आज ही मैंने इस ग़ज़ल की बह्र के बारे में मित्रों से जानना चाहा था। मैं प्रिय आशीष अनचिन्हार जी के प्रति धन्यवाद ज्ञपित करना चाहता हूँ कि उन्होने यह स्वीकार किया एवं सुझाव दिया कि मौजूदा बह्र पर ग़ज़ल कही जा सकती है। श्री अनचिन्हार ग़ज़लों के शिल्प-विधान के गंभीर अध्येता हैं, अतः उनकी राय को मैं भी गंभीरता से लेता हूँ।
मेरे प्रिय मित्र और हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार एवं आलोचक डॉ विक्रम सिंह जी ने जिस तरह से मनोयोग-पूर्वक मेरी ग़ज़लों को पढ़कर उनकी कमियों को बेबाक तरीके से रखा, उससे भी मुझे अपने कहन की शैली को धारदार बनाने में मदद मिली है। मैं अपने मित्र डॉ विक्रम सिंह का भी शुक्रगुजार हूँ।
मेरी इस ग़ज़ल-यात्रा में कतिपय क्षण ऐसे भी आए जब मेरा आत्मविश्वास डगमगाया भी। ऐसे वक़्त मेरे अग्रज गुरूभाई परमादरणीय सुप्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ गीतकार और ग़ज़लकार श्री शम्भूनाथ मिस्त्री जी ने जो मेरा मनोबल बढ़ाया और मेरी त्रुटियों को परिमार्जित करके उनमें जो निखार लाया उसके लिए मैं उनका सदा-सर्वदा के लिए कृतज्ञ हूँ।
परंतु मेरी इस यात्रा में जिन्होने मुझे अंगुली पकड़कर चलना सिखाया, मेरी बेबह्र पंक्तियों को सुधारकर ग़ज़लों के आशआर बनने का रास्ता दिखाया, मुझे सच में ग़ज़लकार बनाया और जिनका मैं आजीवन ऋणी रहूँगा, वे हैं ग़ज़लों की दुनिया के मशहूर और अति-प्रतिष्ठित उस्ताद, मेरे ग़ज़ल-गुरु श्रद्धेय श्री शरद तैलंग साहब। मौजूदा ग़ज़ल की बह्र को लेकर मन में उठ रही शंका का भी उन्होने ही समुचित समाहार करते हुए अपना निर्णय दिया कि यद्यपि कि "मफ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा/, फ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा" की बह्र में ना के बराबर ग़ज़लें कहीं गई हैं, लेकिन कोई चाहे तो इस बह्र में भी ग़ज़ल कह सकता है, कोई बंदिश नहीं है। गुरुदेव की कृपा और आशीर्वाद लेकर, इसीलिए मैंने मौजूदा ग़ज़ल कही है। हालांकि शिल्प को लेकर अधिक सतर्क होने के कारण भावों को वह गहराई नहीं मिल पाई, जिसकी शुरुआत मतले से हुई थी। अतः मेरी अभी भी ये कोशिश होगी कि अपने मूल उद्गारों को, जो मतले के साथ सहज ही निकल रहे थे, इस बह्र- शिल्प में फिर से, नए सिरे से पिरोने की कोशिश करूँ।
लेकिन तबतक के लिए, जो भी बन पाया है, आपके समक्ष रख रहा हूँ। धान्यावाद।
मेरे प्रिय मित्र और हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार एवं आलोचक डॉ विक्रम सिंह जी ने जिस तरह से मनोयोग-पूर्वक मेरी ग़ज़लों को पढ़कर उनकी कमियों को बेबाक तरीके से रखा, उससे भी मुझे अपने कहन की शैली को धारदार बनाने में मदद मिली है। मैं अपने मित्र डॉ विक्रम सिंह का भी शुक्रगुजार हूँ।
मेरी इस ग़ज़ल-यात्रा में कतिपय क्षण ऐसे भी आए जब मेरा आत्मविश्वास डगमगाया भी। ऐसे वक़्त मेरे अग्रज गुरूभाई परमादरणीय सुप्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ गीतकार और ग़ज़लकार श्री शम्भूनाथ मिस्त्री जी ने जो मेरा मनोबल बढ़ाया और मेरी त्रुटियों को परिमार्जित करके उनमें जो निखार लाया उसके लिए मैं उनका सदा-सर्वदा के लिए कृतज्ञ हूँ।
परंतु मेरी इस यात्रा में जिन्होने मुझे अंगुली पकड़कर चलना सिखाया, मेरी बेबह्र पंक्तियों को सुधारकर ग़ज़लों के आशआर बनने का रास्ता दिखाया, मुझे सच में ग़ज़लकार बनाया और जिनका मैं आजीवन ऋणी रहूँगा, वे हैं ग़ज़लों की दुनिया के मशहूर और अति-प्रतिष्ठित उस्ताद, मेरे ग़ज़ल-गुरु श्रद्धेय श्री शरद तैलंग साहब। मौजूदा ग़ज़ल की बह्र को लेकर मन में उठ रही शंका का भी उन्होने ही समुचित समाहार करते हुए अपना निर्णय दिया कि यद्यपि कि "मफ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा/, फ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा" की बह्र में ना के बराबर ग़ज़लें कहीं गई हैं, लेकिन कोई चाहे तो इस बह्र में भी ग़ज़ल कह सकता है, कोई बंदिश नहीं है। गुरुदेव की कृपा और आशीर्वाद लेकर, इसीलिए मैंने मौजूदा ग़ज़ल कही है। हालांकि शिल्प को लेकर अधिक सतर्क होने के कारण भावों को वह गहराई नहीं मिल पाई, जिसकी शुरुआत मतले से हुई थी। अतः मेरी अभी भी ये कोशिश होगी कि अपने मूल उद्गारों को, जो मतले के साथ सहज ही निकल रहे थे, इस बह्र- शिल्प में फिर से, नए सिरे से पिरोने की कोशिश करूँ।
लेकिन तबतक के लिए, जो भी बन पाया है, आपके समक्ष रख रहा हूँ। धान्यावाद।
इसे देखने की कृपा की जाए:
1212/22/2/,212/22/2
मफायलुन/फैलुन/ फा/, फायलुन/फैलुन/ फा
मफायलुन/फैलुन/ फा/, फायलुन/फैलुन/ फा
बदल रहा सबकुछ तो
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
बदल रहा सब कुछ तो, फ़िर बदल जाने दो मुझे मगर बेहोशी, की दवा खाने दो।
तड़क-भड़क देखूँ तो, होश उड़ जाते हैं
फटी हुई चादर से, लाज ढँक आने दो।
फटी हुई चादर से, लाज ढँक आने दो।
चली गई आकर ये, बेशरम होली भी
बिना पिए मुझको भी, रिन्द कहलाने दो।
बिना पिए मुझको भी, रिन्द कहलाने दो।
बहुत बने हम भी हैं, ता-उमर पंडित पर
बचे हुए दिन हैं कुछ, रस अभी पाने दो।
बचे हुए दिन हैं कुछ, रस अभी पाने दो।
खबर नहीं कुछ तुम्हें, आ गए अच्छे दिन
डगर-डगर कचरे का, ढेर बिछ जाने दो।
डगर-डगर कचरे का, ढेर बिछ जाने दो।
बज़ा रहा गाँलों को, बेफ़िकर होके वो
'अमर' अभी चुप रहना, ज्वार ढल जाने दो।
'अमर' अभी चुप रहना, ज्वार ढल जाने दो।
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