शुक्रवार, 18 मई 2018

थे हम गए जब उस गली
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
थे हम गए जब उस गली देखा हवा भी रो रही
पाकर मगर फ़िर पास मुझको वादियों में खो रही।
मिलकर सभी ने खूब लूटा थी बची केवल तपिस
दो बूंद टपके नैन से थी सुध नहीं बस रो रही।
हर वक़्त बहती ही रही कब मानती लेकिन हवा
दुख-दर्द सब सहते हुए चुपचाप खुद में खो रही।
प्यासी हुई नज़रों से देखा छा रही नभ में घटा
पर फ़िर अचानक कुछ हुआ शोलों की बारिश हो रही।
किस आग में जलती रही वह जो कभी बुझती नहीं
किसको पता ये बात के वह पाप सबके ढो रही।
चिंता नहीं अपनी उसे वह तो दुखी सबके लिए
होके 'अमर' बेचैन वह माँ की तरह ही रो रही।

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