शनिवार, 7 जनवरी 2012

उपेक्षितों का काव्यान्दोलन - पंकज गोष्ठी: पूर्वपीठिका और महत्व

उपेक्षितों का काव्यान्दोलन - पंकज गोष्ठी: पूर्वपीठिका और महत्व
डॉ. बिक्रम सिंह
असोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग
देशबंधु महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली
भूमिका:
पुराने संताल परगना के तीनों प्रमुख स्थान - देवघर , दुमका तथा राजमहल की गणना दुर्गम, पिछड़े तथा उपेक्षित कस्बों के रूप में होती रही है। बृहत्तर रूप से यह क्षेत्र भागलपुर डिविजन का विस्तार है। इतिहास में यह दर्ज है कि अंग्रेज क्लेवलैंड (1755-1785) ने राजमहल पहाड़ी की आदिम जनजातियों का दमन किया  था और स्वयं उसकी कब्र भी इसी इलाके में है।1 प्राचीन भारत में यह भागलपुर ही अंग देश के नाम से जाना जाता था। वायु पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में इसका एक और नाम मिलता है- चंपा अथवा चंपावती।2 यहाँ नागों तथा गुप्तों ने शासन किया था। इस प्रदेश की जनसंख्या अत्यंत विरल थी। सम्भवतः इसी कारण समुद्रगुप्त को भी इस पर अधिकार प्राप्त करने में बहुत कम समय लगा था। समुद्रगुप्त ने मगध, उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बंगाल को जीतकर जिस प्रान्त की सृष्टि की थी उसकी राजधानी चंपा ही थी।3 आधुनिक बिहार जिन तीन प्राचीन राज्यों का संयुक्त रूप है, उनमें विदेह, कीकट अर्थात् मगध के अतिरिक्त अंग राज्य भी शामिल है। शिवपूजन सहाय रचित बिहार का इतिहास में भूमिका लिखते हुए रामदहिन मिश्र ने स्पष्ट शब्दों में इसका जिक्र किया है कि ‘’ पहले दो के नाम तो अब भी यथेष्ट लिये जाते हैं, पर तीसरे का नाम लुप्त-सा हो गया है। ऐतिहासिकों के अतिरिक्त सर्वसाधारण को इस राज्य का नाम भी अविदित ही है।‘’4 अंग राज्य की उपेक्षा का एक संदर्भ बौधायन धर्मसूत्र में मिलता है, जिसके अनुसार इस क्षेत्र में जाने वाले को प्रायश्चित करना पड़ता है। इसके पश्चात् उस व्यक्ति को यज्ञ के अनुष्ठान द्वारा आत्मशुद्धि करनी पड़ती है।5
तथ्य विश्लेषण:                                
         बाल्मीकीय रामायण में भी इस प्रदेश को दुर्गम और निर्जन क्षेत्र के रूप में वर्णित किया गया है। बाल्मीकी ने बालकाण्ड में यह बताया है कि महर्षि कश्यप के एक प्रसिद्ध पुत्र विभाण्डक ऋषि ने निर्णय लिया था कि वे एक ऐसे निर्जन प्रदेश में वास करेंगे जहाँ कोई मनुष्य पहॅंच न पाये। वे अपने पुत्र  ऋष्यश्रृंग को लेकर उस प्रदेश में  तपस्या करने लगे। उनका पुत्र अब तक स्त्री और पुरुष के भेद तक को नहीं जानता था। विभाण्डक इस बात से चिन्तित रहते थे। दशरथ के मित्र रोमपाद इसी इलाके में राज्य करते थे। निःसंतान दशरथ इसी रोमपाद के पास मदद के लिए गये थे। रोमपाद इस बात से दुखी रहता था कि उसके राज्य में वर्षा नहीं होती थी। वहाँ हमेशा अकाल पड़ा रहता था। वह क्षेत्र कितना बीहड़, कठिन और दूर-दूरान्तर तक फैला होगा -इस विवरण से अनुमान लगाया जा सकता है। विडम्बना देखिये कि जिस राज्य का ऋषि, स्त्री और पुरुष के भेद से अनभिज्ञ था, वह सारे शास्त्रों का  ज्ञान प्राप्त कर चुका था। सुमंत्र ने दशरथ को बताया था कि ऋष्यश्रृंग ही वह ऋषि है जो पुत्र उत्पन्न करने वाला यज्ञ, उसकी विधि और रहस्य जानता है।6 इससे यह ज्ञात होता है कि अंग देश जीवन -यापन के लिए उपयुक्त नहीं था। भूख मिटाने के लिए इन्हें लम्बी योजना बनानी पड़ती थी। इतिहासकार कोसांबी ने इस पर प्रकाश डाला है। ‘’आदिम जातियाँ जंगल को जलाकर उसके राख में कुछ बीज छिड़क देती थीं। जमीन कुछ वर्षों के लिए अनुर्वर हो जाती थी। छः से दस साल के बीच नये जंगल का निर्माण हो जाता था, जिससे वे पुनः अपने लायक खाद्य सामग्री प्राप्त कर लेते थे। यह क्रिया नियमित खेती के लिए आवश्यक प्राकृतिक सहयोग के अभाव में अपनायी जाती थी।7 निर्जन होना किसी क्षेत्र का तिरस्कार ही है। महाभारत में अंगराज कर्ण को अपना राज्य छोड़कर अपने मित्र की शरण में जाना पड़ा था।
                   कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि यह पूरा क्षेत्र क्षीण आबादी वाला था। इस निर्जनता का अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि सन् 19110 में दुमका, देवघर तथा राजमहल तीनों की सम्मिलित जनसंख्या मात्र 22,380 तथा सन् 19510 में 43,968 थी।8 इस क्षेत्र में पायी जाने वाली संताली जनजातियां सर्वाधिक पुरानी मानी जाने वाली आदिम जातियों में शामिल हैं। समाजशास्त्री श्यामाचरण दुबे के अनुसार इनका जीवन कितना कठिन रहा होगा - इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि महुआ को ये लोग कल्पवृक्ष के समान महत्व देते थे।9
                यह स्पष्ट है कि भौगोलिक तथा प्राकृतिक कारणों से भी अंग राज्य उपेक्षित रहा है। उपेक्षा का दंश जितना गहरा होता है, उससे कहीं अधिक निर्मम उसका इतिहास होता है। दंश का कालगत विस्तार एक बड़े भूभाग की जीवन-शैली को तिक्त और विषाक्त बना देता है। लेकिन एक सच यह भी है कि युगों-युगों की धूल चढ़ने के बाद भी मनुष्य की जिजीविषा समाप्त नहीं होती। अतीत के स्मृति चिन्ह मिटते नहीं- उस सभ्यता के मनः लोक में छाये रहते हैं। पौराणिक तथा मध्यकाल के बाद आधुनिक काल के इतिहास में भी यह सिलसिला जस का तस बना रहा। इतिहासकार और एसोसिएट प्रोफेसर अमरनाथ झा के अनुसार -‘‘ आधुनिक इतिहास के हर दौर में इसकी सांस्कृतिक परम्पराएं आहत हुईं। संताल परगना के निवासियों के मन में सुलग रहे आक्रोश के पीछे उसकी उपेक्षा ही मूल कारण के रूप में सामने आती है।10 एक नवीन शोध के अनुसार यह इलाका अब भी इतिहासविदों तथा पुरातत्वशास्त्रियों के लिए गवेषणा का विषय नहीं बना है। इसमें स्पष्ट लिखा है -‘‘Santhal parganas have always been missed out not only by historians but also by archeologists. No important excavations have been taken up in Santhal Parganas’’11
पंकज गोष्ठी की विरासत और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
संताल परगना जिले में साहित्य सर्जना और उसके प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से एक काव्यान्दोलन का सूत्रपात हुआ जिसे पंकज गोष्ठीके नाम से जाना जाता है। सन् 19550 में दुमका में इसका उदय हुआ।12 आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकजइसके प्रेरक स्रोत तथा सभापति हुए। सन् 1955 से 19750 तक यह संस्था सक्रिय रही। उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि उनके समकालीन कवियों तथा साहित्यकारों ने उन्हीं के नाम से इस संस्था का नामकरण कर दिया।13 इस क्षेत्र के लोग आज तक पंकजजी की चर्चा छिड़ते ही श्रद्धावनत और भावुक हो उठते हैं। इस लेखक को भी ऐसे कई लोगों से मिलना हुआ है। बाद की पीढ़ी के कुछ मित्रों ने मुझे बताया  कि वे लोग अपने बुर्जुगों से पंकज गोष्ठीके बारे में बहुत कुछ सुनते आ रहे हैं। अपने सहयोगी तथा मित्र श्री विभास चन्द्र वर्मा से जब मैंने इस मुतल्लिक पूछा तो उनकी आँखें चमक उठीं। उस चमकमें इस गोष्ठी के प्रति आदर, प्रभाव और महत्व को सहज ही पढ़ा जा सकता था। कहा जाता है कि उस इलाके में किसी कवि को तभी सच्चा सर्जक माना जाता था जब वह पंकज गोष्ठी की अनुशंसा प्राप्त कर लेता था।14 डॉ0 मधुसूदन मधुने लिखा है-‘‘ इस संस्था ने न जाने कितने लेखकों व कवियों को पैदा किया। कहा जा सकता है कि 1955 से लेकर 1975 तक संताल परगना के साहित्य-जगत् में पंकज गोष्ठीसर्वमान्य व सर्वाधिक स्वीकृत संस्था बनी रही। अगर यह कहें कि पंकज गोष्ठीने संताल परगना के लिए कदाचित वही काम किया जो कभी सरस्वतीपत्रिका ने बनारस और उत्तर भारत में हिंदी साहित्य के विकास में किया था, तो अनुचित नहीं होगा।‘‘15 ये उन लेखकों का मत है जिन्होंने पंकज गोष्ठी को नजदीक से देखा है अथवा उसका हिस्सा रहे हैं। ये लोग इस अनुभव को अपने जीवन का अनन्य और अंतरंग अनुभव मानते हैं। विडम्बना यह है कि  इस लेखक को किसी राष्ट्र्रीय ग्रंथ में इस गोष्ठी का कोई संदर्भ नहीं दिखा। अनदेखा किया जाना या अनदेखा रह जाना - दोनों ही स्थितियाँ उपेक्षा की  श्रेणी में आती हैं। इस राजनीति पर हम आगे  विस्तार से चर्चा करेंगे। फिलहाल महत्व की बात यह है कि एक शोधार्थी की नजर से यह देखा जाना चाहिए कि आखिर वो कौन से कारण, परिस्थितियाँ और प्रेरणाएँ थीं जिनकी वजह से आचार्य पंकज और पंकज गोष्ठी की महनीय भूमिका पूरे संताल परगना क्षेत्र में दिखायी पड़ती है। विरासत और पूर्वपीठिका को जाने बिना इसका ऐतिहासिक मूल्यांकन संभव नहीं। पहले इसी पर विचार करना आवश्यक है।
          आदिवासी बहुल इस इलाके में देवघर एक महत्वपूर्ण स्थान है। यहाँ  वैद्यनाथ जी का प्रसिद्ध मंदिर है। सन् 18800 में भारतेंदु हरिश्चंद्र यहाँ आए थे।16 यहीं हिंदी विद्यापीठ की स्थापना हुई थी। इस विद्यापीठ से राजेंद्र प्रसाद और महात्मा गांधी का गहरा नाता था। 1925 में गांधी जी देवघर आ चुके थे। सन् 19420 में भारत छोड़ो आंदोलन तथा करो या मरो की उद्घोषणा का देवघर विद्यापीठ से गहरा सम्बन्ध है। राजेंद्र बाबू के नेतृत्व में यहाँ के शिक्षकों तथा छात्रों ने स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी।
            सन् 19340 में गांधी जी विद्यापीठ आये थे और पंकज जी वहां के छात्र थे। वे भी इस आंदोलन में कूद पड़े। इन दो विभूतियों ने देवघर की हिंदी-संस्कृति को कैसे प्रभावित किया होगा - यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। एक पक्ष यह भी है कि गांधी जी तथा राजेंद्र बाबू केवल स्वाधीनता का महत्व तो बताते नहीं होंगे। आखिर देवघर हिंदी विद्यापीठ भाषा और साहित्य की स्थली थी। निश्चय ही उन्होंने प्रेरित किया होगा कि हिंदी भाषा और साहित्य स्वाधीनता की चेतना को कैसे पल्लवित-पुष्पित कर सकते हैं। यही कारण है कि स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी यह आंदोलन जारी रहा। अनेक दस्तावेज इसकी गवाही देते हैं।
            श्री शिवराम झा (ज.1876) इस क्षेत्र के महत्वपूर्ण स्वाधीनता सेनानियों में प्रमुख हैं। संताल परगना क्षेत्र में उन्होंने असहयोग आंदोलन के लिए सक्रिय भूमिका अदा की थी। आंदोलन के क्रम में ही  हिंदी विद्यापीठऔर गोवर्द्धन साहित्य विद्यालयकी नींव पड़ी थी- इन दोनों ही उपक्रमों में शिवराम झा की निर्णायक भूमिका थी।17 हिंदी विद्यापीठ की स्थापना श्री बैद्यनाथ मंदिर के निकट किराये के मकान में हुई थी।18 यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि विद्यापीठ की स्थापना से पूर्व देवघर में ही हिंदी साहित्य विद्यालयकी स्थापना हुई थी, जहां अंग्रेजी, संस्कृत, बांग्ला और उर्दू की शिक्षा दी जाती थी। यहां परम विद्वान् पंडित जनार्दन मिश्र परमेशबतौर शिक्षक नियुक्त हो चुके थे। कहा जाता है कि परमेशजी ने ही विद्यापीठ की योजना का प्रारूप तैयार किया था। ये स्वयं उच्च कोटि के कवि थे।19 उल्लेखनीय है कि आचार्य पंकजउन्हीं के शिष्य थे तथा सन् 19380 में 19 वर्ष की आयु में वहीं बतौर शिक्षक कार्य भी किया था।20 बांग्ला के प्रसिद्ध उपन्यास काला पहाड़का हिंदी अनुवाद परमेशजी ने ही किया था। इस उपन्यास का नाट्य रूपांतर बंगाल में बहुत प्रसिद्ध हुआ था। उसका मंचन स्वयं निराला देखने गये थे। खास बात यह है  कि इस अनुदित उपन्यास की समीक्षा सुधामासिक के फरवरी 1930. अंक में निराला जी ने की थी। निराला इस अनुवाद से बहुत प्रभावित हुए थे।21
            ‘परमेशजी आचार्य पंकज के उन गुरुओं में शामिल थे जो अपनी काव्य प्रतिभा और वैदुष्य के लिए विद्वत्-समाज में महत्वपूर्ण स्थान बना चुके थे। यह जानना और भी रोचक है कि परमेशजी के काव्य गुरु पं. अक्षयवट मिश्र विप्रचंदतथा श्री भैरव झा थे।22 परमेशने जॉर्ज पंचम के भारत आगमन पर जॉर्ज किरणोदयनामक रचना लिखी थी जो पुरस्कृत भी हुई थी।23 विप्रचंदबालमुकुन्द गुप्त के संपादन में निकल रहे भारत मित्रनामक प्रसिद्ध ऐतिहासिक पत्र के सहकारी भी रहे थे।24 आप संस्कृत, प्राकृत, ब्रजभाषा तथा अंग्रेजी के भी विद्वान् थे। बाबू शिवपूजन सहाय बचपन में उर्दू तथा फारसी के छात्र थे किन्तु विप्रचंदजी की प्रेरणा से हिन्दी की पढ़ाई करने लगे। मिश्र जी अंग्रेजों को हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते थे। उनके शिष्यों में पटना ट्रेनिंग कॉलेज के प्रिंसिपल प्रो. थिकेट, पटना डिविजन के कमिश्नर ओल्डहम् तथा बिहार के स्कूलों के इंसपेक्टर मि. प्रेष्टन साहब शामिल थे। अंग्रेज शिष्य उनकी प्रतिभा, विद्वता और वाक् पटुता के कायल थे।25 वे शब्दों की व्युत्पत्ति बड़ा रस लेकर बताते थे। एक बार वे प्राचार्य थिकेट को बिहारी सतसईपढ़ा रहे थे, तभी थिकेट ने पूछ लिया कि नथुनी उतारनाका अर्थ बताइये, क्योंकि शब्दों से इसका अर्थ नहीं खुलता। मिश्र जी ने बताया कि किसी सुन्दरी युवती को अपनी प्रेयसी के रूप में अंगीकृत करना और प्रेम की स्वीकृति पर सबसे पहले स्फीत चुम्बन की मुहर पड़ती है। किन्तु नथुनी से चुम्बन में झंझट होती है। इसलिए नथुनी उतारकर चुम्बन द्वारा प्रेम की मुहर लगायी जाती है। यही इस मुहावरे की ध्वनि है। थिकेट साहब उनके इस गुण पर इस कदर रीझे कि उनकी पैरवी से सन् 19150 में उन्हें पटना कॉलेज में प्रोफेसरी मिल गयी।26 उनकी चुहलबाजी का आलम यह था  कि वे सरस्वतीपत्रिका में लाला पार्वतीनंदन के नाम से व्यंग्य लिखते थे। शिवपूजन सहाय ने मासिक अवन्तिकामें उनके बारे में लिखा है कि ‘‘ जब उनकी वाग्धारा खुलती थी तब सुनकर दंग रह जाना पड़ता था।‘‘27 वे पान के शौकीन थे तथा कहते थे पान न खाने से अपानहो जाता है। उस समय उनकी ये पंक्तियां बहुत प्रसिद्ध हुई थीं -            
          
लौंग कपूर  इलायची  पुंगी  फल   ताम्बूल
जो नर कबहुँ न खात है सो खल खलु चंडूल।
रति,  क्रीडा,  नाटक, सभा,  यात्रा,  पथ, संग्राम
भोजनांत में पान बिनु नर न लहै  विश्राम।28
           
डॉ. रामदरश मिश्र की मान्यता है कि विप्रचंदउन आलोचकों में थे जिन्होंने महावीर प्रसाद की आलोचना - परंपरा की नवीन प्रवृत्तियों को आगे बढ़ाया।29 जिस प्रकार भैरव झा की समस्यापूर्ति की दक्षता ने परमेशको काव्य रचना की ओर प्रवृत्त किया था उसी प्रकार मिश्र जी ने भी उन्हें गहरे प्रभावित किया था।30 यह परंपरा आगे चलकर पंकजजी से भी जुड़ी। इन्हीं परमेशजी ने ज्योतीन्द्र प्रसाद के दूसरे काव्य संग्रह उद्गारकी भूमिका लिखी  थी।
            ज्योतीन्द्र प्रसाद जिस परंपरा के वाहक थे उनमें उनके एक और गुरु श्री बुद्विनाथ झा कैरवका महत्वपूर्ण स्थान है। कैरवजी ने ही ज्योतीन्द्र प्रसाद के प्रथम स्नेहदीपकी भूमिका सन् 19580 में लिखी थी। उन्होंने लिखा है कि स्नेहदीपको मैं पढ़ गया। बाहर की रौशनी में नहीं बल्कि अंतर के स्नेहदीप को जलाकर। पंकज जी एक कवि हैं- सच्चे कवि।31कैरवजी उन बुद्धिजीवियों में शमिल थे जिन्हें बाबू शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर‘, रामवृक्ष बेनीपुरी तथा लक्ष्मीनारायण सुधांशु की ही कोटि में रखा जाता है।32,33 यह बात स्वयं सहाय जी ने बिहार प्रान्तीय हिंदी साहित्य सम्मेलन-1941. में अध्यक्षीय भाषण देते हुए कही थी।34 
            डॉ0 बजरंग वर्मा ने हिंदी साहित्य और बिहारचतुर्थ खंड की प्रस्तावना में कैरवजी को द्विवेदी युगीन साहित्यसेवियों के बीच वैदुष्यपूर्ण समादर के लिए याद किया है।35 इसके अतिरिक्त उन्हें बिहार में राष्ट्रभाषा के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ कविता, कहानी, समालोचना तथा शोध के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान करने वाले साहित्यसेवियों में नामांकित किया जाता है।36 उनकी एक पुस्तक साहित्य साधना की पृष्ठभूमिको बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने एक सहस्र मुद्रा का पुरस्कार दिया था।37 उन्होंने मिडिल इंगलिश, भागलपुर की अध्यापकी छोड़कर, सन् 1920 के असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा की थी।38 इस आंदोलन ने आपको इस कदर प्रभावित किया था कि ये साहित्य और राजनीति के अनन्य सेवक हो गये। सन् 19360 में वे बिहार विधान सभा के सदस्य भी रहे और स्वाधीनता के बाद भी उसके सदस्य चुने गये। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि पटना में आयोजित अखिल भारतीय चरखा सम्मेलन में उन्होंने इतना बारीक सूत काता था कि गांधी जी ने लेख लिखकर यंग इंडियामें उनकी प्रशंसा की थी। इसके लिए उन्हें स्वर्ण पदक भी दिया गया था।39 हिंदी विद्यापीठ देवघर ही नहीं बिहार राष्ट्रभाषा परिषद तथा प्रांतीय सम्मेलन बिहार के उन्नायकों में उनकी गणना होती है। वे उन कवियों में सम्मिलित थे, जिन्होंने द्विवेदी युगीन कविता में खड़ी बोली का सफल सर्जनात्मक प्रयोग किया था। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है -
आदि का मैं विस्मरण हूँ , अंत का अज्ञान हूँ मैं
बीच में भूले हुए अस्तित्व की पहचान   हूँ  मैं
प्रात संध्या नियति की स्वच्छंदता में सुप्त होकर
दोपहर की डाल पर फूला हुआ बंधूक  हूँ  मैं।
बॅंध गया हूँ मुक्त पथ की एक लघु सी चूक हूँ मैं।।40

ऐसे स्वनामधन्य गुरु के मार्ग निर्देशन और साहचर्य में पंकज जी को साहित्य के संस्कार प्राप्त हुए थे। स्वाधीनता आंदोलन की प्रेरणा और विरासत एकसाथ फल फूल रहे थे।
            ‘पंकज जी के शिक्षकों में यदि श्री लक्ष्मीनारायण सुधांशुके योगदान की चर्चा न की जाय तो बात अधूरी रह जायेगी। पंकजके साहित्यिक व्यक्तित्व पर वैदुष्य की जो छाप दिखायी पड़ती है- वह सुधांशुजी के साहचर्य का ही प्रभाव है।41 उन्हीं की संगत में इन्होंने 1942 के आंदोलन में भाग लिया था। इसके लिए सुधांशुजी जेल भी गये थे। 1948. में बिहार विधान सभा में कांग्रेस विधायक दल के सचिव के तौर पर इन्होंने ही बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् की स्थापना का गैर सरकारी प्रस्ताव प्रस्तुत किया था। आलोचना, साहित्यशास्त्र तथा सौन्दर्यशास्त्र के विद्वान् के रूप में उनकी दो रचनाएँ बहुत महत्वपूर्ण समझी जाती हैं -काव्य में अभिव्यंजनावाद‘-1938 तथा जीवन के तत्व और काव्यसिद्धांत‘-1942 । माना जाता है कि इन्होंने रोमांटिक काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए ‘‘ रामचंद्र शुक्ल की शास्त्रीयता की कड़ियों को ढीला करने का प्रयास किया है।‘‘42
     ‘पंकज जी आदर्श गुरुओं की श्रृंखला में एक नाम प्रोफेसर जर्नादन झा द्विजका भी है। सन् 19040 में जन्मे द्विजजी ने आरंभिक दौर में, हिंदी विद्यापीठ तथा गोवर्द्धन साहित्य विद्यालय में अध्यापन किया था। वे उच्च कोटि के वक्ता, विद्वान तथा शिक्षक थे। पंकज जी पर उनकी वर्कृत्व कला का अमिट प्रभाव पड़ा था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान भागलपुर के प्रसिद्ध असहयोगी नेता श्री बाबू दीपनारायण सिंह के साथ इनका घनिष्ठ सम्बंध रहा था।43 बाद में वे राजेंद्र कॉलेज छपरा चले गये थे। वहाँ वे प्रोफेसर तथा हिंदी विभागाध्यक्ष थे। इसके बाद सन् 1944. में वे औरंगाबाद कॉलेज औरंगाबाद में प्राचार्य नियुक्त हो गये थे। हिंदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार प्रेमचंद की उपन्यास कला पर लिखित उनकी पुस्तक पेमचंद की उपन्यास कलाआरंभिक समीक्षाओं में गिनी जाती है। वैसे तो पंकज जी के सभी गुरुओं से बाबू शिवपूजन सहाय का गहरा नाता था किंतु उनमें से केवल द्विज जी ही ऐसे रचनाकार हैं जिनपर सहाय जी ने एक संस्मरणात्मक लेख साप्ताहिक प्रभाकरमुंगेर के लिए लिखा था, जो 29 अक्टूबर 1944. में प्रकाशित हुआ था।44 तब द्विज जी छपरा छोड़कर औरंगाबाद में प्राचार्य का पदभार ग्रहण करने जा रहे थे। उन्होंने लिखा है- ‘‘ उधर प्लैटफार्म से गाड़ी सरकने लगी, इधर पैरों के नीचे की धरती खिसकती सी जान पड़ी। मालूम हुआ, गाड़ी के साथ प्लैटफार्म भी चला। किंतु प्लैटफार्म ऐसे सौभाग्यशाली न था। उसने अपनी थर्राहट को मेरे पैरों की राह सारे अंग में बिखेर दिया। लालसा थी, पर हाथ हिलाने की सुध ही न रही। मानो देखते देखते हाथ साथ छोड़ गये।‘‘45 इससे ज्ञात होता है कि द्विज जी के साथ उनका नाता कितना आत्मीय था। सहाय जी उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व और विद्वता के कायल थे। द्विज जी जिस गोष्ठी में भाषण दे देते थे उसमें शेष वक्ताओं का रंग फीका पड़ जाता था।46 सहाय जी ने उनके विषय में यह उद्घोषणा तक कर डाली है-    ‘‘ सचमुच द्विज जी मूर्तिमान साहित्य हैं। उनके व्यक्तित्व में जो असामान्य माधुर्य है, उनके रहन सहन में जो कलापूर्ण सौन्दर्य है, उनके स्वभाव में जो स्वयंप्रभ स्वाभिमान है, उनकी वाणी में जो अतुल ओजस्विता है, उनके आचरण में जो संयत अनुशासनप्रियता है, वह बिहार की बड़ी अमूल्य सम्पत्ति है। हिंदी संसार में भी दृष्टि दौडा़कर हम ऐसे आदर्श गुणों की समष्टि अत्यल्प ही एकत्र पाते है।‘‘47 द्विज बिहार के गद्य लेखकों में अग्रणी माने जाते थे। उनके रेखाचित्र इतने प्रसिद्ध हुए थे कि उन्हें गद्य कविकहा जाने लगा था।48
            कहने का आशय है कि ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकजएक समृद्ध साहित्यिक परंपरा के प्रतीक चिन्ह हैं। पंकजजी की विद्वता और समदर्शी व्यक्तित्व के केन्द्र में इन्हीं गुरुओं तथा सहकर्मियों की प्रेरणा पूंजीभूत हुई है। उनकी काव्य प्रतिभा का उन्नयन भी इन्हीं प्रतापी साहित्य सेवियों के सानिध्य से संभव हुआ है। प्रो. सत्यधन मिश्र ने ठीक ही उद्धृत किया है कि ‘‘ सुधांशु की समीक्षा दृष्टि, द्विज जी की वाक्पटुता व स्वाभिमान, परमेश जी की दार्शनिकता, पं. कैरव की मुखरता व मधुरता तथा उत्पल जी की सांगठनिकता -सबका समाहार पंकज के व्यक्तित्व में हो जाता था। इसीलिए पंकज जी विभिन्न रूपों से प्रेरणा, विभिन्न वर्गों के हजारों- लाखों लोगों ने ली और वे जनश्रुति के नायक बन गये। जब लोग इन्हें बोलते हुए सुनते थे तो विस्मृत और सम्मोहित होकर सुनते रह जाते थे।‘‘49 यह सुनकर आश्चर्य होता है कि जब सन् 1977 में निधन होने के 32 वर्षों के पश्चात् 30 जून 2009 को दुमका में आचार्य पंकज की 90 वीं जयंती समारोह हुआ, तब उस क्षेत्र के तमाम बुद्धिजीवी, लेखक, कवि, रंगकर्मी तथा पत्रकार सहित वो साहित्य प्रेमी एकत्र हो गये जो पंकज गोष्ठीके प्रभाव को आज तक अपने अंदर महसूस करते हैं।50 किसी सामान्य आयोजन का उत्सव में बदल जाना निश्चय ही एक ऐसा पहलू है जो पंकज जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को मूल्यांकित करने के लिए बाध्य करता है। मुझे यह जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि इंटरनेट के दो वेवसाइटों - -मिथिला आर मैथिली डॉट कॉमतथा विदेह डॉट कॉमने उन्हें राष्ट्रीय धरोहरघोषित किया है। इनके संचालकों ने साहित्य सेवियों से उनपर शोध करने की गुहार लगाई है। ज्ञातव्य हो कि इनके संचालकों का पंकज जी के परिवार से कोई सम्बंध नहीं है। पंकज गोष्ठीका प्रभाव युवा पीढ़ी पर इतना गहरा होगा- विश्वास नहीं होता।
पंकज-गोष्ठीकी भूमिका और उपलब्धि       
            सन् 19540 में पंकज जी दुमका आ चुके थे। यहीं 19550 में उनके सहयोगियों तथा मित्रों ने एक संस्था का निर्माण किया और उसे पंकज गोष्ठी नाम दिया।50 साहित्य में अक्सर इस तरह की साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं का निर्माण होता रहा है। संस्थाओं के नामकरण दो तरह के होते हैं-एक व्यक्तिवाचक तथा दूसरे निरापद, सोद्देश्य किंवा वैचारिक नामकरण। व्यक्तिवाची संस्थाएं स्मृतिमूलक तथा प्रायः मरणोपरांत गठित की जाती हैं। इस मामले में ऐसा क्या हुआ कि एक जीवित व्यक्ति की छत्रछाया में, उसीको केंद्र में रखकर, उन्हीं के सभापतित्व में एक साहित्यिक संस्था का गठन हुआ। दूसरी बात यह है कि यदि ऐसा हुआ भी तो यह क्योंकर हुआ कि इतनी अल्पावधि में ही पूरे संताल परगना क्षेत्र में इसकी स्वीकार्यता इतनी बढ़ गयी ? इस प्रकरण को समझने के लिए दो तथ्यों को ध्यान में रखना होगा; एक का सम्बंध उनके व्यक्तिगत जीवन से है तथा दूसरे का स्वाधीनता आंदोलन में योगदान और उसकी विरासत से है। पहले की चर्चा करें तो कहना पड़ेगा कि किशोरावस्था से ही उनमें असाधरणत्व के लक्षण दिखने लगे थे। बाल ज्योतीन्द्र ने गरीबी का वो रूप देखा जिसने उनकी मनःतंत्रियों को हिला कर रख दिया। सब जानते हैं कि स्वाधीनता से पहले किसानों की आर्थिक स्थिति दयनीय थी। संताल परगना तो उसमें भी सबसे पिछड़े इलाकों में शामिल था। उसपर अंग्रेजों की गुलामी और अन्याय का आलम अलग से। किशोर ज्योतीन्द्र नौकरी के लिए निकले और म्युनसपलिटी में झाडू लगाने वाले सफाई कर्मचारी के सेवार्थ आवेदन कर डाला। किंतु चयनकर्ताओं ने उनके आवेदन को निरस्त कर दिया।50 यह बात उनके सभी करीबी मित्र जानते और बताते हैं। एक अन्य घटना का जिक्र भी कुछ लोगों ने किया है। कहते हैं वे जिस स्कूल में पढ़ाने जाते थे उसके रास्ते में ही अजय नदी पड़ती थी। बरसात के दिनों में नदी में बाढ़ आ गई। पंकज जी ने स्कूल जाना स्थगित नहीं किया। एक हाथ में कुर्ता संभाला तथा एक ही हाथ से तैरते हुए बभनगांवाँ अपने स्कूल में पहुँच गए।50 ये सभी घटनाएं दंतकथाओं की तरह आज भी लोगों को याद हैं। संभवतः इन पंक्तियों में उनका ही व्यक्तित्व झाँकता नजर आता है -
हार चुके सौ  बार  बवंडर
कूल मिले तो कौन गजब है
मैं झंझा में   पलने  वाला
मेरा तो इतिहास अजब  है।50
           
जिस अन्य घटना का उल्लेख हम करना चाहते हैं वह महत्वपूर्ण तो है ही, उसके बिना बात अधूरी रह जायेगी। महात्मा गांधी की हत्या की खबर से पूरे भारतवर्ष में शोक की लहर दौड़ गयी थी। उस समय पंकज जी की आयु 29 वर्ष थी। दिल्ली जाना संभव नहीं था। लिहाजा उन्होंने 31 जनवरी 1948 को बभनगांवाँ के रायबहादुर जगदीश प्रसाद सिंह उच्च विद्यालय के प्रांगण से अजय नदी के तट तक गांधी जी की शव यात्रा निकाली। वहीं प्रतीकात्मक अंत्येष्टि हुई। श्रद्धांजली अर्पित करते हुए पंकज जी ने वहीं एक कविता सुनाई, जो उनके संग्रह में उपलब्ध है। भुजेन्द्र आरत ने अपने संस्मरण में लिखा है कि कविता सुनकर हजारों लोग सुबकने लगे। सेवा निवृत्त शिक्षक श्री आरत ने लिखा है कि उस समय उनकी आयु लगभग 9 वर्ष रही होगी। हजारों लोगों को एक कविता सुनकर सुबकते हुए देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। गांधी जी के प्रति उनका समर्पण भाव आज भी उस क्षेत्र के लोगों के हृदय पर अंकित है।51                                                             
            उनकी प्रसिद्धि और विद्वता का आलम यह था कि बकौल श्री नित्यानन्द -‘‘ आज भी 50 वर्ष की उम्र पार कर चुका कोई भी पढ़ा लिखा व्यक्ति पंकज गोष्ठीसे सम्बंधित किसी न किसी प्रकार की स्मृति के साथ जीता है जो पंकज जी के अतुलनीय व्यक्तित्व का ही प्रमाण है।‘‘52 संताल परगना के साहित्याकाश में उनकी विद्वता और ओजस्वी भाषणों की चर्चा आम बात थी। अनेक बड़े साहित्यकार उनसे इर्ष्या करने लगे थे। भुजेन्द्र आरत ने इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण घटना का उल्लेख किया है। बात 13 फरवरी 1965 की है। दुमका में हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन हो रहा था। आरत जी स्वयं उस अधिवेशन में मौजूद थे। अपने संस्मरण में उन्होंने बताया है कि उस समय सभा भवन में राजा राधिका रमण प्रसाद सिंह, हंस कुमार तिवारी, लक्ष्मीनारायण सुधांशु, नागार्जुन, बुद्धिनाथ झा कैरव‘, डोमन साहु समीर‘, ‘ज्योत्सनाके संपादक शिवेन्द्र नारायण आदि उपस्थित थे।53 प्रख्यात साहित्यकार पं. जर्नादन मिश्र परमेशस्वयं बतौर तत्कालीन अध्यक्ष मौजूद थे। संताल परगना के उपायुक्त श्री रासबिहारी लाल स्वागत समिति के अध्यक्ष की हैसियत से स्वागत भाषण देने वाले थे। लाल साहब स्वयं चर्चित नाटककार थे।54 लाल साहब ने मंच से केवल दो लोगों का नाम लेकर संबोधन किया- शुद्धदेव झा उत्पलतथा ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज। इससे उनके साहित्यिक कद और महत्व का पता चलता है।55 उनकी ख्याति का कारण सिर्फ यह नहीं था कि वे एक कवि और प्रोफेसर थे। इसका वास्तविक कारण पंकज गोष्ठीकी लोकप्रियता, उसकी सर्वस्वीकार्यता तथा साहित्यिक वर्चस्व है। पंकज और उनकी गोष्ठी एक दूसरे का पर्याय हो चुके थे। किंवदंतियों तथा दंतकथाओं का भी इसमें बड़ा योग था। उनसे जुड़े कई किस्सों को हमने जान बूझकर छोड़ दिया है।              
            आचार्य पंकज  के मानस के निर्माण तथा पंकज गोष्ठीके गठन की प्रक्रिया को आँकने के लिए दूसरे प्रकार के तथ्यों को समझना आवश्यक है। यह ध्यान रखना चाहिए कि पंकज जी जिस देवघर स्थित हिंदी विद्यापीठ में गये थे वह भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार के साथ साथ स्वाधीनता आंदोलन की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। विद्यापीठ की स्थापना के पूर्व महात्मा गांधी 19250 में देवघर आ चुके थे। डॉ. सुबोध कुमार के अनुसार यह क्षेत्र अंग्रेजों के काबू में नहीं आ पा रहा था। इस क्षेत्र के निवासी बड़े जीवट वाले थे। वे अपनी अस्मिता की लड़ाई उस समय लड़ रहे थे जब अधिकांश प्रांत तेजी से अंग्रेजी सत्ता के अधीन होते जा रहे थे।56 इस बात को गांधी जी से बेहतर और कौन जान सकता था। दूसरी बार 26 अप्रैल 19340 में गांधी जी देवघर आये थे, इस बार हिंदी विद्यापीठ में। उस समय पंकज जी वहाँ के छात्र थे। कुछ लोग वहाँ गांधी जी का विरोध करने वाले थे। इससे निपटने के लिए स्वयंसेवकों के चार दल बनाये गये थे जो चारों ओर से रक्षा कवच की तरह काम करने वाले थे। पंकज जी भी एक दल में शामिल थे।57 इसके अतिरिक्त देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद तो यहाँ के कुलाधिपति तथा संरक्षक थे ही। उनका आना जाना तो लगा ही रहता था। मुख्यधारा के अनेक लेखक भी आते रहते थे। बाबू शिवपूजन सहाय के एक पत्र से इसका खुलासा होता है। यह पत्र सन् 19310 में मासिक गंगा‘ -भागलपुर में छपा था। उनके शब्द थे - ‘‘मुजफ्फरपुर के उत्साही सदस्यों और बैद्यनाथ धाम के सहृदय हिंदी प्रेमियों से हम साग्रह अनुरोध करते हैं कि अधिक से अधिक आगामी विजयादशमी तक तो अवश्य ही अधिवेशन कर डालने की चेष्टा करें।‘‘58 इससे लगता है कि प्रांतीय सम्मेलन 1932 के आस पास हुआ होगा। इस आशय का कोई संदर्भ इस लेखक को प्राप्त नहीं हो सका है। देवघर विद्यापीठ के सदस्यों को सहाय जी ने सहृदय साहित्य प्रेमीकहकर संबोधित किया है, जो यहां के स्वाधीनता सेनानी शिक्षकों-छात्रों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। दूसरी अहम बात यह है कि यहां के शिक्षकों में सुधांशुतथा कैरवजी ऐसे साहित्य प्रेमी थे जो आगे चलकर बिहार विधान सभा के सदस्य चुने गये तथा बिहार कांग्रेस के महत्वपूर्ण पदों पर रहे। इस दिशा में महामना शिवराम झा, भैरव झा, ‘परमेशजी तथा द्विजजी का राष्ट्रप्रेम तो अतुल्य है ही। पीछे इसका हवाला दिया जा चुका है। स्वाधीनता संग्राम तथा हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार में इनके योगदान का संकेत भी किया जा चुका है। ये सभी ओजस्वी वक्ता, अनेक भाषाओं के जानकार तथा बिहार के साहित्येतिहास में उल्लेखनीय योगदान करने वालों में गिने जाते हैं। पंकज जी को इन्हीं पुण्यात्मा साहित्यकारों के व्यक्तित्व का आलोक प्राप्त हुआ था। विरासत के इन हस्ताक्षरों ने उनकी मेधा और कुशाग्रता को पहचाना था। इसका प्रमाण यह है कि 19380 में मात्र 19 वर्ष की आयु में, डॉ. राजेंद्र प्रसाद की निगरानी में विकसनशील संस्था के अग्रजों ने साहित्यालंकारकी उपाधि प्राप्त करते ही इन्हें विद्यापीठ में अपना सहकर्मी बना लिया था। इससे उनकी वर्कृत्व तथा शिक्षण कला की दक्षता का बोध हो जाता है।59 कहा जाता है कि सन् 1954. में जब उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाया गया तो समस्या उठ खड़ी हुई कि इनका चयन किस विधि से किया जाय। इसी तरह की स्थिति तब भी उपस्थित हुई थी जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। बहरहाल, तय यह किया गया कि एक संगोष्ठी का आयोजन किया जाय तथा उसमें पंकज जी का वक्तव्य सुना जाय। इस आयोजन के बाद उन्हें न सिर्फ प्राध्यापकी अर्पित की गयी बल्कि अध्यक्ष का पदभार भी सौंप दिया गया।60                         
            पंकज जी 19380 से ही हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार प्रसार में जुट गये थे।61 इसी उद्देश्य को उन्होंने स्वाधीनता प्राप्ति के बाद भी पंकज गोष्ठीके माध्यम से जारी रखा - बेशक तड़क-भड़क और विज्ञापनबाजी से दूर रहकर। इस तथ्य को केवल ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में ही समझा जा सकता है। एक नयी भाषा के रूप में हिंदी का विरोध स्वाधीनता से पहले ही आरम्भ हो गया था। नवजागरण आंदोलन की पहली सांस्कृतिक विशेषता है जातीय अस्मितापर बल तथा इसकी पहली शर्त थी निज भाषाकी उन्नति।62 विडंबना ही है कि नवजागरण के दौरान ही निज भाषा‘ - जो राष्ट्रभाषा बनने की अधिकारिणी थी, राजनीति का शिकार हो गयी तथा नेताओं के मकड़जाल में फॅंस गयी। यह विरोध संस्कृतिक कम राजनैतिक अधिक था। संताल परगना के इन हिंदी प्रेमियों का विकास इसी विषाक्त वातावरण में हुआ। इस विषाक्त वातावरण में जो मुख्य विवाद उभरकर आये उन्हें हम इस तरह रख सकते हैं - हिंदी बनाम हिंदुस्तानी, हिंदी बनाम बांग्ला, हिंदी बनाम महात्मा गांधी, हिंदी बनाम नेहरु तथा हिंदी बनाम हिंदी। इस आशय के संदर्भों से हिंदी साहित्य पटा पड़ा है। इस मामले में गांधी और नेहरु की नीति एक सी थी। हिंदी वाले दोनों को लेकर भ्रम की स्थिति में थे। नेहरु का तो घर ही हिंदी साहित्य सम्मेलन के दफ्तर के निकट था। एक बार हिंदी रसिक मंडलने नेहरु को मानपत्रदेकर सम्मानित करने के लिए काशी में बुलाया। इस अवसर पर निराला, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, कृष्णदेव प्रसाद गौड़ आदि उपस्थित थे। स्वयं रामचंद्र शुक्ल ने नेहरु जी को मानपत्र प्रदान किया। नेहरु बड़ी मुश्किल में फँसे कि हिंदी वालों के बीच हिंदी का विरोध कैसे किया जाय। निराला ने लिखा है कि नेहरु ने यथेष्ट संयमरखते हुए हिंदी की उपेक्षा की। मौजूद लोगों ने खुलकर विरोध क्यों नहीं किया इसे स्पष्ट करते हुए निराला ने लिखा है-‘‘ उन लोगों ने सभ्यता का विचार किया होगा। अन्यथा ऐसे विद्वतापूर्ण भाषण का उत्तर वे दे सकते थे। सम्मान देने के लिए बुलाकर विरोध करना उन्होंने अपनी साहित्यक धारा के अनुसार उचित न समझा होगा।‘‘63
            गांधी जी से हिंदी वालों को बड़ी आशा भी थी किंतु उनके रवैये से वे नाखुश रहते थे। नाखुश रहने वालों में शिवपूजन सहाय तथा निराला आदि भी शामिल थे। निराला ने एक स्थान पर गांधी जी पर इतनी तल्ख टिप्पणी है कि कोई भी सकपका जाय। 19390 में उन्होंने लिखा-‘‘ मैं हैरान होकर हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति को देखता रहा, जो राजनीतिक रूप से देश के नेताओं को रास्ता बतलाता है, बेमतलब पहरों तकली चलाता है, प्रार्थना में मुर्दे गाने सुनता है, हिंदी साहित्य सम्मेलन का सभापति है, हिंदी के कवि को आधा घंटा वक्त नहीं देता- अपरिणामदर्शी की तरह जो जी में आता है, खुली सभा में कह जाता है, सामने बगलें झांकता है।‘‘64 निराला इस बात से नाराज रहते थे कि गांधी हिंदी को महत्व की दृष्टि से तीसरी अथवा उससे भी नीचे की भाषा मानते हैं। 65
            इस राजनीतिक उठा पटक के बीच हिंदी साहित्य सेवियों का भी एक पक्ष था। यह सारा विवाद साहित्य सम्मेलन के अधिवेशनों में जोर-शोर से उठाया जाता था। इसकी एक बानगी बिहार प्रांतीय साहित्य सम्मेलन, पटना, 19410 में बाबू शिवपूजन सहाय के अध्यक्षीय भाषण में देखी जा सकती है। केवल कुछ पंक्तियाँ काफी हैं। एक पंक्ति है -‘‘ हमें बड़ी विनय के साथ किंतु अतिशय स्पष्ट शब्दों में यह व्यक्त कर देना चाहिए कि राष्ट्रभाषा के नाम से हम केवल हिंदी को ही पुकार सकते हैं, हिंदुस्तानी को कदापि नहीं। राष्ट्रभाषा की तो बात ही क्या, केवल भाषा के अर्थ में भी हिंदुस्तानी शब्द का ग्रहण असंभव है।‘‘66 दूसरी पंक्ति -‘‘ हिंदी को मुट्ठी में मसलकर जो समुद्र में फेंकना चाहता है, वह हिमालय को बटखरा बताना चाहता है। जिसको समझना हो, वह समझ ले कि हमारी हिंदी निपूती नहीं है।‘‘67
            पीछे हिंदी बनाम हिंदी का जिक्र हुआ है। इस संदर्भ में अधिकांश बातें ऑफ द रिकॉर्डही रही हैं। बहुत कम मसाला भाषा में छनकर आया है। उस समय के लेखक अपनी आत्म कथाओं में भी ऐसी चीजों से बचते रहे हैं। जानकी वल्लभ शास्त्री को सरोज स्मृतिभेजते हुए निराला ने कान खड़े कर देने वाली कुछ बातें कही हैं। मजे की बात यह है कि पत्र 19360 का ही है। मिसाल देखिए - ‘‘आप मेरे विचार से बिहार और समस्त हिंदी संसार में शीघ्र सुन्दर कवि-रुप रक्खेंगे, पर हिंदी की तरक्की कीजिए। जिन बिहारियों का डंका पीटा जा रहा है, मैं बहुत जल्द उनके समक्ष आपको भिड़ाता हूँ- खासतौर से दिनकर जी के मुकाबले देखा जाय। एक आंदोलन बिहारियों के काव्य-ज्ञान का खड़ा करके देखना चाहता हूँ, डंका पीटने वाले बाजदार ही हैं या समझदार भी। इस पत्र का मर्म भी खोलिएगा मत।‘‘68 हिंदी आलोचकों के बारे में उनकी राय भी कम ऐतिहासिक नहीं है। निराला इसी पत्र में एक जगह लिखते हैं- ‘‘मैंने देखा, हिंदी के आलोचक परले दर्जे के उजबक हैं।‘‘69 पहले उद्धरण में प्रांतवाद व ब्राह्मणवाद की अनुगूंज साफ सुनी जा सकती है। शायद यह भी नवजागरण का ही कोई रूप हो ? निराला जैसे समादृत कवि ने बिहारीशब्द का प्रयोग जिस हिकारत के साथ  किया है - आखिर उसे क्या कहा जा सकता है ? नवजागरण का नाम सुनते ही जिनका दिल बल्लियों उछलने लगता है, उनका मूल्यांकन राष्ट्रवाद अथवा मानवतावाद की कौन सी दृष्टि कर सकती है ?
            पंकज जी के व्यक्तित्व का निर्माण इसी विषैले राष्ट्रीय परिदृश्य में हुआ। छायावाद, प्रगतिवाद, प्रगतिशीलता, आधुनिकतावाद तथा नयी कविता के साहित्यिक आंदोलन आये और चले भी गये किन्तु पंकज गोष्ठीके कवियों के लिए भाषा और साहित्य के  प्रचार -प्रसार का नवजागरण का सपना अभी अधूरा रह गया था। वे साहित्य की मुख्यधारा से अलग हटकर अपना काम मौन धारण किये हुए कर रहे थे। बिहार में हिंदी साहित्य के संरक्षक की भूमिका निभाने वाले बाबू शिवपूजन सहाय ही ने जब इनकी कोई सुध नहीं ली तो फिर औरों की कौन बात करे। हंस कुमार तिवारी, नागार्जुन, रेणु, नलिन विलोचन शर्मा आदि सभी इनसे वाकिफ थे किन्तु किसी ने पंकज गोष्ठीका कहीं उल्लेख नहीं किया है। इसका रहस्य साहित्य की राष्ट्रीय राजनीति में छिपा है। वास्तव में हिंदी साहित्य के तीन राष्ट्रीय गढ़ रहे हैं - काशी, पटना और प्रयाग। इन सबके तार दिल्ली से जुड़े हुए थे जो साहित्य की नयी राजधानी के रूप में उभर रही थी। ये गढ़ आपस में गहरे जुड़े हुए थे। ये लोग अपने अपने क्षेत्रों में विकसित हो रहे साहित्य की पूरी जानकारी रखते थे। इन सबका एक दूसरे के यहाँ आना जाना लगा रहता था। निरंतर चिट्ठी पत्री भी होती रहती थी। ये लोग खाने-पीने से लेकर दुनिया जहान की बातें करते थे। लगभग सभी साहित्य सम्मेलन, नागरी प्रचारिणी सभा तथा राष्ट्रभाषा परिषद के सदस्य हुआ करते थे। एक-आध मिसाल देखिए –
1. ‘‘ शाम को सुधांशु जी आये। श्री दिनकरजी से भेंट होते ही बधाई दी। आज ही पत्रों में पढ़ा कि प्रयाग में साहित्यसंसद द्वारा श्री मैथिलीशरणजी की अध्यक्षता में उनको ताम्रपत्र और एक हजार रुपया भेंट किया गया है- कुरुक्षेत्र ग्रंथ पर‘‘70     
2. ‘‘श्री बेनीपुरीजी के साथ पं. किशोरीदासजी वाजपेयी के पास गया। उन्होंने अखिल भारतीय साहित्यकार परिषद की स्थापना के सम्बंध में बातें की। निश्चय हुआ कि आगामी दिन साहित्यगोष्ठी हो जिसमें प्रस्ताव रखा जाय। केद्र हरद्वार रहेगा।‘‘71
3. ‘‘श्री वाजपेयीजी का व्यक्तित्व इस युग के शिक्षितों को आकृष्ट करेगा? वे तपस्वी हैं। धूर्तता के बिना आजकल सफलता मिलेगी ?‘‘72
4. ‘‘पं0 शांतिप्रिय द्विवेदी काशी से आ गये। रात में रोटी, दही, शक्कर और उपर से बसौंधी बर्फी और मलाई की लस्सी बनारसी दुकान पर। उत्सव में पं. कमलापति त्रिपाठी बहुत प्रभावशाली बोले।‘‘73
     ये सभी उदाहरण 19500 के हैं। इससे ज्ञात होता है कि साहित्य का अखिल भारतीय चौपड़ किस प्रकार का था - आत्मलीन और केन्द्रवादी। सत्ता से घनिष्ठ सम्बंध तथा साहित्य की मुख्य धारा पर पूर्ण नियंत्रण। साहित्य के इन मठाधीशों के कारण स्थानीय सर्जना हाशिये पर चला गया। राजनीतिक स्तर पर भी संताल परगना के साथ ऐसा ही हुआ। अंग्रेज इस क्षेत्र के अस्मिता बोध को मिटाने में असफल रहे थे। मिशनरियाँ इस क्षेत्र में जड़ नहीं जमा सकीं। इसलिए अंग्रजों ने भी इस क्षेत्र को उपेक्षित छोड़ दिया तथा विकास का कोई कार्य नहीं किया। बिजली के खंभे यहाँ सबसे बाद में लगे।74 पंकज गोष्ठी के कार्यक्रम रात में पेट्रोमेक्स जलाकर होते थे। यानी 19550 के बाद तक भी यहाँ बिजलीकरण नहीं हुआ था। रेणु की प्रसिद्ध कहानी पंचलैटका रचना काल यही है। यह कहानी भी इसी ओर इशारा है। जो साहित्यकार अपनी स्थानीयता को बचाते हुए नगरों में जा बसे थे वे तो साहित्य की मुख्यधारा में शामिल हो गये लेकिन जो स्थानीय अस्मिता की लड़ाई हाशिये पर रहकर लड़ते रहे वे सब साहित्य के इतिहास में बहुत पीछे छूट गये - इतना पीछे कि आज उनका नामो- निशान तक खोज पाना दुःसाध्य है। इन प्रश्नों के आगे नवजागरण ही नहीं आधुनिकता की भी कलई खुल जाती है।
            इस राष्ट्रीय परिदृश्य के बाद संताल परगना के स्थानीय साहित्यिक वातावरण की ओर लौटते हैं। जहाँ तक पंकज जी की बात है, तो वे कवि, समालोचक, साहित्यशास्त्री, एकांकीकार, अभिनेता, निर्देशक, शिक्षक तथा संगठनकर्ता एक साथ थे। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान उनकी नाटक मंडली सारठ, खैरबनी, बभनगांवाँ आदि दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में नाट्य मंचन किया करती थी। दुमका प्रवास के दौरान यह क्रम टूट गया किन्तु साहित्य सृजन को आम जनता से जोड़ने का सिलसिला पंकज गोष्ठीकी मार्फत जारी रहा। संताल परगना के अनेक कवियों, लेखकों, पत्रकारों तथा सेवानिवृत्त शिक्षकों ने अपने संस्मरणों में इस आंदोलन के महत्व का आदर के साथ उल्लेख किया है।
            आचार्य पंकज के दोनों काव्य संग्रह उनके जीवन काल में ही प्रकाशित हो गये थे - स्नेह दीप‘ -1958. तथा  उद्गार‘ - 1962. । इन दोनों संग्रहों की कविताओं का रचना काल फिलहाल ज्ञात नहीं है। किन्तु इनकी विषय वस्तु तथा भाषा - शैली को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि इनका रचना काल 1938 से 19540 के बीच तो निश्चित ही है। राष्ट्रभाषा परिषद् पटना द्वारा प्रकाशित साहित्य के इतिवृत्तात्मक इतिहास में इनके द्वारा कल्पनानामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ तथा इसी नाम से एक काव्य संग्रह का पता चलता है। संभवतः ये दोनों पुस्तकें परिषद् के साहित्य इतिहास विभाग में सुरक्षित होंगी क्योंकि विभाग प्रामाणिक सूचना के अभाव में किसी ग्रंथ का उल्लेख नहीं करता है। उनकी आलोचनात्मक कृति के बारे में पंकज जी के कनिष्ठ पुत्र प्रो. अमरनाथ झा ने मुझे सूचित किया कि लगभग 4 लेख उन्होंने एक जिल्द में पढ़े थे। ये सभी अवन्तिकामें प्रकाशित हुए थे जिसके संपादक लक्ष्मीनारायण सुधांशुथे। उन्होंने कठिन काव्य के प्रेत: केशवनामक लेख का उल्लेख किया था। शेष लेखों के बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं हो सकी है। पंकज जी द्वारा लिखित एक प्रहसन हाल ही में प्राप्त हुआ है, जो अमरनाथ जी के पास सुरक्षित है। पंकज गोष्ठीद्वारा प्रकाशित एक काव्य संग्रह अर्पणाउपलब्ध है जिसका प्रकाशन वर्ष स्पष्ट नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि इसका प्रकाशन 1955. के बाद ही हुआ होगा, क्योंकि गोष्ठी का गठन वर्ष भी यही है। इसमें निम्नलिखित कवियों की कविताएँ संकलित हैं - पंकज-1919., परमानंद चौधरी-1919. , कृत्यानंद सिंह-1925. , बलभद्र नारायण सिंह बालेन्दु‘-1937, , उपेन्द्र ठाकुर -1925. , प्रमोद कुमार भदानी-संवत् 1968 , सहदेव प्रसाद पण्डा -1923. और मधुसूदन मधु‘-1940.हिदी साहित्य और बिहारखंड-5 में परमानंद चौधरी तथा कृत्यानंद सिंह का इतिवृत्तात्मक इतिहास मिलता है। उपेक्षा का आलम यह है कि द्विज, सुधांशु तथा पंकज जी से सम्बंधित ब्यौरा भी इसी खंड में प्रकाशित हो सका है।75पंकज गोष्ठीने वातायनशीर्षक से एक एकांकी संकलन 1963-640 में प्रकाशित किया था। इसमें साहित्यकारएकांकी के रचयिता स्वयं पंकज जी हैं। पंकज गोष्ठीकी कितनी बैठकें हुईं, इसका विवरण उपलब्ध नहीं है। उस क्षेत्र के लोग बताते हैं कि गोष्ठी से पूर्व प़ढ़े- लिखे लोगों में हलचल शुरु हो जाती थी। कई लोग पकज जी के प्रयासों पर पलीता लगाने के उद्देश्य से समानांतर कार्यक्रम बना डालते थे। इस गहमागहमी की खबरें पत्र-पत्रिकाओं में छपती रहती थीं। 16 सितंबर 20090 को पंकज जी की पुण्य स्मृति में, दिल्ली में आयोजित एक संगोष्ठी के अवसर पर प्रसिद्ध आलोचक गंगा प्रसाद विमल ने बताया कि बचपन में वे पंकज जी की चर्चा अपनी बहन के घर सुन चुके हैं। यह लेखक उस गोष्ठी में स्वयं मौजूद था। इससे पता चलता है कि एक साहित्यिक कार्यकर्ता के तौर पर उनका कितना नाम था।
पंकज गोष्ठी‘: उपेक्षा की ऐतिहासिक दास्तान
            ‘पंकज गोष्ठीका गठन भले ही सन् 19550 में हुआ हो किन्तु साहित्यिक संगोष्ठियों के माध्यम से वे संताल परगना के नामी-गिरामी साहित्य सेवियों से जुड़े हुए थे। सन् 19540 में दुमका आने के बाद साहित्यिक गतिविधियों में जैसे उफान आ गया। यही कारण है कि एक वर्ष के भीतर ही पंकज गोष्ठीका गठन हो गया।76 इस गठन के पीछे पंकज जी के साहित्यिक व्यक्तित्व का हाथ तो है ही साथ ही उनकी इस इच्छा का भी महत्वपूर्ण योग था कि साहित्य में वादसे परहेज करना चाहिए। यह उनकी व्यक्तिगत सदिच्छा ही नहीं अपितु अन्य सदस्यों की भी थी। सभी इस संकल्प पर कायम भी रहे।
            महज संयोग नहीं कि स्वाधीनता से पहले ही साहित्य में वादोंका दौर आरंभ हो चुका था। प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, नयी कहानी सम्बंधी आंदोलन स्वरूप ले चुके थे। देश में आजादी नहीं आई थी लेकिन साहित्य में सारी क्रान्तियाँ हो चुकी थीं। परतंत्र भारत का स्वतंत्र साहित्य ! पराधीन भारत का कवि जैसे बौद्धिक हो चुका था। शिवपूजन बाबू तो कहते ही थे कि अज्ञेय की कविता उन्हें उलझनदार लगती है। इधर साहित्य से आम जनता की दूरी बढ़ती जा रही थी, उधर बौद्धिक कवि तरह तरह के गठजोड़ करने में जुटे हुए थे। गौरतलब है कि यह सब कुछ बड़े शहरों में हो रहा था। पटना, प्रयाग, काशी तथा दिल्ली इसके केन्द्र बने हुए थे। यह भी संयोग नहीं कि 23 फरवरी 1952 में परिमलजैसी संस्था का संविधान तैयार हुआ था। वैसे इसका  अनौपचारिक गठन 10 दिसंबर 1944 को प्रयाग में हो चुका था। परिमलके सदस्यों की अधिकतम संख्या 90 थी। जौनपुर, बम्बई, मथुरा, पटना तथा कटनी में इसकी शाखाएँ तक खुल चुकी थीं। इसमें संयोजक का बाकायदा चुनाव होता था। हमारे गुरु प्रो. नित्यानंद तिवारी भी इसके संयोजक की भूमिका निभा चुके हैं।77 इसका एक दिलचस्प नियम यह भी था कि इस्तीफा देने के बाद भी सदस्यता खत्म नहीं मानी जाती थी। इसने 400 गोष्ठियाँ आयोजित की होंगी, जिनमें कुछ तो अखिल भारतीय स्तर की थीं। इसमें मुख्यधारा के सभी प्रमुख लेखक भाग ले चुके थे। शर्त केवल इतनी भर थी कि अपनी साहित्यिक सक्रियता से उसने बुद्धिजीवी होने का तमगा हासिल कर लिया है अथवा नहीं। इसका सारा विवरण साहित्य कोश में उपलब्ध है किन्तु पंकज गोष्ठीसे जुड़े किसी कवि का कोई संदर्भ किसी कोश में नहीं मिलता। अत्यंत पिछड़े इलाके में रहने का इतना बड़ा दंड ? ऐसा नहीं कि रेणु, दिनकर, नागार्जुन, शिवपूजन सहाय, जानकी वल्लभ शास्त्री तथा हंसकुमार तिवारी पंकज जी को व्यक्तिगत तौर पर जानते नहीं थे। फिर भी यह क्योंकर हुआ- हमें सोचने पर विवश कर देता है।
            इस संस्था के उपेक्षित रह जाने का एक और प्रमाण मिलता है। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के तृतीय वार्षिकोत्सव में शिवपूजन सहाय को डेढ़ हजार का वयोवृद्ध सम्मानमिला था। पुरस्कार आचार्य नरेन्द्र देव ने दिया था। इस राशि से उन्होंने एक संस्था स्थापित की जिसका नाम था-श्री बच्चन देवी साहित्य गोष्ठी। श्रीमती बच्चन देवी उनकी पत्नी का नाम था। 21अप्रेल 19540 को बाबू शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में इसका उल्लेख किया है।78 मजेदार बात यह है कि इसके कार्यक्रमों के लिए सम्मेलन भवन का ही इस्तेमाल किया जाता था। बड़े शहर में रहने का यही तो लाभ है। 4 जुलाई 19540 को इसकी पहली गोष्ठी हुई। उद्घाटन करने वाले और कोई नहीं राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन थे। मूर्धन्य आलोचक नलिन विलोचन शर्मा ने नियमों-उद्देश्यों का खुलासा किया। वक्तव्य देने वालों की फेहरिस्त देखिए - रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, डॉ. राम खेलावन पाण्डेय तथा आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री आदि। साहित्य आंदोलन के इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने का इससे बेहतर उपाय और क्या हो सकता था?79 इसके अलावा जनवरी 19560 में स्वयं राहुल सांकृत्यायन ने इसमें भाषण दिया था।80 कहने का तात्पर्य यह है कि शिवपूजन जी 19550 में गठित होने वाले पंकज गोष्ठीके बारे में अवश्य ही जानते होंगे। उसके बहुत बाद तक वे डायरी लिखते रहे, किन्तु इस तथ्य को दबा गये।
            ‘पंकज गोष्ठीकी जान बूझकर की गई उपेक्षा का एक और उदाहरण उन्हीं के लेखन में मौजूद है। 1 जून 1955. को शिवपूजन सहाय ने अपनी डायरी में लिखा कि शाम को सम्मेलन कार्यालय में नागार्जुन और डॉ. रामविलास शर्मा आ पॅंहुचे। दही की लस्सी और बनारसी पान से उनका स्वागत-सत्कार किया गया। उस अंतरंग बैठक में जो चिंता प्रकट की गयी उसकी बानगी देखने योग्य है –
1. ‘‘आजकल लेखक और कवि बहुत अधिक हो गये हैं, प्रकाशकों और पत्र-पत्रिकाओं की संख्या कम हो गयी है।‘‘81
2. ‘‘हिंदी संसार की जनता अभी मूढ़ ही अधिक है। जन साधारण में अभी साहित्यिक चेतना नहीं जगी है। लोग साहित्य के सच्चे अनुरागी नहीं हैं। हिंदी के प्रति श्रद्धाभक्ति भी कम है।‘‘82
इससे स्पष्ट हो जाता है कि बड़े नगरों में रहने वाले लेखकों की चिंता उनके शहरों तक ही सीमित थी। हालांकि उनके दावे पूरी मानवता को लेकर ही होते थे। स्थानीय स्तर पर क्या हो रहा है - इससे उनका कोई खास मतलब नहीं था। यदि उनका आशय शहरी जनता से था तो दूर दराज की जनता कितनी मूढ़होगी, आप खुद अनुमान लगा सकते हैं। इसका तात्पर्य यह भी है कि जो लेखक उनसे जुड़े हुए हैं, केवल वही श्रेष्ठ हो सकते हैं। अलग- थलग पड़े लेखकों के साहित्य को ये लोग दिखाउ और बनावटीमानते थे।83
स्थानीय जनता की मूढ़ताको औपचारिक तथा सभ्य भाषा में कुछ और ही कहा जाता है। इस सभ्यता का प्रर्दशन मंच के भाषणों से किया जाता है। सन् 19410 के बिहार प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन के 17 वें अधिवेशन में सभापति के रूप में अभिभाषण करते हुए बाबू शिवपूजन सहाय ने बिहार की साहित्यिक प्रगति और समस्याएंविषय पर विस्तार से प्रकाश डाला था।84 उन्होंने बिहार की तीन साहित्यिक समस्याएं बतायी थीं। उन्हीं के शब्दों में तीसरी समस्या का स्वरूप देखिए -‘‘हमारे सामने तीसरी समस्या संताल भाइयों में हिंदी प्रचार करने की है। मेरी दृष्टि में इसका समाधान केवल द्रव्य से हो सकता है। संताल भाइयों में हिंदी प्रचार करने का उद्योग यथासंभव शीघ्र होना चाहिए। सम्मेलन के सामने सबसे कठिन प्रश्न यही है।‘‘85 यह बात वे तब कह रहे थे जब देवघर में हिंदी विद्यापीठ तथा अन्य साहित्य विद्यालय पहले से ही काम कर रहे थे। द्विज, परमेश, कैरव जैसे विद्वान् गांधी तथा राजेंद्र प्रसाद की प्रेरणा से इस क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। सहाय जी ने स्वयं 19310 में यहाँ के शिक्षकों और छात्रों को सहृदयहिंदी प्रेमी कह कर संबोधित किया था। यहाँ सुधांशु जैसे उभरते हुए प्रखर आलोचक बतौर शिक्षक काम कर रहे थे। हिंदी विद्यापीठ की तो स्थापना ही इस उद्देश्य के लिए हुई थी। सहाय जी आजीवन राजेंद्र बाबू के भक्त और गांधी जी के प्रशंसक बने रहे किंतु उनकी प्रयोगशाला को भूल गये। ऐसा लगता है वे द्रव्यको कुछ अधिक ही महत्व देते थे।
            यही नहीं पूरे भागलपुर डिवीजन के साहित्यकारों के प्रति इन लोगों का दृष्टिकोण उपेक्षापूर्ण था। मसलन अनूप लाल मंडल को ही लीजिए। उस समय मंडल हिंदी कथा साहित्य में हलचल मचाये हुए थे। उस समय उन्हें बिहार का प्रेमचंदकहा जाता था।86 ये वही अनूप लाल मंडल थे जिनके उपन्यास मीमांसापर आधारित एक प्रसिद्ध फिल्म 1940 में बनी थी - बहूरानी87 उनके एक अन्य उपन्यास रक्त और रंगको 19570 में राष्ट्रभाषा परिषद् ने पुरस्कृत भी किया था। ये सभी संताल परगना और आस पास के क्षेत्रों में सक्रिय थे, किंतु शिवपूजन सहाय सहित मुख्यधारा के सभी आलोचकों ने इन्हें उपेक्षित रखा। इनके महती योगदान को कहीं-कहीं पाद टिप्पणियों में ही स्थान मिल सका है। अर्थात् 1941 की समस्या‘ 1955 में मूढ़तामें तब्दील हो जाती है। श्रीमती बच्चन देवी साहित्य गोष्ठीका एक एक ब्यौरा स्थायी महत्व पा जाता है। आज हालत यह है कि इस क्षेत्र के किसी साहित्यकार के साहित्य  का मुख्यधारा में कोई नामो- निशान तक बाकी नहीं है। पंकज गोष्ठीकी तो बात ही छोड़ दीजिए। इसका मतलब भावी पीढ़ियों को यह जतलाना था कि सारे ऐतिहासिक कार्य नगरवासी मुख्यधारा के साहित्यकारों ने ही किये हैं। ये लोग अपने उद्देश्य में सफल भी रहे। एक सजीव आंदोलन कैसे परिदृश्य से गायब हो जाता है - उक्त संदर्भों से परिलक्षित हो जाता है।
            अब हम कुछ सीधे और प्रत्यक्ष प्रमाणों की ओर लौटते हैं। बाबू शिवपूजन सहाय को आचार्य पंकज तथा पंकज गोष्ठीके बारे में सब कुछ ज्ञात था - किन्तु वे हिंदी साहित्य और बिहारनामक परियोजना में इसे दर्ज नहीं करना चाहते थे। 3 सितंबर 1962. में उन्होंने अपनी डायरी में लिखा है – मन चाहता है कि बिहार के साहित्यिक इतिहास के लिए अहर्निश श्रमशील बना रहूँ। मन में हड़बड़ी है कि यह काम कब पूरा होगा। पाँचों खंड निकल जाते तो विश्राम के लिए गाँव चला जाता। संग्रह करने की प्रवृत्ति अभी तक पिंड नहीं छोड़ती।‘’88 इसी तरह 10 मार्च 19610 की डायरी का एक वाक्य है - ‘’रामकृपा होगी तो अगले साल के अंत तक बीसवीं शती तक का इतिहास तैयार कर दूँगा।‘’ इसी तरह का महत्वपूर्ण वाक्य है -‘’उसका भी संशोधन-संपादन करना पड़ेगा‘’89 गौरतलब है कि द्विज, सुधांशु, पंकज आदि का इतिवृत्त इसी पाँचवे खंड में है। यदि वे चाहते तो सुधांशु तथा द्विज जी का इतिवृत्त चौथे खंड में दे सकते थे। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि 1962 में डायरी लिखने तक, उन्होंने सारी सामग्री पर आवश्यक संपादन कार्य नहीं किया। तब तक उन्होंने सारे कवियों के बारे में संक्षिप्त टिप्पणियाँ ही लिखी थीं। परिणाम यह हुआ कि पाँचवे खंड के संपादक मंडल ने उस सामग्री के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की और सारी सामग्री ज्यों की त्यों प्रकाशित कर दी गयी। यह खंड हाल ही में छपा है। खास बात यह भी है कि इसमें प्रकाशन वर्ष का उल्लेख सिरे से गायब है। यहां तक कि परिषद् के आला अधिकारियों ने वक्तव्य के बाद हस्ताक्षर तो किये हैं पर तारीख और वर्ष नदारद है। यह भूल है अथवा संयोग - कौन जाने ?
हिंदी साहित्य और बिहारखंड-5 की विशेषता है कि यहाँ कोई पूर्ण वाक्य नहीं है। उदाहरण के लिए पंकज जी के बारे में लिखा है - ‘’1938 से हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न। भाषण और शिक्षण-कला में दक्ष।‘’89 अत्यंत संक्षिप्त टिप्पणियाँ। संशोधन-संपादन ऐसा कि कुछ ज्यादा दर्ज न हो जाय। इसके संपादक मंडल ने अपने पूर्वजों की इच्छा का कुछ अधिक ही खयाल रखा है। सुधांशु जी से निकट का संपर्क होने के कारण पंकज जी से सम्बंधित सारी जानकारी उनके पास रही होगी। सुधांशु जी अवन्तिकामें पंकज की रचनाएँ छापते रहते थे। यह भी सच है कि पंकज जी के अन्य शिक्षकों -परमेश तथा कैरव जी से सहाय जी का सजीव सम्बंध और संपर्क बना हुआ था। स्वयं सुधांशु जी का इतिवृत्त इसी कोटि का है - पूर्ण वाक्य के बिना। सुधांशु जी ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के गठन का गैर सरकारी प्रस्ताव सदन के पटल पर रखा था। उनकी उपेक्षा का कोई ठोस कारण दिखायी नहीं पड़ता। सहाय जी ऐसे साहित्य संरक्षक थे जो पूरे बिहार के साहित्य का प्रोग्रेस रिपोर्टरखता था। पंकज जी पूरे संताल परगना के जनश्रुति के नायक हो चुके थे, ऐसे में यह कैसे संभव है कि वे ये सब नहीं जानते होंगे ? कहा जाता है कि वे उस संगोष्ठी में जाने से मना कर देते थे जिसमें पंकज जी के निमंत्रित होने की सूचना होती थी। कहा तो यह भी जाता है कि रेणु का रवैया भी कुछ इसी तरह का होता था। हंस कुमार तिवारी के साथ जो कुछ हुआ था, उससे कई साहित्यकार सचेत रहते थे।90 यह अलग बात है कि सदल मिश्र के मुहल्ले के बाशिंदे अक्षयवट मिश्र का जिक्र आते ही सहाय जी का भोजपुरी प्रेम जाग उठता था। तब वे यह बताना भी नहीं भूलते कि मिश्र जी को फुलौरी, तस्मई, मालपुआ, मोहनभोग, ‘वसुमतिनंदनकी खिचड़ी कितनी पसंद थी। वे किसी प्रीतिभोज का निमंत्रण आइटमजानने के बाद ही स्वीकार करते थे।91 सहाय जी को श्रेष्ठ जीवनी तथा संस्मरण लेखक माना जाता है किन्तु संताल परगना के लेखकों पर उनकी कृपा कम ही रही।
            संभवतः उनके अंदर कोई अज्ञात ग्रंथि रही होगी, जिसका भेद हमें मालूम नहीं। इस क्षेत्र के लेखकों के हिस्से कुछ प्रशंसात्मक टिप्पणियाँ ही आ सकी हैं। भैरव झा हो अथवा शिवराम झा, गदाधर मिश्र हो अथवा महादेव लाल सब साहित्य सेवक थे किन्तु बिहार के साहित्यिक इतिहास के भूमिका खंड में इनका अत्यंत संक्षिप्त विवरण ही दर्ज है।92 यह बतलाने का मकसद सिर्फ इतना है कि बिहार के साहित्यिक इतिहास के छठे भाग में वास्तविक विश्लेषण होना था। इस आशय की योजना पहले ही बनायी जा चुकी थी। इसमें बिहार के समस्त साहित्यिक आंदोलनों का मूल्यांकन किया जाना है। जाहिर है इसका आधार होंगे इस इतिहास के उपलब्ध पांचों खंड। जब सामग्री ही अत्यल्प होगी तो कैसा योगदान और कैसा मूल्यांकन। असली बात यही है और दुख भी इसी बात का है। सन् 19500 तक आते आते पंकज जी को इस उपेक्षा का अहसास हो गया था। उनकी ये पंक्तियाँ इसी ओर इशारा हैं -
भले प्रताड़ित हूँ मैं जग से
मन न पराजित होने दूँगा
भले उपेक्षित हूँ जन जन से
भाव न कलुषित होने दूँगा। 93

आचार्य पंकज और उनके स्वनामधन्य गुरुओं की उपेक्षा की परपंरा बहुत पहले ही शुरु हो चुकी थी। उन्हीं में एक थे राजमहल अनुमंडल के प्रसिद्ध गाँव बभनगांवाँ के श्री महेश नारायण (1858 से 1907)। ये भारतेंदु के समकालीन थे। द्विवेदी युग के भी ये महत्वपूर्ण कवि, लेखक और पत्रकार थे। आश्चर्य की बात है कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल सहित तमाम इतिहासकारों ने इनका कोई उल्लेख नहीं किया है। इन्हें राष्ट्रभारती के प्रथम महाकविकी संज्ञा दी जाती है।94 स्वतंत्र बिहार के इतिहास में इनका अविस्मरणीय योगदान है। इन्होंने डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा के साथ मिलकर बिहार को बंगाल से पृथक् करने का आंदोलन चलाया था।95 भारतेंदु की मृत्यु से एक वर्ष पूर्व सन् 1884. में बिहारतथा बिहार टाइम्सजैसे अंग्रेजी पत्र निकाले थे। कहते हैं हिंदी में जितने वाद और अभिव्यंजना पद्धतियां विकसित हुईं उन सबके बीज महेश नारायण के साहित्य में पाये जाते हैं। सन् 1883. में भारतेंदु ने खड़ी बोली में कविता लिखने में असमर्थता प्रकट करते हुए लिखा था -‘’ मैंने आप कई बेरे परिश्रम किया कि खड़ी बोली में कुछ कविता बनाउं पर वह मेरे नित्तानुसार नहीं बनी। इससे यह निश्चित होता है कि ब्रजभाषा में कविता करना उत्तम होता है।‘’96 इसके उत्तर में महेश नारायण ने सिद्ध कर दिया कि यह भाषा काव्य रचना में सक्षम है। निराला को मुक्त छंद कविता रचने का श्रेय दिया जाता है। यह निष्कर्ष पटना, प्रयाग अथवा काशी के आलोचकों का हो सकता है किंतु यह तथ्यतः गलत है। श्री महेश नारायण ने निराला के जन्म से पहले ही मुक्त छंद की कविता रच डाली थी।97 निराला ने खुद माना है कि वे ही मुक्तछंद के प्रवर्तक हैं और 1916. में रचित जूही की कलीइस तरह की पहली रचना है।97 इस मान्यता का आधार यह है कि सन् 1907. में महेश नारायण का स्वर्गवास हो चुका था। निराला का जन्मवर्ष ही 1899. है। अर्थात् महेश नारायण की मृत्यु के समय निराला की आयु मात्र 8 वर्ष थी। महेश नारायण की कविता एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है-
एक कुंज
बहुत गुंज
पेड़ों से घिरा था
झरने की बगल में
बिजली की चमक
न पहुँची थी वहाँ तक।
ऐसा वह घिरा था
जल दीप हो जल में
पानी की टपक
राह भला पावे कहाँ तक।98

भारतेंदु के यहाँ भी इनका कोई उल्लेख नहीं मिलता। ऐसा नहीं है कि पृथक् बिहार के आंदोलन से वे वाकिफ न रहे होंगे। वे तो पूरे यूरोप तक का हाल जानते थे।
                पंकज, पंकज गोष्ठी तथा संताल परगना के  तमाम  पूर्व    तथा तत्कालीन साहित्यकारों की उपेक्षा अब एक स्थापित तथ्य हो चुका है। 1955 ई. में गोष्ठी की स्थापना के बाद से ही इसके विरोधी और प्रतिस्पर्द्धी अपना सिर उठाने लगे थे। पहले तो ये लोग अप्रत्यक्ष रहकर कार्य करते थे। किंतु 1965 तक आते आते स्थितियाँ काफी बदल गईं। पंकज गोष्ठीके कार्यक्रम दूर दराज के गाँवों में भी होते थे। सभी प्रोग्राम रात में गैसबत्ती जलाकर होते थे। इससे उन गाँवों के स्थिर जीवन में कैसा कुतूहल और रोमांच पैदा होता होगा, उसका सांस्कृतिक मूल्य हम आज नहीं आंक सकते। विरोधी पंकज गोष्ठीके कार्यक्रम से पहले ही अपना प्रोग्राम कर आते थे। बाद में इन लोगों ने एक-दो संस्थाओं का निर्माण भी कर लिया। इनमें से एक का नाम था साहित्यकार संघ। सन् 19650 में महेश नारायण शोध संस्थानका गठन हुआ था। इस संस्था ने ही पंकज जी को आचार्यकी उपाधि प्रदान की थी।99 बाद में पता चला कि उपाधि देने वालों ने ही साहित्यकार संघका भी निर्माण किया था। साहित्यकार संघका गठन भी 1965 में ही हुआ था। इन संगठनों के कर्ता धर्ता श्री उमाशंकर थे जिनहोने बाद में संताल संस्कृति पर एक बहुचर्चित पुस्तक लिखी100 उनके लोगों ने पंकज गोष्ठीके कवियों को तोड़कर अपने में मिलाने का भी असफल प्रयास किया था। यह बात पंकज जी के इतिहासकार पुत्र प्रो. अमरनाथ झा ने मुझे बताई और उन्हें ये सूचना पंकज जी के दो अभिन्न मित्रों, दुमका के स्व. शुद्धदेव झा उत्पल जी एवं देवघर के स्व. शंभुनाथ बलियासे मुकुलजी से मिली थीमुकुल जी हाल तक दिल्ली के निकट फरीदाबाद में रह रहे थे। ज्ञातव्य है कि पंकज जी तथा पंकज गोष्ठीके सभी संकलन 1958 से 1964 ई. के बीच ही प्रकाशित हुए थे। 13 फरवरी 1965 में प्रान्तीय साहित्य सम्मेलन, दुमका में सम्पन्न हुआ था, जिसमें ये लोग पंकज जी के साहित्यिक महत्व को प्रत्यक्ष देख चुके थे। संभवतः अप्रत्यक्ष विरोध करने वालों के लिए ही उन्होंने ये पंक्तियाँ लिखी होंगी -

अभी जो  सामने से बंधु  बन आता
औ दिल को खोलकर है प्रीति दिखलाता।
वही तो पीठ पीछे  बंधु  का  घाती
वही  तो पीठ पीछे  मृत्यु-संघाती।

किन्तु  कितनी बेखबर यह हो गयी  दुनिया
कि  इस पर  आज भी  परदा दिये  जाती ।101

इस कविता का शीर्षक ही है बहुत है दर्द होता हृदय में साथी
पंकज जी उज्जवल चरित्र तथा आत्मबल को बहुत महत्व देते थे। उपेक्षा तथा साहित्यिक राजनीति का शिकार होने के बावजूद उन्होंने अपनी काव्यात्मक सहजता को नहीं छोड़ा। महात्मा गांधी तथा राजेन्द्र बाबू के सम्पर्क से मिले स्वाधीनता संग्राम के संस्कारों से ही उनका जीवन संचालित होता रहा। मानवशीर्षक कविता में उन्होंने बड़ी ही सूक्ष्मता और कलात्मकता के साथ इस बोध को व्यक्त किया है-
देवत्व नहीं ललचा सकता
हमको न भूख अंबर की है।
मिट्टी के लघु पुतले हैं हम
मिट्टी से मोह  निरंतर है।
बन गये श्रेय के पंथी हम,
कर प्रेय-निशा में युग यापित
हम मानव हैं जाग्रत जीवित।102

सन् 19340 में महात्मा गांधी को एक स्वयं सेवक के रूप में निकट से देखने का ही प्रभाव था कि उनके गीतों पर कहीं न कहीं उनके सिद्धांतों का असर पड़ा है। संभवतः यह असर किशोरावस्था में ही पड़ चुका था। म्यूनिसपलिटी में सफाई कर्मचारी के लिए आवेदन इसी ओर संकेत है। गांधी के अछूतोद्धार की धारणा का प्रभाव भी उनपर नजर आता है। उनका एक गीत तब काफी प्रसिद्ध हुआ था -
दलित मनुजता  को  अपनाओ
बंधु ! आज यह युग पुकार हो।103

सन् 1960 के आस पास दलितशब्द का गीत में प्रयोग थोड़ा अचंभित करता है। इस शब्द का प्रयोग एक अन्य गीत में भी हुआ है। इसके कारणों को तलाशने के क्रम में हमें यह ज्ञात हुआ कि गांधी अगस्त 1934 तक हरिजन यात्रापर निकले थे। इसी क्रम में वे देवघर गये थे। अनेक स्थानों पर हरिजन सभाएँ भंग की जा रही थीं। उनका चौतरफा विरोघ हो रहा था। यहाँ तक कि पूना में जून माह में उनपर बम से हमला भी किया गया था। संभवतः पंकज जी पर इन बातों का प्रभाव बहुत दिनों तक रहा। उक्त कविता की मूल चेतना का संबंध इसी परिप्रेक्ष्य से है।104  बिहार के हिंदी साहित्य के संरक्षक बाबू शिवपूजन सहाय को अज्ञेय की कविता कम ही समझ आती थी किन्तु इन सहज गीतकारों की रचनाओं को थोड़ा और महत्व तो मिल ही सकता था। वे जन्मजात गीतकार थे। किन्तु छंद का बंधन उनके युग बोध को सीमित नहीं कर सका -
मैं निर्झर का खर स्रोत प्रखर
जो रुकता नहीं कभी पल भर।
मैं  झंझा  का   आवर्तन   हूँ
तूफान  सदा  मुझ में  पलता।
मेरी पवि काया  से  भिड़कर
भूधर   का  अंतर  है जलता।
हिल उठे  धराडोले  अंबर
मैं  वह  निष्ठुर  परिवर्तन  हूँ।105

निष्कर्ष:
पंकज गोष्ठीएक काव्यात्मक आंदोलन के रूप में अब तक अपरिचित तथा उपेक्षित रहा है। ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकजके सभापतित्व में यह आंदोलन 1955 दुमका में उभरा और संताल परगना के दूर दराज के क्षेत्रों में फैल गया। इसका आधार वैचारिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक था। इसकी पृष्ठभूमि 1934-1935. में हिंदी विद्यापीठ देवघर में स्वाधीनता आंदोलन के दौरान तैयार हुई थी। स्वाधीनता तथा नवजागरण की चेतना ने इस काव्यांदोलन को संस्कारित किया। आचार्य पंकज के नेतृत्व में इस काव्यांदोलन के कवियों ने काव्य-सर्जना को जन-जन तक पहुँचाया। स्वाधीनता से पूर्व नाट्य मंचन तथा उसके उपरांत कविता को इसने अपना माध्यम बनाया। इसके कार्यक्रम ग्रामीण क्षेत्रों में रात को आयोजित किये जाते थे। अनेक युवा कवियों को इसने मंच प्रदान किया। पंकज गोष्ठीकी लोकप्रियता से प्रभावित कई अन्य संस्थाएँ भी इस क्षेत्र में अस्तित्व में आ गई थीं। मुख्यधारा के साहित्यकारों ने इस आंदोलन को जानते-बूझते हुए भी नजरअंदाज किया। इससे संबद्ध कवियों का संक्षिप्त इतिवृत्त तो कहीं-कहीं छिटपुट मिल जाता है किंतु इस आंदोलन का कोई संदर्भ नहीं मिलता। यही कारण है कि साहित्य की मुख्यधारा में संताल परगना क्षेत्र का कोई साहित्यकार दिखायी नहीं पड़ता। यदि राष्ट्रीय साहित्य में स्थानीयता का अभाव है तो इसकी वजह यह उपेक्षा ही है। स्थानीय अस्मिताओं की उपेक्षा से आज नगर कविता के उत्पादन केंद्र बन गये हैं और सामान्य मनुष्य का कविता से अलगाव निरंतर बढ़ता जा रहा है। यदि आज अनूप लाल मंडल तथा महेश नारायण के योगदान का उल्लेख साहित्येतिहास की किसी पुस्तक में नहीं मिलता तो इसे उपेक्षा का जघन्य उदाहरण ही माना जायेगा।    
                               









संदर्भ:-
1,4,5,8 -बिहार का इतिहास, शिवपूजन रचनावली-1, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् पटना, 1968, पृष्ठ-83, 90, 95, 97
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9 –दुबे, श्यामाचरण, मानव और संस्कृति, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1993, पृष्ठ- 226, 229
9- थापर, रोमिला, भारत का इतिहास, राजकमल पकाशन, दिल्ली, 1975, पृष्ठ- 49
10 –झा, प्रो. अमरनाथ संपा., संताल परगना का इतिहास लिखा जाना बाकी है, अप्रकाशितपृष्ठ- 93
60 -वही, पृष्ठ- 96
50 -वही, पृष्ठ- 36
50,76 -वही, मिश्र, विजयशंकर, पृष्ठ- 52,53
50, 50, 50, 52, 57, 90 -वही, नित्यानंद, पृष्ठ- 20, 30, 29, 26, 22
51 -वही, आरत भुजेन्द्र, पृष्ठ- 8
11 - Jha, Amarnath, Proceedings of Indian History Congress, 70th session, 2009-2010, New Delhi, page- 192
12 –मधु, डॉ. मधुसूदन, प्रभात खबर, देवघर संस्करण, 2जुलाई 2005
13, 99 –समीर, डॉ.डोमन साहू, अपूर्व्या मासिक, दुमका, अक्टूबर 1996
14, 15, 49 –मिश्र, सत्यधन, प्रभात खबर, दैनिक, देवघर संस्करण, 2जुलाई 2005
16, 96 -भारतेन्दु समग्र, संपादक- शर्मा हेमंत, प्रचारक ग्रंथावली, वाराणसी, पृष्ठ- 1043, 1049
17, 18, 30, 35, 36, 38, 39, 40, 92 -हिंदी साहित्य और बिहार-4, संपादक- वर्मा, डॉ.बजरंग व शर्मा कामेश्वर, राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1984, पृष्ठ-भूमिका-द, 317, 317, 248-249, प्रस्तावना- ड़, च-ट, 93, 94, 96, भूमिका-द
19, 22, 23, 24, 86, 87, 94, 95, 97, 98 -हिंदी साहित्य और बिहार-3, संपादक- तिवारी हंस कुमार, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1976, पृष्ठ- 174-175, 175, 175, 34, भूमिका-छ, 7, 366, 366, 366, 367
20, 41, 43, 53, 54, 55, 59, 61, 75, 89 -हिंदी साहित्य और बिहार-5, संपादक-सिंह, प्रो.रामबुझावन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, प्रथम संस्करण, पृष्ठ- 202, 380, 172, 397, 371, 371, 202, 203, 87, 261, 203, 411
21, 63, 64, 65 -निराला रचनावली-6, संपादक-नवल नंद किशोर, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, 1983, पृष्ठ- 532, 439, 229, 483
25, 26, 27, 28, 32, 33, 37, 44, 45, 46, 47, 48, 58, 91 -शिवपूजन रचनावली-4, सहाय शिवपूजन, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, 1959, पृष्ठ- 295, 295, 298, 295, 295-298, 295-297, 616, 94-95, 95, 95, 614, 402, 298
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56, 74 - Kumar, Dr. Subodh,The Social, Political Processes And The Economic Development of Bihar, Manak Publication, Delhi, 2009, Page- 70-82
62, 70, 71, 72, 73, 78, 79, 80, 81, 82, 83, 88, 89 -सिंह नामवर सं., हिंदी नवजागरण के अग्रदूत: शिव पूजन सहाय, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली, 1996, पृष्ठ- 188, 188, 188, 189, 203, 205, 204-205, 205, 204, 230, 230-231
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