गुरुवार, 13 दिसंबर 2018

दोहे
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तुझमें-मुझमें सब फँसे, उसको अब बिसराय
खुद में गर ढूँढें उसे, जग अपना हो जाय।
उसके पीछे मैं चला, बिना किए कछु शोर
जबसे मैं पीछे मुड़ा, वही दिखे हर ओर।
हँस-हँस कर आगे बढ़ा, देखा यह संसार
नदिया बहती आग की, उतरें क़ैसे पार।
कहाँ नहीं खोजा उसे, भटका मैं हर रोज
पत्थर मारा शीश पर, बाकी बची न खोज।
तन-मन दोनों एक हो, सब दिन की थी चाह
तन को लागी चोट तो, मन भरता है आह।
दोहा अब कैसे कहें, रक्खें कैसे बात
मन विचार करता रहा, बीत गई अब रात।
मैं तो लेता ही रहा, नाम उसी का मीत
रब से है बिनती यही, बनी रहे यह प्रीत।
देखो मैंने क्या किया, जाने क्या संसार
खुद को जों मैं जानता होता बेड़ा पार।
पीर पराई क्या कहें, खुद में ही था मस्त
पर जब डूबा इश्क में, मेरा निज भी अस्त।
मैं क्या जानूँ इल्म को, बसता वो किस देश
रहबर रूठा तो 'अमर', बढ़ा लिये हैं केश।

--------- डॉ अमर पंकज 

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