शनिवार, 26 नवंबर 2011

वो सुबह कभी न कभी तो आयेगी...........

आम लोगों के धैर्य की परिक्षा लेने में सभी लगे हुए से लगते हैं-- सरकार, विपक्ष, अन्य राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी, पत्रकार, ट्रेड-यूनियन के नेतागण, छात्र-संगठनों के प्रतिनिधि, और यहाँ तक कि आर. डब्ल्यू. ए. के नेतागण भी---सब के सब. ऐसा लगता है कि अंधी सुरंग में हम सब बेतहासा दौड़ते चले जा रहे हैं, बिना आगे-पीछे  देखे. सिर्फ गाल बजाने वाले, आज के सन्दर्भों में, कुछ से कुछ उलजलूल विषयों पर तथाकथित आधिकारिक रूप से की-बोर्ड पर अंगुलियाँ नचाने वाले अब बहस- मुबाहिसा में उल्लेखनीय बन रहे हैं. "उष्ट्रानाम विवाहेषु, गर्धवाः गीत गायकाः , परस्परं प्रशिस्यन्ति, अहो रूपं अहो ध्वनि". इस दौर में किसने कितना जलाया खुद को संघर्षों की आग में, कितना तप किया है किसी मुद्दे पर जबान खोलने के पहले, अगर इन तथ्यों की पड़ताल करें तो यहाँ अधिकतर विद्वान् नेटवर्किंग और चापलूसी की ही उपज साबित होंगे. कभी जाति के नाम पर, तो कभी क्षेत्र के नाम पर. कभी विचारधारा के नाम पर तो कभी निजी सेवा-भक्ति के नाम पर, लोग अपना-अपना जुगाड़ मात्र बैठाते आये हैं. यह भयावह स्थिति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को लीलती जा रही है. लोहिया जी द्वारा प्रयुक्त "छद्म-बुद्धिवीवी" शब्द शायद पहले कभी इतना प्रासंगिक नहीं था, जितना आज हो गया है. हर जगह छद्म ही छद्म. और इस छलिया परिवेश में रहते हुए भी कुछ न कुछ सार्थक करना होगा, बिना आलोचना-प्रत्यालोचना की विशेष परवाह किये हुए. तभी कुछ सार्थक होगा. जरूर कुछ सार्थक होगा. वो सुबह कभी न कभी तो आयेगी........... 

बुधवार, 9 नवंबर 2011

इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी



मैं चुप हूँ क्योंकि चुप रहना ही ठीक है. बात न सिर्फ रामानुजन की है नहीं राम कथा की. बात इतिहास की व्याख्या पर वर्चस्व की है. हम क्रन्तिकारी और तुम प्रतिक्रांतिकारी बनाम हम सच्चे भारतीय और तुम नकली भारतीय के उद्घोषकों के बीच चल रहे इस उठापटक में न तो कोई तीसरी आवाज़ है और न ही कोई उस आवाज़ का संज्ञान लेने वाला. सच तो यह है की इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है. तटस्थ होकर इति...हास की मीमांशा करने के दिन लड़ गए से लगते हैं. पर जो अपने सच से आँखें नहीं मिला सकता वह किसी भी चुनौती का सामना नहीं कर सकता, चाहे चुनौती भ्रष्टाचार की हो या नक्सली हिंसा की या फिर साम्प्रदायिकता की ही क्यों न हो? इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी. संस्कृति के सवाल को बहुत सनसनीखेज बनाकर दोनों खेमों के पहलवान सिर्फ संस्कृति हो ही आहत कर रहे हैं. 




मैं व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी दुखी हूँ क्योंकि दिल्लीविश्वविद्यालय में जब धर्म और संस्कृति के विषय इतिहास में निषिद्ध थे तब भी मैं उन चाँद लोगों में से था जो इस विषय पर खुलकर बात करने की सार्वजनिक वकालत करता था. इसकी अंतिम और सुखद परिणति तब हुयी प्रोफ़ेसर टी. के. वेंकट सुब्रमनियन इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे और मैं इतिहास विभाग के शिक्षकों की जेनेरल बॉडी बैठक से निर्वाचित होकर सिलेबल रिविज़न कमिटी का सदस्य बना था. सिलेबस कमिटी की बैठक में मैं अकेला सदस्य था जिसने सबसे पहले तीन बिन्दुओं को उठाया--



1.दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म तथा संस्कृति पर अलग और स्वतंत्र रूप से पेपर पढाया जाये.

2..आधुनिक भारतीय इतिहास को १९४७ से आगे बढाकर १९७७ तक लाया जाना चाहिए क्योंकि आपातकाल भारत की महत्वपूर्ण घटना है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

3.सोसल फ़ोरमेसन का पेपर थर्ड ईयर से निकालकर फर्स्ट ईयर में लगाया जाये. 

तीसरे मुद्दे को पहले भी कई जेनेरल बॉडी मीटिंग में मैं उठा चुका था, जहाँ मेरी बात अनसुनी कर दी गयी थी. 

खैर अब जबकी मैं खुद ही इस समिति का सदस्य था, इतनी अस्सानी से मेरी बात अनसुनी नहीं की जा सकती थी, हालाँकि कुछ प्रारंभिक विरोध जरूर हुआ था. देशबंधु कालेज के शैलेन्द्र मोहन झा भी उस समिति के सदस्य थे, जिसमे यह पूरी बहस चली थी. अंततः बनकट साहब को भी मेरी बात सही लगी और तीनों मुद्दों पर सहमति बन गयी. यह अलग बात है की जब इन पर्चों के अन्दर विषय-वास्तु के निर्धारण हेतु उप-समिति गठित करने की बैठक हुयी तो मुझे इसकी सूचना नहीं मिली. मैं नहीं जनता हूँ की ऐसा जानबूझकर किया गया या ऐसा होना एक संयोग था, पर मैंने इसे मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि मेरा असली उद्येश्य पूरा हो चुका था--मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे स्वीकृत हो चुके थे.



निर्धारित प्रक्रिया के तहत बी.ए. प्रोग्राम के प्रथम वर्ष में पहले मुद्दे को जगह दी गयी, आनर्स के सिलेबस में तृतीय वर्ष में दूसरे मुद्दे को जगह दी गयी और आनर्स के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में तीसरे मुद्दे को जगह दी गयी.



मुझे मालूम है की इस मंच पर ऐसे लोग भी लगातार गैर जरूरी और निजी विद्वेष से ग्रसित होकर लिखने वाले लोग भी हैं, अतः सबसे विनम्र निवेदन है की मेरी बातों का सत्यापन तत्कालीन अध्यक्ष वेंकट साहब से कर लें तभी किसी के द्वारा प्रितिकूल टिप्पणी और विष-वमन पर ध्यान दें क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ सैडिस्ट होते हैं और किसी के रचनात्मक कार्य से इन्हें चिढ होती है क्योंकि इन्होने जीवनैसे ही नौकरी करते हुए गुजारी होती है. 



खैर, फिर जब २००६ से बी.ए. आनर्स के द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मौजूदा पर्चा आया तो मुझे बेहद हार्दिक प्रसन्नता हुयी क्योंकि मुझे विश्वास हो गया की अब भारत का इतिहास सिर्फ आर्थिक-सामजिक न रहकर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी पढाया जायेगा, इस विश्वविद्यालय में भी. मैं तब से इस परचे को पढ़ा रहा हूँ. मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं है की इस परचे को पढ़ते समय अगर कही असहजता होती है तो नाट्यशास्त्र में वर्णित नायिका के गुणों और श्रृंगारिक भंगिमाओं के वर्णन में न की रामायण को पढ़ने में. इसीलिए जब २००८ में तत्कालीन अध्यक्ष जाफरी साहब के साथ कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया था तो मैंने उसका जमकर विरोध किया था, विद्वत परिषद् के अन्दर और बाहर--दोनों जगहों पर.



जब तत्कालीन कुलपति पेंटल साहब का सर कलम कर देने का किसी ने फतवा जारी किया था तब भी मैंने ऐसा ही विरोध किया था और फरवरी २००८ में विश्वविद्यालय में एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन संस्कृति के सवाल पर कराया था. सनद रहे की इस सेमीनार में ही पहली बार इस विवाद पर चुप्पी तोड़ते हुए कुलपति साहब ने अपना वक्तव्य दिया था. किसी सज्जन की इच्छा हो तो इस सेमीनार की वीडियो मुझसे लेकर देखा सकता है. इस सेमिनार में वेंकट साहेब, भैरवी साहू जी, जाफरी साहेब, ठाकरान साहेब, जे.एन. यूं. से आनद कुमार, जामिया से रिजवान कैसर समेत अन्य कई चर्चित इतिहासकारों तथा समाज शास्त्रियों ने हिस्सा लिया था और इस उबलते सवाल के शांतिपूर्ण शमन का वातावरण बना था.



इस पूरे वृतांत का मेरा आशय यह है की मैं यह पहले बता दूं की इस प्रकरण से मैं किस हद तक जुदा हुआ हूँ--गोया मैं स्वयं इसका एक पात्र हूँ. इसीलिए अब तक मैं इस पर चुप रहा हूँ की कहाँ खो गया मेरा वह प्रयास जिसके तहत संस्कृति का सवाल इस विश्वविद्यालय में भी महत्वपूर्ण सवाल बना था. क्या इस पूरे शोरगुल में कही भी इसकी जायज चिंता किसी भी पक्ष द्वारा दिखाई जा रही है

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है

मैं चुप हूँ क्योंकि चुप रहना ही ठीक है. बात न सिर्फ रामानुजन की है नहीं राम कथा की. बात इतिहास की व्याख्या पर वर्चस्व की है. हम क्रन्तिकारी और तुम प्रतिक्रांतिकारी बनाम हम सच्चे भारतीय और तुम नकली भारतीय के उद्घोषकों के बीच चल रहे इस उठापटक में न तो कोई तीसरी आवाज़ है और न ही कोई उस आवाज़ का संज्ञान लेने वाला. सच तो यह है की इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है. तटस्थ होकर इति...हास की मीमांशा करने के दिन लड़ गए से लगते हैं. पर जो अपने सच से आँखें नहीं मिला सकता वह किसी भी चुनौती का सामना नहीं कर सकता, चाहे चुनौती भ्रष्टाचार की हो या नक्सली हिंसा की या फिर साम्प्रदायिकता की ही क्यों न हो? इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी. संस्कृति के सवाल को बहुत सनसनीखेज बनाकर दोनों खेमों के पहलवान सिर्फ संस्कृति हो ही आहत कर रहे हैं.




मैं व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी दुखी हूँ क्योंकि दिल्लीविश्वविद्यालय में जब धर्म और संस्कृति के विषय इतिहास में निषिद्ध थे तब भी मैं उन चाँद लोगों में से था जो इस विषय पर खुलकर बात करने की सार्वजनिक वकालत करता था. इसकी अंतिम और सुखद परिणति तब हुयी प्रोफ़ेसर टी. के. वेंकट सुब्रमनियन इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे और मैं इतिहास विभाग के शिक्षकों की जेनेरल बॉडी बैठक से निर्वाचित होकर सिलेबल रिविज़न कमिटी का सदस्य बना था. सिलेबस कमिटी की बैठक में मैं अकेला सदस्य था जिसने सबसे पहले तीन बिन्दुओं को उठाया--



1.दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म तथा संस्कृति पर अलग और स्वतंत्र रूप से पेपर पढाया जाये.

2..आधुनिक भारतीय इतिहास को १९४७ से आगे बढाकर १९७७ तक लाया जाना चाहिए क्योंकि आपातकाल भारत की महत्वपूर्ण घटना है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

3.सोसल फ़ोरमेसन का पेपर थर्ड ईयर से निकालकर फर्स्ट ईयर में लगाया जाये.

तीसरे मुद्दे को पहले भी कई जेनेरल बॉडी मीटिंग में मैं उठा चुका था, जहाँ मेरी बात अनसुनी कर दी गयी थी.

खैर अब जबकी मैं खुद ही इस समिति का सदस्य था, इतनी अस्सानी से मेरी बात अनसुनी नहीं की जा सकती थी, हालाँकि कुछ प्रारंभिक विरोध जरूर हुआ था. देशबंधु कालेज के शैलेन्द्र मोहन झा भी उस समिति के सदस्य थे, जिसमे यह पूरी बहस चली थी. अंततः बनकट साहब को भी मेरी बात सही लगी और तीनों मुद्दों पर सहमति बन गयी. यह अलग बात है की जब इन पर्चों के अन्दर विषय-वास्तु के निर्धारण हेतु उप-समिति गठित करने की बैठक हुयी तो मुझे इसकी सूचना नहीं मिली. मैं नहीं जनता हूँ की ऐसा जानबूझकर किया गया या ऐसा होना एक संयोग था, पर मैंने इसे मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि मेरा असली उद्येश्य पूरा हो चुका था--मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे स्वीकृत हो चुके थे.



निर्धारित प्रक्रिया के तहत बी.ए. प्रोग्राम के प्रथम वर्ष में पहले मुद्दे को जगह दी गयी, आनर्स के सिलेबस में तृतीय वर्ष में दूसरे मुद्दे को जगह दी गयी और आनर्स के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में तीसरे मुद्दे को जगह दी गयी.



मुझे मालूम है की इस मंच पर ऐसे लोग भी लगातार गैर जरूरी और निजी विद्वेष से ग्रसित होकर लिखने वाले लोग भी हैं, अतः सबसे विनम्र निवेदन है की मेरी बातों का सत्यापन तत्कालीन अध्यक्ष वेंकट साहब से कर लें तभी किसी के द्वारा प्रितिकूल टिप्पणी और विष-वमन पर ध्यान दें क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ सैडिस्ट होते हैं और किसी के रचनात्मक कार्य से इन्हें चिढ होती है क्योंकि इन्होने जीवनैसे ही नौकरी करते हुए गुजारी होती है.



खैर, फिर जब २००६ से बी.ए. आनर्स के द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मौजूदा पर्चा आया तो मुझे बेहद हार्दिक प्रसन्नता हुयी क्योंकि मुझे विश्वास हो गया की अब भारत का इतिहास सिर्फ आर्थिक-सामजिक न रहकर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी पढाया जायेगा, इस विश्वविद्यालय में भी. मैं तब से इस परचे को पढ़ा रहा हूँ. मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं है की इस परचे को पढ़ते समय अगर कही असहजता होती है तो नाट्यशास्त्र में वर्णित नायिका के गुणों और श्रृंगारिक भंगिमाओं के वर्णन में न की रामायण को पढ़ने में. इसीलिए जब २००८ में तत्कालीन अध्यक्ष जाफरी साहब के साथ कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया था तो मैंने उसका जमकर विरोध किया था, विद्वत परिषद् के अन्दर और बाहर--दोनों जगहों पर.



जब तत्कालीन कुलपति पेंटल साहब का सर कलम कर देने का किसी ने फतवा जारी किया था तब भी मैंने ऐसा ही विरोध किया था और फरवरी २००८ में विश्वविद्यालय में एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन संस्कृति के सवाल पर कराया था. सनद रहे की इस सेमीनार में ही पहली बार इस विवाद पर चुप्पी तोड़ते हुए कुलपति साहब ने अपना वक्तव्य दिया था. किसी सज्जन की इच्छा हो तो इस सेमीनार की वीडियो मुझसे लेकर देखा सकता है. इस सेमिनार में वेंकट साहेब, भैरवी साहू जी, जाफरी साहेब, ठाकरान साहेब, जे.एन. यूं. से आनद कुमार, जामिया से रिजवान कैसर समेत अन्य कई चर्चित इतिहासकारों तथा समाज शास्त्रियों ने हिस्सा लिया था और इस उबलते सवाल के शांतिपूर्ण शमन का वातावरण बना था.



इस पूरे वृतांत का मेरा आशय यह है की मैं यह पहले बता दूं की इस प्रकरण से मैं किस हद तक जुदा हुआ हूँ--गोया मैं स्वयं इसका एक पात्र हूँ. इसीलिए अब तक मैं इस पर चुप रहा हूँ की कहाँ खो गया मेरा वह प्रयास जिसके तहत संस्कृति का सवाल इस विश्वविद्यालय में भी महत्वपूर्ण सवाल बना था. क्या इस पूरे शोरगुल में कही भी इसकी जायज चिंता किसी भी पक्ष द्वारा दिखाई जा रही है?