बुधवार, 21 नवंबर 2018

रहमतों की आस में
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रहमतों की आस में तुमने गुज़ारी ज़िंदगी
पासबाँ की लूट में हमने गुज़ारी ज़िंदगी
हर तरफ़ फैली हुई है नफ़रतों की आग क्यों
झूठ पर विश्वास कर सबने गुज़ारी ज़िंदगी
चुप रहे सहते गए जब वो क़हर ढाते रहे
जख़्म खा बेख़ौफ़ हो किसने गुज़ारी ज़िंदगी
चुप्पियों की भी सदाएँ गूँज़तीं हर सिम्त हैं
इसलिए खामोश रह मैंने गुजारी ज़िंदगी
ज़ह्र जो पीते रहे बनता रहा अमरत 'अमर'
मुख़्तलिफ़ अंदाज में तूने गुज़ारी ज़िंदगी
-------- अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

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