टुकड़ों में बंटती ही रही
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
टुकड़ों में बँटती ही
रही इस
जिन्दगी का क्या करें
हर वक्त मरती ही रही इस जिंदगी का क्या करें।
सौदा बना सच का रहे वो बैठकर डेरों में ही
अस्मत तो लुटती ही रही इस जिंदगी का क्या
करें।
इस शोहरत का राज क्या है
जाके भी पूछो वहाँ ।
हर पल सिमटती ही रही इस जिंदगी का क्या करें।
हर पल सिमटती ही रही इस जिंदगी का क्या करें।
हैरान थे सब देखकर उस
काफिले का रंग ही
वह रंग धुलती क्यों नहीं इस जिंदगी का क्या करें।
कमतर खुदा से क्यों वो
समझें राज का जब साथ था
हर हाल डरती ही रही इस जिंदगी का क्या करें।
बरपा रहे थे वो कहर हर रोज बस मासूम पे
हर कहर सहती रही इस
जिंदगी का क्या करें।
उसको फरिश्ता कह रहे
थे खून से जो खेलता
धज्जी यहां उड़ती रही इस जिंदगी का क्या करें।
दो गालियां ये रस्म है सब
दिन बिरहमन को यहाँ
खमखा ही बजती रही इस जिंदगी का क्या करें।
खमखा ही बजती रही इस जिंदगी का क्या करें।
हाकिम ही जों सजदा करे फ़िर मुल्क के हालात क्या
हर दिन ‘अमर’ पिटती रही इस जिंदगी का क्या करें।
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