शनिवार, 24 नवंबर 2018

2122 1212 22
मुद्दतों बाद भी करार नहीं
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मुद्दतों बाद भी करार नहीं
अब कहें कैसे उनसे प्यार नहीं
लाख चुभते रहे मगर हमने
फूल समझा है ग़म को ख़ार नहीं
आशिक़ी का नशा चढ़ा यूँ है
जिसका उतरा कभी ख़ुमार नहीं
दिल ने चाहा रक़ीब को ही अब
मेरा खुद पर ही इख़्तियार नहीं
रहबरी लूट को नहीं कहते
तेरे ऊपर है ऐतबार नहीं
झूठ का तू उड़ा रहा परचम
मुल्क़ को तेरा इंतज़ार नहीं
धुन्ध फैली हुई अभी तक है
ज़िंदगी में 'अमर' बहार नहीं

बुधवार, 21 नवंबर 2018

जिन्दादिली से मिल हमेशा
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जिन्दादिली से मिल हमेशा आस अपनी छोड़ मत
गाता रहे तू नज़्म यूँ ही प्रेम बंधन तोड़ मत
कुछ तो कहेंगे दिलजले अक्सर ही तेरा नाम ले
दिखती नहीं गर रोशनी दिल तीरगी से जोड़ मत
शाम-ओ-सहर ख्वाबों में तू आ फिर लिपटकर दिल मिला
यारी तेरी गर खार से घट बेकली का फोड़ मत
बरसों बरस मैं भी उड़ा फ़िर आसमाँ से जब गिरा
थामा मुझे था गर्दिशों ने बेबसी को कोड़ मत
कुछ कह रही बहती नदी जो गीत गाती बढ़ रही
मत बाँध उसकी धार को उसकी दिशा को मोड़ मत
मशगूल सब खुद में यहाँ मसरूफ़ केवल एक तू
जो मुल्क के हालात हैं उनसे 'अमर' मुँह मोड़ मत
------ अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
कब तलक तुम
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कब तलक तुम नाज़नीनों की अद़ाओं को लिखोगे
सिर्फ़ उल्फ़त और ग़म की ही कथाओं को लिखोगे
आज के हालात क्या तुमको नहीं कुछ कह रहे हैं
शायरी में कब हमारी इन सदाओं को लिखोगे
लग रहे मेले अदब के नाम पर हैं रोज लेकिन
कब बिलखते नौजवाँ की भावनाओं को लिखोगे
गेसुओं की छाँव छोड़ो, चीख भी सुन भूख की अब
कब सड़क पर तोड़ती दम कामनाओं को लिखोगे
मुल्क का ले नाम जो फैला रहे हैं नफ़रतों को
कब 'अमर' उन दुश्मनों की योजनाओं को लिखोगे
------- अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
टूटे परों परिंदे
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टूटे परों परिन्दे उड़ते वहाँ दिखे जब
सरहद के पार दुश्मन भी टूटने लगे तब
इक वाकया अज़ब सा दिल में बसा हुआ है
कटकर वहाँ धड़ों में चलते हुए मिले सब।
फूलों पे लग रहा था हर तीर का निशाना
बौछार तीर की हम कैसे भुला सकें अब।
भूला नहीं कहानी कौरव सभा की कोई
जब चीर हर रहे थे सबके सिले रहे लब।
करते शुरू नया जब कोई सितम अनूठा
पैग़ाम भेजते हैँ वो नित नये-नये तब।
बातेँ सभी करें अब दिन-रात दीन की ही
दीनो-धरम ‘अमर’ है मतलब अगर सधे जब।
------- अमर पंकज
डर के डराने का हुनर
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डर के डराने का हुनर सीखा कहाँ
हँस के रुलाने का हुनर सीखा कहाँ
रोते हुए हँसने अचानक वो लगे
रो कर हँसाने का हुनर सीखा कहाँ
बिछते रहे हैं लोग राहों में तेरे
पागल बनाने का हुनर सीखा कहाँ
झूठे तेरे वादे मगर सच क्यों लगे
सच को छिपाने का हुनर सीखा कहाँ
बदले हुए दिखते सभी चहरे यहाँ
दिल यूँ दुखाने का हुनर सीखा कहाँ
कैसे बजाते हो बाँसुरी चैन की
दुनिया भुलाने का हुनर सीखा कहाँ
महबूब की बातें अनूठी हैं 'अमर'
जी भर सताने का हुनर सीखा कहाँ
:अमर पंकज
(डाॅ अमरनाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
जो होता है मजबूर इंसान कोई
बसाता वो दिल में है भगवान कोई
समंदर, मैं बेचैन तेरी तरह हूँ
उठा चाहता दिल मेँ तूफ़ान कोई
कसक सी उठी है पड़ी जब नज़र तो
पुराना जैसे जागा हो अरमान कोई
ज़मीं पर सितारों को अब मैं उतारूँ
मचलता है दिल जैसे नादान कोई
जपा है किया नाम महबूब का ही
न दीदार उनका न इमकान कोई
समय ही कराता रहा है सभी कुछ
समय से ज़ियादा न बलवान कोई
'अमर' घाव दे बेवजह जो किसी को
न होता बड़ा उससे शैतान कोई
---- अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
(20.11.2018)
रहमतों की आस में
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रहमतों की आस में तुमने गुज़ारी ज़िंदगी
पासबाँ की लूट में हमने गुज़ारी ज़िंदगी
हर तरफ़ फैली हुई है नफ़रतों की आग क्यों
झूठ पर विश्वास कर सबने गुज़ारी ज़िंदगी
चुप रहे सहते गए जब वो क़हर ढाते रहे
जख़्म खा बेख़ौफ़ हो किसने गुज़ारी ज़िंदगी
चुप्पियों की भी सदाएँ गूँज़तीं हर सिम्त हैं
इसलिए खामोश रह मैंने गुजारी ज़िंदगी
ज़ह्र जो पीते रहे बनता रहा अमरत 'अमर'
मुख़्तलिफ़ अंदाज में तूने गुज़ारी ज़िंदगी
-------- अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621