
अचानक घटा धूप में छा रही है।
अचानक घटा धूप में छा रही है।
नहीं कुछ रहा कल नहीं आज भी कुछ
किसे अब पता क्या हवा ला रही है।
किसे अब पता क्या हवा ला रही है।
ज़िगर जल गया ज़हर है ज़िस्म में भी
मुझे आग ये किस क़दर खा रही है।
मुझे आग ये किस क़दर खा रही है।
उदासी हँसी का सबब़ बन गई जब
खुशी और ग़म की वो धुन गा रही है।
खुशी और ग़म की वो धुन गा रही है।
अजब सा सम़ा है 'अमर' अब कहे क्या
दिशाओं की रंगत गज़ब ढा रही है।
👏👏👏👏👏
दिशाओं की रंगत गज़ब ढा रही है।
👏👏👏👏👏
45.
22 22 22 22
दुनिया के सब रिश्ते देखे
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
दुनिया के सब रिश्ते देखे
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
दुनिया के सब रिश्ते देखे
टूटे दिल भी जुड़ते देखे।
टूटे दिल भी जुड़ते देखे।
मन का मैल धुला जब जब भी
ठंडे जिस़्म पिघलते देखे।
ठंडे जिस़्म पिघलते देखे।
गूँजी मन में शहनाई जब
दिल से राग निकलते देखे।
दिल से राग निकलते देखे।
वक़्त की डोर जिधर है खींचे
पाँव उधर ही उठते देखे।
पाँव उधर ही उठते देखे।
रूह-बद़न जब आज मिले तो
बीच के फासले मिटते देखे।
बीच के फासले मिटते देखे।
उल्फ़त की है अज़ब कहानी
दर्द ही सबको मिलते देखे।
दर्द ही सबको मिलते देखे।
गम़ है 'अमर' तो उल्फ़त भी है
जोड़ मुक़म्मल बँधते देखे।
जोड़ मुक़म्मल बँधते देखे।
46.
इज़ाजत मुझे दो
-----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
इज़ाजत मुझे दो ग़ज़ल कह सकें अब
इनायत करो बेफ़िकर रह सकें अब।
इनायत करो बेफ़िकर रह सकें अब।
अगाड़ी-पछाड़ी बहुत कर चुके तुम
करो कुछ नया प्यार में बह सकें अब।
करो कुछ नया प्यार में बह सकें अब।
बिरहमन-दलित की मिटा दूरियाँ दो
खडीं हैँ जो दीवारें वो ढह सकेँ अब।
खडीं हैँ जो दीवारें वो ढह सकेँ अब।
मुसलमाँ दुखी हिन्दुवन भी दुखी हैं
मुहब्ब़त सभी का धरम कह सकें अब।
मुहब्ब़त सभी का धरम कह सकें अब।
सियासत बिना ज़िंदगी खूबसूरत
खरीदें अमन चैन से रह सकें अब।
खरीदें अमन चैन से रह सकें अब।
धुआँ ही धुआँ फैलता नफ़रतों का
बुझाओ 'अमर' आग ना सह सकें अब।
बुझाओ 'अमर' आग ना सह सकें अब।
47.
2122 1212 22/112
हमसफ़र तुम अगर रहे होते
-----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
हमसफ़र तुम अगर रहे होते
-----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
हमसफ़र तुम अगर रहे होते
खूब़सूरत ग़ज़ल कहे होते।
खूब़सूरत ग़ज़ल कहे होते।
नज़्म कहना बहुत ही था आसाँ
दर्द तुमने अगर सहे होते
दर्द तुमने अगर सहे होते
जख़्म नासूर बन गया है अब
तुम तो मरहम लगा रहे होते।
तुम तो मरहम लगा रहे होते।
शायरी के लिए जरूरी ये
चोट खाकर तड़प रहे होते।
चोट खाकर तड़प रहे होते।
दूर से देखते गए लेकिन
पास आकर भी कुछ कहे होते।
पास आकर भी कुछ कहे होते।
चश्म़-तर ही 'अमर' रहा हरदम
लोग पर क्या समझ रहे होते।
लोग पर क्या समझ रहे होते।
48.
2122 2122 2122 212
चुपके से जब आप मेरी ज़िन्दगी में आ गए
.........................................................
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
चुपके से जब आप मेरी ज़िन्दगी में आ गए
.........................................................
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
आप चुपके से जो मेरी ज़िन्दगी में आ गए
ज़िन्दगी को भी सभी अंदाज हैं दिखला गए।
ज़िन्दगी को भी सभी अंदाज हैं दिखला गए।
आप मेरी ज़िन्दगी हैं ये पता कब था मुझे तब
आप ही मुझको हयाते-कायदे सिखला गए।
आप ही मुझको हयाते-कायदे सिखला गए।
बेखुदी का दौर था इक जो चला हरदिन नहीं
आज तारिक-ए-जहाँ मुतरिब का दिल बहला गए।
आज तारिक-ए-जहाँ मुतरिब का दिल बहला गए।
रूह भी भटकी कभी थी तितलियों के बीच ही
खत्म अब वो वक़्त फ़िर से आप सबपर छा गए।
खत्म अब वो वक़्त फ़िर से आप सबपर छा गए।
आपके हम हो गए हैं देखिए खुद आप ही
लोग भी कहते 'अमर' हम आपको हैं भा गए।
लोग भी कहते 'अमर' हम आपको हैं भा गए।
49.
2212 2212 2212 2212
टुकड़ों में बंटती ही रही
.................................
अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
टुकड़ों में बंटती ही रही
.................................
अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
टुकड़ों में बँटती ही रही इस ज़िंन्दगी का क्या करें
हर वक़्त सस्ती ही रही इस ज़िंन्दगी का क्या करें।
हर वक़्त सस्ती ही रही इस ज़िंन्दगी का क्या करें।
सौदा बना सच का रहे वो बैठकर डेरों में ही
अस्म़त तो लुटती ही रही इस ज़िंन्दगी का क्या करें।
अस्म़त तो लुटती ही रही इस ज़िंन्दगी का क्या करें।
इस शोहरत़ का राज़ क्या है जाके भी पूछो वहाँ ।
हर पल सिमटती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
हर पल सिमटती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
हैरान थे सब देखकर उस काफिले का रंग ही
लो याद मिटती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
लो याद मिटती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
कमतर ख़ुदा से क्यों वो समझें राज का जब साथ हो
हर बार डरती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
हर बार डरती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
बरपा रहे थे वो कहर हर रोज बस मासूम पे
चुपचाप सहती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
चुपचाप सहती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
उसको फ़रिश्ता कह रहे थे खून से जो खेलता
हर हाल मरती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
हर हाल मरती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
दो गालियां ये रस्म है सब दिन बिरहमन को यहाँ
बेकार बजती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
बेकार बजती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
हाक़िम 'अमर' सज़दा करे फ़िर मुल्क़ के हालात क्या
हर सिम़्त पिटती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
हर सिम़्त पिटती ही रही इस ज़िंदगी का क्या करें।
50.
2212 2212 2212 2212
तुम फूल बनकर रोज खिलना
----------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
मोबाइल-9871603621
तुम फूल बनकर रोज खिलना
----------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
मोबाइल-9871603621
तुम फूल बनकर रोज खिलना मैं तो तेरी गंध हूँ
बिखरे परागों में मगर मौजूद रस मकरंद हूँ।
बिखरे परागों में मगर मौजूद रस मकरंद हूँ।
देना पथिक को छाँव शीतल पेड़ बन बरगद सा तुम
मिटती तपिश तन मन की जिससे मैं पवन वो मंद हूँ।
मिटती तपिश तन मन की जिससे मैं पवन वो मंद हूँ।
तुम तो नदी इस गाँव की हो गीत गाती जा रही
तेरे रसीले गीत के मैं ही मनोहर छंद हूँ।
तेरे रसीले गीत के मैं ही मनोहर छंद हूँ।
चलती कभी जब तेज धड़कन और सासें भी गरम
गाए भले दिल राग सरगम पर नयन मैं बंद हूँ।
गाए भले दिल राग सरगम पर नयन मैं बंद हूँ।
जब डूबता यौवन युगों से झील सी आँखों में है
मुरली बजाता शाम बनकर लूटता आनंद हूँ।
मुरली बजाता शाम बनकर लूटता आनंद हूँ।
मैं ढूँढता खुद को अगर तो देखता बस अख्स को
कहते ‘अमर' क्यों तुम मुझे सब दिन रहा स्वछंद हूँ।
कहते ‘अमर' क्यों तुम मुझे सब दिन रहा स्वछंद हूँ।
51.
2122 2122 2122 212
वादियाँ खामोश
-------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
वादियाँ खामोश
-------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
वादियाँ खामोश खामोशी भरा है ये सफर
अब दरख्तों से भी डरने लग गए हम किस कदर।
अब दरख्तों से भी डरने लग गए हम किस कदर।
ये परिंदे आज चुप रहकर गवाही दे रहे
इस जगह पर था हुआ करता कभी अपना भी घर।
इस जगह पर था हुआ करता कभी अपना भी घर।
तब गुजारीं थीं महकती सी कई शामें यहाँ
घुल गया कैसे फ़िजा में जानलेवा ये जहर।
घुल गया कैसे फ़िजा में जानलेवा ये जहर।
फूल भी बेनूर ही क्यों दिख रहे अब बाग में
खूबसूरत से चमन को लग गई किसकी नज़र।
खूबसूरत से चमन को लग गई किसकी नज़र।
जब कभी फिर याद आते वो पुराने दिन हमें
हम हमेशा ढूँढते अब भी वही खोई डगर।
हम हमेशा ढूँढते अब भी वही खोई डगर।
आज बंदिश है हवाओं पर यहाँ कैसे बहे
कौन लाए फ़िर मुबारक सी कभी कोई खबर।
कौन लाए फ़िर मुबारक सी कभी कोई खबर।
कोई भी अब करे क्या हालात ही ऐसे हुए
बन गया जो बागबाँ बदली उसी की फिर नज़र।
बन गया जो बागबाँ बदली उसी की फिर नज़र।
पर छँटेगी धुँध ये भी सुर्ख होगा आसमाँ
रात लंबी है मगर बदलेगी सूरत फिर 'अमर'।
रात लंबी है मगर बदलेगी सूरत फिर 'अमर'।
52.
मुंसरेह :(2212, 2221, 2212, 2221)
मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
मसतफ़इलुन मफ़ऊलात x2 सिर्फ़ मुज़ाहिफ़ सूरत में.
गुल को देखें
------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
देखें गुलों को या गुल के कर लें चमन में दीदार
मुद्दत से इन लमहों का किए जा रहे इंतेजार।
मुद्दत से इन लमहों का किए जा रहे इंतेजार।
नीयत कहर बरपाती हुई और दिलकश अंदाज
मासूमियत से गिर जाती है सब्र की हर दीवार।
मासूमियत से गिर जाती है सब्र की हर दीवार।
सांसें महकती उनकी लरजते हुए से थे होठ
वो चमचमाता सा रंग बेहोश कर दे सरकार।
वो चमचमाता सा रंग बेहोश कर दे सरकार।
ये सिलसिला उनकी शोखियों का करे तो है कत्ल
भड़के हुए हैं जज्बात अब तो मिलन की दरकार।
भड़के हुए हैं जज्बात अब तो मिलन की दरकार।
सच है कि झूठा ये एहसास किसे बतलाऊँ आज
क्यों हो रहा मुझको है भरम इश्क में अब हर बार।
क्यों हो रहा मुझको है भरम इश्क में अब हर बार।
खुद है खुदा का जो नूर उसको कहाँ है कुछ होश
इश़्के-इलाही को कब 'अमर' रोक सकती मीनार।
इश़्के-इलाही को कब 'अमर' रोक सकती मीनार।
53.
2122 1212 22
क्यों यहाँ इस कदर झमेले हैं
----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
अब यहाँ किस कदर झमेले हैं
भीड़ में भी सभी अकेले हैं।
भीड़ में भी सभी अकेले हैं।
बात क्या थी फँसे रहे हम भी
लोग तो सब नए-नवेले हैं।
लोग तो सब नए-नवेले हैं।
आपको था अगर गिला, कहते
अजनबी ही लगाते मेले हैं।
अजनबी ही लगाते मेले हैं।
देखिए तो किसी तरह हम भी
खींचते जिन्दगी के ठेले हैं।
खींचते जिन्दगी के ठेले हैं।
महफ़िलों की ये देखी है रँगत
सब किसी के चहेते चेले हैं।
सब किसी के चहेते चेले हैं।
क्या करें हम 'अमर' कहो तुम ही
खेल तुमने सभी तो खेले हैं।
खेल तुमने सभी तो खेले हैं।
54.
भूलना चाहें अगर तो
---------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
भूलना चाहें अगर तो भी भुला पाते कहाँ
जिन्द़गी को छोड़कर हम और अब जाते कहाँ
जिन्द़गी को छोड़कर हम और अब जाते कहाँ
मैं पुजारी प्रेम का तो प्यार मेरी राह है
दूर मंज़िल पास दिखती वो मग़र आते कहाँ।
दूर मंज़िल पास दिखती वो मग़र आते कहाँ।
उड़ते ही सब दिन रहे हम पंख बिन आकाश में
अब जमीं पर पाँव रख लें साज बिन गाते कहाँ।
अब जमीं पर पाँव रख लें साज बिन गाते कहाँ।
गुल यहाँ खिलता रहेगा खार को पर साथ रख
खार की सुन बात, राहें और दिखलाते कहाँ।
खार की सुन बात, राहें और दिखलाते कहाँ।
हो गया पागल है दिल अब कुछ नहीं है देखता
जब करम मौला करे तो खार भरमाते कहाँ।
जब करम मौला करे तो खार भरमाते कहाँ।
बंदगी किसकी 'अमर' अब फिर करें तुम दो बता
इश़्क ही तो है ख़ुदा लेकिन वो जतलाते कहाँ।
इश़्क ही तो है ख़ुदा लेकिन वो जतलाते कहाँ।
55.
बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला
मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
1212 212 122 1212 212 122
मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन मुफ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ऊलुन
1212 212 122 1212 212 122
महक महक के पवन भी यारा
-------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
महक महक के पवन भी यारा यहाँ सभी को बता रही है।
चहक चहक के दिलों की बातें मगर हमेशा सुना रही है।
चहक चहक के दिलों की बातें मगर हमेशा सुना रही है।
दिखी कभी मौत भी अगर तो उसे कहा प्यार से बुला के
बना अभी फासला यहाँ ज़िंदगी बहुत कुछ दिखा रही है।
बना अभी फासला यहाँ ज़िंदगी बहुत कुछ दिखा रही है।
बना लिया है बसेरा दिल को सभी मुझे चाहते हैं इतना
कवच बने हाथ हैं सभी अब सबों की दिल से दुआ रही है।
कवच बने हाथ हैं सभी अब सबों की दिल से दुआ रही है।
कभी छलक जो रहे थे आंसू विवश तुम्हारे नयन हुए जब
लबों को बेचैन होके चूमा लगन वो अपनी जता रही है।
लबों को बेचैन होके चूमा लगन वो अपनी जता रही है।
घड़ी कभी जब मिलन की आए हँसी-खुशी ही 'अमर' भी जाए
लिपट के सीने से लग गई जिंदगी को हमसे मिला रही है।
लिपट के सीने से लग गई जिंदगी को हमसे मिला रही है।
56.
रात लंबी हो गई है आओ इक शम्मा जलाएँ
-----------------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
रात लंबी हो गई है आओ इक शम्मा जलाएँ
मौत के आगोश से हम जिंदगी को लेके आएँ।
मौत के आगोश से हम जिंदगी को लेके आएँ।
गर विवश-बेचैन हो मजबूरियों के उमड़ें आँसू
सोखकर आँसू लबों से प्यार में हम डूब जाएँ।
सोखकर आँसू लबों से प्यार में हम डूब जाएँ।
गाँव चलकर ढूँढते हैं जिन्दगी जिन्दा वहाँ है
आज फिर अपनी पुरानी हम शरारत खोज लाएँ।
आज फिर अपनी पुरानी हम शरारत खोज लाएँ।
छत दरकती और बारिश में टपकटी रोज बूंदें
जिन्दगी खिलती वहीं तुमको बता ये राज जाएँ।
जिन्दगी खिलती वहीं तुमको बता ये राज जाएँ।
देखता हरदम रहा मैं जूझती पल-पल रही तू
जी रहे हम तेरी खातिर बात ये कैसे बताएँ
जी रहे हम तेरी खातिर बात ये कैसे बताएँ
कोहरा माना घना पर क्या 'अमर' छिपता उजाला
बादलों को चीर निकली रौशनी अब देख आएँ।
बादलों को चीर निकली रौशनी अब देख आएँ।
57.
2212 2212 2212 2212
कभी हार है कभी जीत है
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
कभी हार है कभी जीत है
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
कभी हार है कभी जीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ
सबकुछ लुटा खुश मीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
सबकुछ लुटा खुश मीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
क्या आज बदली ये फिज़ा मत देख तू मायूस हो
बदला समय यह रीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
बदला समय यह रीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
हर पल महाभारत यहाँ खुद से लड़ें हम रोज ही
अब बैर में भी प्रीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
अब बैर में भी प्रीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
हैं साथ रहते आज भी हम फ़र्क कोई कैसै करे
दिल का यही संगीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
दिल का यही संगीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
गुरब़त में भी बेफिक्र रह हम मौज करते ही रहे
अब साथ तो मनमीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
अब साथ तो मनमीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
चुप रह अभी क्या जानते हो मोल अपना तुम 'अमर'
दुर्दिन रहा अब बीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
दुर्दिन रहा अब बीत है ये ज़िंदगी है इक जुआ।
58.
122 122 122 122
ये हसरत रही
------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ये हसरत रही
------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ये हसरत रही उनसे पहचान करते
किसी की तो चाहत पे हम शान करते।
किसी की तो चाहत पे हम शान करते।
वहाँ रह गए चुप यही सोचकर हम
सही वक़्त पर खुद को क़ुर्बान करते।
सही वक़्त पर खुद को क़ुर्बान करते।
पराया किया इस क़दर तुमने हमको
के उल्फ़त मिले कैसे अरमान करते।
के उल्फ़त मिले कैसे अरमान करते।
चिता पर शहीदों के मेले भी होते
हुकूमत जो सच्ची ये सुल्त़ान करते।
हुकूमत जो सच्ची ये सुल्त़ान करते।
ये क्या सिलसिला चल रहा देश वालो
जो रहबर ही गुलशन को वीरान करते
जो रहबर ही गुलशन को वीरान करते
किया प्यार सबने बहुत तुमसे हर दिन
‘अमर’ तुम निछावर कभी जान करते।
‘अमर’ तुम निछावर कभी जान करते।
59.
122 122 122 122
नया आज सूरज
----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
नया आज सूरज
----------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
नया आज सूरज तुम्हारे लिए फिर
नया आज सूरज हमारे लिए फिर।
नया आज सूरज हमारे लिए फिर।
उदासी भरी शाम भी खत्म समझो
सुहाना सफ़र है हमारे लिए फिर।
सुहाना सफ़र है हमारे लिए फिर।
पवन बह रही संग पंचम में कोयल
शज़र मस्त झूमे तुम्हारे लिए फिर।
शज़र मस्त झूमे तुम्हारे लिए फिर।
कली खिलखिलाई गए झेंप भौंरे
अदाएँ महकतीं तुम्हारे लिए फिर।
अदाएँ महकतीं तुम्हारे लिए फिर।
वतन के लुटेरे मसीहा बने तो
वतन की सदा है हमारे लिए फिर।
वतन की सदा है हमारे लिए फिर।
जमीं सुर्ख है फिर बहा खूँ ये किसका
‘अमर’ आज आंसूँ तुम्हारे लिए फिर।
‘अमर’ आज आंसूँ तुम्हारे लिए फिर।
60.
122 122 122 122
🌹🌹🌹🌹🌹
तराना ये दिल का
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
🌹🌹🌹🌹🌹
तराना ये दिल का
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
तराना ये दिल का अनूठा फ़साना
दिखे यार तो फिर ग़ज़ल गुनगुनाना।
दिखे यार तो फिर ग़ज़ल गुनगुनाना।
सितम ढाने के कुछ नियम तो बनाओ
रक़ीबों से मिलकर सदा मुस्कुराना।
रक़ीबों से मिलकर सदा मुस्कुराना।
खबरदार रहना बड़े आलिमों से
अदीबों को ही बज़्म के गुर सिखाना।
अदीबों को ही बज़्म के गुर सिखाना।
अकेले में रहने की आदत हुई अब
अँधेरों से कह दो मुझे क्या डराना।
अँधेरों से कह दो मुझे क्या डराना।
समय की रेत पर गिरी बूँद जैसी
अगर हो तो आलोचना तुम भुलाना।
अगर हो तो आलोचना तुम भुलाना।
फलों से लदे सब शज़र हैं चमन में
नज़र गर नहीं तो किसे फिर बताना।
नज़र गर नहीं तो किसे फिर बताना।
करो तुम हमेशा ऐसी कोशिशें अब
ग़ज़ल फिर कहो तो सबों को लुभाना।
ग़ज़ल फिर कहो तो सबों को लुभाना।
करो गुफ्तगू इस जमाने से यूँ ही
धरम जो है शायर का वो भी निभाना।
धरम जो है शायर का वो भी निभाना।
नहीं कोई दुश्मन न है मीत कोई
यहाँ बेवजह क्यों दिलों को दुखाना।
यहाँ बेवजह क्यों दिलों को दुखाना।
फ़िकर मत करो तुम कहे कौन क्या है
'अमर' बस तरन्नुम में दिल की सुनाना।
'अमर' बस तरन्नुम में दिल की सुनाना।
61.
221 2122 221 2122
कातिल तिरी अदाएँ
............................
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
मोबाइल-9871603621
............................
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
मोबाइल-9871603621
क़ातिल तिरी अदाएँ शातिर वो मुस्कुराना
पहलू में तो छिपा खंजर वैसे दिल मिलाना।
पहलू में तो छिपा खंजर वैसे दिल मिलाना।
कुछ तो मिज़ाज खुद का बाक़ी असर तुम्हारा
ऐसे खुशी में झूमे अब बन गया फ़साना।
ऐसे खुशी में झूमे अब बन गया फ़साना।
फ़ितरत तेरी समझकर ही हँस सभी रहे हैं
मिलकर तेरा सभी से यूँ हाले-दिल सुनाना।
मिलकर तेरा सभी से यूँ हाले-दिल सुनाना।
सबको खबर हुई मुश्किल आ पड़ी उसे जब
तो फ़िर करीब आने का ढूँढते बहाना।
तो फ़िर करीब आने का ढूँढते बहाना।
माना के सब ज़हर तुमने पी लिया अकेले
लेकिन कभी न भूलो शमशीर का निशाना।
लेकिन कभी न भूलो शमशीर का निशाना।
ईमान ही ‘अमर’ खुद तेरा गवाह सब दिन
हैं ज़ख्म कुछ हरे पर गैरों को मत रुलाना।
हैं ज़ख्म कुछ हरे पर गैरों को मत रुलाना।
62.
बहरे रमल मुसमन महज़ूफ़
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
सिर्फ वो सब दिन सियासत ही किया करते रहे
...........................................................
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
...........................................................
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
सिर्फ़ वो सब दिन सियासत ही किया करते रहे
राम को रख रोज गिरवी बस जिया करते रहे।
राम को रख रोज गिरवी बस जिया करते रहे।
रहनुमाई का हमेशा अब करे दावा वही
गौर कर ले लूट तुमको ही लिया करते रहे।
गौर कर ले लूट तुमको ही लिया करते रहे।
जिन्दगी बस जंग बनकर रह गई इस खेल में
जंग ऐसी घाव जिसके हम सिया करते रहे।
जंग ऐसी घाव जिसके हम सिया करते रहे।
फर्क बस ये के हमारी राह उनसे है जुदा
बेबशों के ज़ख्म हम मरहम किया करते रहे।
बेबशों के ज़ख्म हम मरहम किया करते रहे।
मुल्क बदले भार इसका तेरे कंधों पर अभी
लोग तुमको ही मगर बहका दिया करते रहे।
लोग तुमको ही मगर बहका दिया करते रहे।
राम को गर ढूँढते तो फिर सभी शबरी बनो
भोग में भी बेर जूठे वो लिया करते रहे।
भोग में भी बेर जूठे वो लिया करते रहे।
रोकना गर है सियासी नफरतों का दौर तो
क्यों सहारा रोज मज़हब का लिया करते रहे।
क्यों सहारा रोज मज़हब का लिया करते रहे।
सब सियासत के लिए ही बस "अमर" बोला करें
नज़्म तुम सच के लिए पर कह दिया करते रहे।
नज़्म तुम सच के लिए पर कह दिया करते रहे।
63.
फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ा
22 22 22 22 22 22 22 2
22 22 22 22 22 22 22 2
सूरज बनकर
----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
सूरज बनकर जीवन में आ जाओ तो कुछ बात बने
सबके जीवन में उजियारा लाओ तो कुछ बात बने।
सबके जीवन में उजियारा लाओ तो कुछ बात बने।
कबतक डरकर रहना होगा सोचो इन अँधियारों में
हिम्मत कर के दीपक एक जलाओ तो कुछ बात बने।
हिम्मत कर के दीपक एक जलाओ तो कुछ बात बने।
मीठी छुरियों से होते हैं हर दिन कितने ख़ून यहाँ
भाईचारा गर तुम भी दिखलाओ तो कुछ बात बने।
भाईचारा गर तुम भी दिखलाओ तो कुछ बात बने।
लहराती तलवारों के बल क्यों फहराते हो झंडा
सहमे लोगों के मस्तक सहलाओ तो कुछ बात बने।
सहमे लोगों के मस्तक सहलाओ तो कुछ बात बने।
मुर्दा तारीखें तो करतीं कत्लो--गारद की बातें
प्यार-मुहब्बत के नग़मे तुम गाओ तो कुछ बात बने।
प्यार-मुहब्बत के नग़मे तुम गाओ तो कुछ बात बने।
चक्की सी पिसती रहती खुद को घिसती जीवन भर जो
उस माँ के तुम आँसू पोछ दिखाओ तो कुछ बात बने।
उस माँ के तुम आँसू पोछ दिखाओ तो कुछ बात बने।
कुछ कंधों के बल पर चलता रहता नफ़रत का धंधा
ग़म खाकर तुम काश 'अमर' मुस्काओ तो कुछ बात बने।
ग़म खाकर तुम काश 'अमर' मुस्काओ तो कुछ बात बने।
64.
मिरी उनकी जो भी कहानी है यारो
---------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
मिरी उनकी जो भी कहानी है यारो।
ग़ज़ल आज वोही सुनानी है यारो
ग़ज़ल आज वोही सुनानी है यारो
कोई तो बता दे पता आज उनका
मुझे आग दिल की बुझानी है यारो।
मुझे आग दिल की बुझानी है यारो।
सुनाता है वो बेसुरा राग हरदम
उसे प्यार की धुन सिखानी है यारो।
उसे प्यार की धुन सिखानी है यारो।
बिलखते हुए चाँद को मैंने देखा।
इसी ग़म की दिल में रवानी यारो।
इसी ग़म की दिल में रवानी यारो।
बहारों से पूछो कली क्या कहेगी
उसे दिल की धड़कन सुनानी है यारो।
उसे दिल की धड़कन सुनानी है यारो।
उदासी का आलम है चारों तरफ़ ही
हवा फिर से ताजी बहानी है यारो।
हवा फिर से ताजी बहानी है यारो।
बहुत थक गया हूँ अकेले सफ़र में
कहीं रात अब तो बितानी है यारो।
कहीं रात अब तो बितानी है यारो।
'अमर' की क़सम तुम परीशाँ न होना
क़दम दो क़दम रुत सुहानी है यारो
क़दम दो क़दम रुत सुहानी है यारो
65.
खुद किया घायल
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
खुद किया घायल हमें पर घाव दिखलाते रहे
शोख ये अंदाज हमको खूब भरमाते रहे।
शोख ये अंदाज हमको खूब भरमाते रहे।
आप तो आए वहाँ थे अजनबी की ही तरह
जब गए तो आप के ही ख्वाब बस आते रहे।
जब गए तो आप के ही ख्वाब बस आते रहे।
शोर सुनकर चौंकने की आज फुर्सत थी कहाँ
दिन पुराने याद करके जख्म सहलाते रहे
दिन पुराने याद करके जख्म सहलाते रहे
जोश में भरकर लबालब इस कदर बहके वहाँ
हो गया जब हादसा हर वक्त पछताते रहे।
हो गया जब हादसा हर वक्त पछताते रहे।
कह रहे थे बात अपनी खास जिस अंदाज में
देखिए सब हँस रहे क्या राह अपनाते रहे।
देखिए सब हँस रहे क्या राह अपनाते रहे।
हसरतें यूँ भी सभी पूरी कहाँ होतीं 'अमर'
पर हमेशा ज़िन्दगी भर गीत ही गाते रहे ।
पर हमेशा ज़िन्दगी भर गीत ही गाते रहे ।
66.
2122 2122 2122
क्या सुनाऊँ
------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
क्या सुनाऊँ
------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
क्या सुनाऊँ फिर हवाओं ने कहा जो
चुप ही रहकर इस शज़र ने भी सहा जो।
चुप ही रहकर इस शज़र ने भी सहा जो।
बंद दरिया का मचलना हो गया क्यों
पूछता वह मौज में सब दिन बहा जो।
पूछता वह मौज में सब दिन बहा जो।
अब समंदर चीखता है रोज लेकिन
क्यों सुने वो आग को भड़का रहा जो।
क्यों सुने वो आग को भड़का रहा जो।
धूल की ही बारिशें होने लगी अब
खंडहर बरसों पुराना भी ढहा जो।
खंडहर बरसों पुराना भी ढहा जो।
चोरियाँ कुछ आज रुकनी चाहिए भी
चोर ही अब कोतवाली कर रहा जो।
चोर ही अब कोतवाली कर रहा जो।
इश्क का जादू 'अमर' अब चल चुका है
नज़्म तेरी कह रही दिल ने कहा जो।
नज़्म तेरी कह रही दिल ने कहा जो।
67.
योग का सुख भोग में है
--------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
--------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
योग का सुख भोग में है जिंदगी रंगीन कर
बन के तारक-ए-जहाँ तुम जुर्म मत संगीन कर।
बन के तारक-ए-जहाँ तुम जुर्म मत संगीन कर।
नूर रब का हर तरफ़ है नज़्र पैदा कर जरा
मत चुरा नज़रें किसी से मत हमें गमगीन कर।
मत चुरा नज़रें किसी से मत हमें गमगीन कर।
चूड़ियाँ कहती रहीं अपनी खनक से रात भर
सब भुला कर सुन जरा अब इश़्क को परवीन कर।
सब भुला कर सुन जरा अब इश़्क को परवीन कर।
हो गया काफी अँधेरा ख्वाब में आना सखी।
देखते तुमको रहें अब चश्म को शौकीन कर।
देखते तुमको रहें अब चश्म को शौकीन कर।
हाथ का तकिया बनाकर सो गए वो चैन से
ये खुमारी नींद की है होंठ अब नमकीन कर।
ये खुमारी नींद की है होंठ अब नमकीन कर।
जेब खाली फिर भी आए मुख्तलिफ अंदाज हैं
तोड़ना चाहे हदें वो बात तू शालीन कर।
तोड़ना चाहे हदें वो बात तू शालीन कर।
वक्त मुट्ठी से फिसलता ही रहा हर दिन 'अमर'
भूल माजी जिंदगी को और मत लव लीन कर।
भूल माजी जिंदगी को और मत लव लीन कर।
68.
देख लें जिंदगी अब दिखाती है क्या
------------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
------------------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
देख लें जिंदगी अब दिखाती है क्या
रीति उल्टी यहाँ की जताती है क्या।
रीति उल्टी यहाँ की जताती है क्या।
पूछ मत तू हदें इश्क़ की आज फिर
आँख की ये नमीं अब बताती है क्या।
आँख की ये नमीं अब बताती है क्या।
हर दिशा रोज आवाज देती रही
आ रही जो हवा फिर लुभाती है क्या।
आ रही जो हवा फिर लुभाती है क्या।
लीजिए नाम मेरा कभी प्यार से
आपको बात मेरी ये भाती है क्या।
आपको बात मेरी ये भाती है क्या।
हों अकेले अगर तो मुझे साथ लें
देखिए चश्म कुछ लुटाती है क्या।
देखिए चश्म कुछ लुटाती है क्या।
टूटती क्यों न दीवानगी की हदें
चुप जुबाँ भी हमेशा सुनाती है क्या।
चुप जुबाँ भी हमेशा सुनाती है क्या।
एक ही बात की क्यों मिले अब सजा
याद तुमको 'अमर' मेरी आती है क्या।
याद तुमको 'अमर' मेरी आती है क्या।
69.
मत गँवा वक़्त आजमाने में
-----------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
-----------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा )
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
मत गँवा वक्त आजमाने में
जी लो तुम प्यार के तराने में।
जी लो तुम प्यार के तराने में।
उम्र तन्हा कटी तेरी लेकिन
नाम फिर भी जुड़ा फसाने में।
नाम फिर भी जुड़ा फसाने में।
साँस में घुल रहा है विष बाहर
लो मना जश्न कैदखाने में।
लो मना जश्न कैदखाने में।
अब छलकने लगी तिरी आँखें
लग गई आग आशियाने में।
लग गई आग आशियाने में।
हाँकते रोज हैं मेरे हाकिम
मस्त हैं किस कदर सुनाने में।
मस्त हैं किस कदर सुनाने में।
आज सब बन गए तमाशाई
संत-सूफी कहाँ जमाने में।
संत-सूफी कहाँ जमाने में।
दिल में चुभती रहे कसक लेकिन
सब्र कर हाले दिल जताने में।
सब्र कर हाले दिल जताने में।
कोई कुछ भी कहे 'अमर' लेकिन
जल्दबाजी न कर सुनाने में।
जल्दबाजी न कर सुनाने में।
70.
देखकर हँसते लबों को
------------------------------
अमर पंकज
डॉ अमर नाथ झा
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
------------------------------
अमर पंकज
डॉ अमर नाथ झा
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
देखकर हँसते लबों को झूमता गुलशन रहा
गंध उनकी देह से लेकर महक चंदन रहा।
गंध उनकी देह से लेकर महक चंदन रहा।
क्यों करें अब फिक्र उसकी जो मेरा था ही नहीं
शुक्र है तेरी वफ़ा से प्यार का मधुबन रहा।
शुक्र है तेरी वफ़ा से प्यार का मधुबन रहा।
भूल सकता कौन ये दो बोलती आँखें तेरी
ज़िंदगी की शाम में भी दिल मेरा रौशन रहा
ज़िंदगी की शाम में भी दिल मेरा रौशन रहा
ये नहीं कुछ भी न सीखा उस डगर चलते हुए
जिंदगी भटकी बहुत पर प्यार का बंधन रहा।
जिंदगी भटकी बहुत पर प्यार का बंधन रहा।
फूल कम काँटे अधिक जिस राह हम चलते रहे
बीहड़ों के बीच लेकिन महकता उपवन रहा।
बीहड़ों के बीच लेकिन महकता उपवन रहा।
छोड़ दे तू सोचना अब याद मत माज़ी को कर
दे 'अमर' सबको बता बस क्या तेरा जीवन रहा।
दे 'अमर' सबको बता बस क्या तेरा जीवन रहा।
71.
दूर से ही खुशी मुस्कुराती रही
---------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
दूर से ही खुशी मुस्कुराती रही
खुश हवा भोर में गुनगुनाती रही।
खुश हवा भोर में गुनगुनाती रही।
देखना था जिसे वो कहाँ जा छुपा
रात उसके ही सपने दिखाती रही।
रात उसके ही सपने दिखाती रही।
करवटें ही बदल कट गई रात सब
चूड़ियों की खनक भी सताती रही।
चूड़ियों की खनक भी सताती रही।
फिर हुआ क्या अचानक खुली नींद तो
सरहदों की खबर बस डराती रही।
सरहदों की खबर बस डराती रही।
गोलियाँ चल गईं लाल कितने मरे
चैनलों की खबर खूँ दिखाती रही।
चैनलों की खबर खूँ दिखाती रही।
सरहदों पर 'अमर' जो भी लाशें बिछीं
यह सियासत उन्हे भी भुनाती रही।
यह सियासत उन्हे भी भुनाती रही।
72.
जिस्म उनका कुहरता चला जा रहा
----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
----------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
जिस्म उनका कुहरता चला जा रहा
क्या अँधेरा पसरता चला जा रहा?
क्या अँधेरा पसरता चला जा रहा?
लोग रोते हमेशा मुकद्दर पे जो
वक़्त उनका ठहरता चला जा रहा।
वक़्त उनका ठहरता चला जा रहा।
रौशनी की जरूरत पड़ी आज जब
दीप बनके मैं बरता चला जा रहा।
दीप बनके मैं बरता चला जा रहा।
आप के सामने फिर खड़े हो गए
देखिए मैं निखरता चला जा रहा।
देखिए मैं निखरता चला जा रहा।
आँधियों को तो थमना ही था एक दिन
काम सब अपने करता चला जा रहा।
काम सब अपने करता चला जा रहा।
आग से खेलने का हुनर चाहिए
रौशनी बन बिखरता चला जा रहा।
रौशनी बन बिखरता चला जा रहा।
तीरगी भी डराती उसी को सदा
रात में जो सिहरता चला जा रहा।
रात में जो सिहरता चला जा रहा।
लाख कोशिश हुई पर झुके तुम नहीं
अब पताका फहरता चला जा रहा।
अब पताका फहरता चला जा रहा।
दाँव पर तुम लगाते रहे सब 'अमर'
इसलिए घाव भरता चला जा रहा।
इसलिए घाव भरता चला जा रहा।
73.
महफूज खुद को अब रखें कैसे यहाँ
--------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
--------------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
महफूज खुद को अब रखें कैसे यहाँ
बाजार की हद से बचें कैसे यहाँ।
बाजार की हद से बचें कैसे यहाँ।
चादर चमकती है बहुत, कुछ बात है
सच ढक रहे जो वो दिखें कैसे यहाँ।
सच ढक रहे जो वो दिखें कैसे यहाँ।
दिन था मुबारक तो कही मैंने ग़ज़ल
बिन नौलखा अब वो सजें कैसे यहाँ।
बिन नौलखा अब वो सजें कैसे यहाँ।
आदत मेरी कहने की सच हर दिन रही
उल्फ़त तिज़ारत अब, रहें कैसे यहाँ।
उल्फ़त तिज़ारत अब, रहें कैसे यहाँ।
रक्खा छिपा क्या सुर्ख़ गालों ने तेरे
दो बूँद आँसू कुछ कहें कैसे यहाँ।
दो बूँद आँसू कुछ कहें कैसे यहाँ।
चिल्मन छुपाते सब दुपट्टे से 'अमर'
सूरत कहे क्या हम पढें कैसे यहाँ।
सूरत कहे क्या हम पढें कैसे यहाँ।
74.
ज़िन्दगी सबकुछ सिखाती
--------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल- 9871603621
--------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल- 9871603621
ज़िन्दगी सबकुछ सिखाती
दूर रहकर भी लुभाती।
दूर रहकर भी लुभाती।
रात अँधियारी बहुत पर
रौशनी हर बार लाती।
रौशनी हर बार लाती।
बंदिशों की पूछते क्या
उम्र भर उत्सव मनाती।
उम्र भर उत्सव मनाती।
गर कभी होता अकेला
पास आ लोरी सुनाती।
पास आ लोरी सुनाती।
जिद मगर उसकी भी ये के
हर घड़ी है गीत गाती।
हर घड़ी है गीत गाती।
मत 'अमर' दरवेश बन तू
रंग भरकर है जताती।
रंग भरकर है जताती।
75.
बेअसर हो रही अब कहानी तेरी
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
---------------------------------
अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
बेअसर हो रही अब कहानी तेरी
मिट रही प्यार की हर निशानी तेरी
मिट रही प्यार की हर निशानी तेरी
शोर ही शोर है आज बदलाव का
रहबरों ने ही लूटी जवानी तेरी।
रहबरों ने ही लूटी जवानी तेरी।
फैसला भी तेरा कैसे मुंसिफ करे
कोई पूछे न जब हक़ बयानी तेरी।
कोई पूछे न जब हक़ बयानी तेरी।
चाहते हम भी हैं मुल्क़ जन्नत बने
दूर होवे अगर बदगुमानी तेरी।
दूर होवे अगर बदगुमानी तेरी।
सिलसिला है बहुत ही पुराना 'अमर'
सब समझते सियासत सयानी तेरी।
सब समझते सियासत सयानी तेरी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें