शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018


दोहे
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जीवन हर्ष-विषाद है, रहता सबके साथ
धीरज से तुम काम लो, विधि के लंबे हाथ।
पचपन अब पूरे हुए, लेकिन हृदय जवान
मिली शोहरत भी मुझे, किया कभी न गुमान।
वर्ष सैंकड़ों जा चुके , छोड़ा मिथिला धाम
पुण्य धरा शिव-शक्ति की, खैरबनी है ग्राम।
ठिठुरन भी लाती हँसी, शिशिर दे रहा सीख
भाग्य सिर्फ पुरुषार्थ है, हर्ष नहीं है भीख।
कृष्ण पक्ष शनिवार था, सुखमय अगहन मास
साल बीस सौ बीस का, दिन वो था इक खास।
जब मैं पहुँचा मर्म तक, बहा नयन से नीर
पीछे इस मुस्कान के, अकथनीय सी पीर।
दुमका-सारठ-देवघर, से मेरी पहचान
दिल्ली में सब दिन रहा, लेकिन मैथिल आन।
बरस दुवादस देहली, बीस गाज़ियाबाद
घाट-घाट के नीर का, चखा प्रेम से स्वाद।
पापड़ बेले हैं बहुत, किया कभी न मलाल
उबड़-खाबड़ रही डगर, किया कभी न सवाल।
भाव शून्य मत हो 'अमर', देखो जीवन-रंग
प्रीति करो मन में रखो, हर दिन नई उमंग।
 अमर पंकज 🌹🌹🌷🌷🌷🌷🌷🌷

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