बुधवार, 13 सितंबर 2017

ये है साझी विरासत अपनी

  

ये है साझी विरासत अपनी

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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय

ये है साझी विरासत अपनी फिक्र में जिस्म हम गलाते रहे
वो हँसते रहे बेफिक्र क्या हुआ जो आपको हम रूलाते रहे।
कोई दिल के करीब था न था क्या बताऐँ ये राज तुमको
मगर शिद्दत से मिलकर उसको यूँ हर बार हम बचाते रहे।
जमीं से आसमां तलक थी फतह की गूँज कुछ ऐसी फैली
गर्दो-गुबार की फिर चली आँधी चश्मे-तर हम छिपाते रहे।
है आसां नहीं तेरे भी लिए जज्ब करना वो मजबूर सी हँसी
सबको है पता अस्मत खुद की ही रोज-रोज हम लुटाते रहे।
हर बार छलकता ही रहा जो सब्र का पैमाना ऐ नूरे-हयात
पूछिए दिल से कि क्यों हर हाल आपको ही हम मनाते रहे।
मुर्दों को सुकूँ वहाँ भी ना था जमीं-आसमां मिले थे जहाँ
बेखौफ "अमर" खूँ के छींटे तेरे निजाम में सब उड़ाते रहे।

रविवार, 3 सितंबर 2017

एक इंच धरती स्वदेश की हम न छोड़ने वाले हैं

एक इंच धरती स्वदेश की हम न छोड़ने वाले हैं
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(प्रो ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज)
एक इंच धरती स्वदेश की हम न छोड़ने वाले हैं ।
आग उगलती तोपों से हम मुँह न मोड़ने वाले हैं ।।
हम हैं वीर भरत के वंशज, हम में प्रताप का पानी है।
कोटि चवालिश एक-एक हम शेर शिवा अभिमानी हैं ।।
कुँवर सिंह की अमिट निशानी आज हमें ललकार रही है ।
मर्दानी झाँसी की रानी कब से हमें पुकार रही है।।
वृद्ध हिमालय क्रुद्द कण्ठ से बार-बार हुँकार रहा है ।
क्षुब्ध सिंधु बन काल भुजंगम शत-शत फन फुत्कार रहा है ।।
आज शांति के अग्रदूत का सौम्य वदन अंगार हुआ है ।
भारत का बच्चा-बच्चा तक आज शत्रु हित काल हुआ है ।।
सावधान अविवेकी, तेरी नीति न चलने वाली है ।
राम-कृष्ण की भू पर तेरी दाल न गलने वाली है ।।
'हिमालय बोल रहा है' (काव्य संकलन,1963) से साभार। संग्राहक -- एस डब्लू सिन्हा (तत्कालीन जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी, दुमका)। प्रकाशक -- जिला जनसम्पर्क विभाग, दुमका।

कातिल तेरी अदाएँ

कातिल तेरी अदाएँ
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
कातिल तेरी अदाएँ शातिर तिरा मुस्कुराना
पहलू में छिपा खंजर दिल से दिल मिलाना।
मिजाज कुछ शहर का कुछ असर तुम्हारा
खुशी मिली मुझे भी के मौजूं मेरा फसाना।
फितरत तेरी समझकर सभी हँस रहे अब
मिलकर तेरा हमीं से यूँ हाले-दिल सुनाना।
सबको खबर हुई मुश्किल में आज तुम भी
फिर करीब आने का खोजते नया बहाना।
कदमों में बिछ गए पड़ी जब तुम्हें जरूरत
मेरा जो वक्त बदला रकीबों के पास जाना।
खुदा की ईनायत 'अमर' ईमान तेरा गवाह
जख्म भरे तो नहीं पर गैरों को मत रुलाना।

इक ठहरी हुई सर्द शाम

इक ठहरी हुई सर्द शाम
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
इस गुलाबी शहर की थी वो इक ठहरी हुई सर्द शाम
दिल की पाती से जुड़ा था शबनम सा तेरा नाम।
थम सा गया था वक्त यारो ये रुत भी मुस्कुराने लगी
खनककर चूडियाँ दे रहीं थीं प्यार का पैगाम।
अधमुंदी पलकों की होगी अलसाई भोर से मुलाकात
जज्बाती खयालों ने कस ली अश्कों की लगाम।
जिन्दगी ले चुकी थी करवटें पर पतंगा मिटता ही रहा
इश्क में ता-उम्र शम्मा धू-धू जलती रही गुमनाम।
कैसे निकाले बूँद मकरंद की बिखरे हुए परागों से कोई
मोहब्बत फसाना बन धुआँ होती रही सरे आम।
मिटा न सकी गर्द गुजरे जमाने की 'अमर' बहकती यादें
लटकते गजरों को महकती साँसों का ये सलाम।

अनर्गल प्रलाप

अनर्गल प्रलाप
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नेता बनने के लिए नौटंकी करना सीखो
अभिनय जितना अच्छा कर लोगे
नेता उतना ही ऊँचा बन लोगे
वृथा ना होने जाए ये कथन
है यही आज का ब्रह्मज्ञान।
नौटंकी अगर कर सकते नहीं
तो तुम नेता भी बन सकते नहीं।
देश के हर मर्ज का इलाज
मात्र थोथा आश्वासन है
भ्रष्टाचार का कबाड़ बेचने वाला कबाड़ी
संसद-विधान सभाओं में
लत-घूंसे का करतब दिखने वाला खिलाड़ी
सच-झूठ के घालमेल में प्रवीण
यूनियनों पर कब्जा करने वाला जुगाड़ी
आज के समाज का पुरौधा है
वह बहुत बड़ा अभिनेता है
वही हमारा-आपका चहेता नेता है।
छात्र-आंदोलनों और जनांदोलनों पर सवार होकर
अपनी राजनीति चमकने के लिए
क्रांति का मसीहा
खुद को कहलवाने के लिए
बीच अधर में ही
आंदोलनों की लुटिया डुबोकर
मक्कारी से आंदोलनों को
सिद्धि-प्रसिद्धि का
राजपथ बनाने के लिए
दारू की बोतल सुंघाकर
उन्मादी चीत्कार करने वाले
परमवीर चाटुकारों-दलालों की फौज से
लोगों का सबसे बड़ा हमदर्द
घोषित करवाने के लिए
जो अहर्निश चौकन्ना रहता है
तिकड़म भिड़ाने की जुगाड़बाजी करता है
वह बैठे-बिठाए नेता बन जाता है ।
मत भूलना
झूठ-मूठ ही सही
जोर-जोर से रोज-रोज
खुद को जो जनता का
खैरख्वाह घोषित करवाता है
आजकल वही सबल-समर्थ
नेता कहलाता है ।
हमेशा टेढ़ा खड़ा होकर
शुद्ध ठेठ गंवई-बोली की डुगडुगी बजाकर
दायें हाथ से माइक को कस कर पकड़े हुए
बायाँ हाथ हवा में लहराकर
लुभावना भाषण देकर
सरे-आम
सड़कों-चौराहों पर
गलियों में मुहल्लों को
हाट-बाजार बनाकर
जनता की जमीन पर
कृपापात्रों का कब्जा कराकर
शातिर मदारी की तरह
तुम करतब नहीं दिखला सकते
तो फिर तुम
जनप्रतिनिधि कैसे कहला सकते?
कैसे नेता बन सकते?
सौ फीसदी झूठ
हजार गुना चालाकी
नेता के जन्मजात गुण कहलाते हैं
गुंडों की फौज रखना
और
लड़कियों की अस्मत लूटने वाले
कुल-दीपकों को
जेल-यात्रा से बचाना
भक्ति में आकण्ठ निमग्न चेलों से
राजनीति के मैदान में
अभेद्य किलेबंदी करवाना
नेतागिरी के विशिष्ट गुर माने जाते हैं
इन गुणों की खान वाले ही
नेता स्वीकारे जाते हैं।
मासूम बच्चों के हत्यारों को
क्लीनचिट देने के लिए
विज्ञापनों की खैरात बांटकर
जाँच समिति बिठाकर
फिर पूर्व-निर्धारित रपट
अखबारों के मुखपृष्ठों पर
मोटे अक्षरों में छपवाकर
मसखरे पत्रकारों
विदूषक विश्लेषकों
कलियुगी चिन्तकों
और
चारणों-गवैयों से
जो प्रायोजित चर्चे कराए जाते हैं
उन्हें ही
आज की राजनीति के खेल के
अपरिहार्य नियम बतलाए जाते हैं।
सबकुछ जानते-सुनते भी
भक्तों की टोलियाँ
आपको-हमको
नित-नवीन भक्तिमय पाठ
छड़ी दिखाकर पढ़ाते रहती है
और फिर बेशर्म-रौब से
अपने साहबों की नेतागिरी
भक्ति की गंगा में डुबकी लगा
चमकाती चली जाती हैं
नव-भक्तों की ये नवीन फौज
रावणों को भी
आज के दौर में
राम के ही अवतार
घोषित करती-करवाती हैं।
मुद्दों की क्या बात करते हैं आप
आर्थिक-उन्नति
सामाजिक-क्रांति
सांस्कृतिक स्मृति
या विस्मृति(?)
जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की खोज में
राष्ट्रवाद की चमचमाती पैकेजिंग के
लुभावने मोहक आवरण में
नवीन अनुसंधान
नव्य-इतिहास का निर्माण
भक्ति-रस से सराबोर
नव्य-इतिहास के
दिव्य-ज्ञान का अभियान ही तो आज के मुद्दे हैं
मुद्दे क्या कम हैं?
भूलिए मत
राष्ट्रीय तापमान अभी गर्म है।
मजा आ रहा है तो
तालियाँ भी बजाना कदरदानों
आप ही तो हो
हमारे जैसों के मेरबान
आपकी तालियों की गड़गड़ाहट ही तो
हमें अदाकार-कलाकार
फनकार-शिल्पकर
रचनाकर-सलाहकार
बेकारी की भी परवाह ना करने वाला
प्रतिबद्ध चाटुकार
लठैत भक्त-सिपाही
राजनीति के राजमार्ग का
गर्वित राही बनाती है
नेटवर्किंग की बुद्धि
और चापलूसी की मेधा के
गूढ़ फलितार्थ-निहितार्थ समझाकर
पुरस्कारों के तमगे झटककर
अदा से सिर नवा-नवाकर
सबको बेवकूफ बनाने की
आजमाई रणनीति का
गुह्य मार्ग
सलीके से
दिखलाती-सिखलाती है।
अजी छोड़ो भी
आप क्या पहचानोगे मुझे
हम कभी नेता हैं
तो कभी
हमीं अभिनेता हैं
हम ही कलाकार हैं
फिर हमीं रचनाकर हैं
चारणों और भांड़ों की फौज से
हर लफ्ज पर
ताली पिटवाकर
राजनीति से लेकर
शिक्षा-साहित्य संस्कृति
और कला-संसार के
हमीं तो झंडाबरदार हैं।
गिरगिट की तरह
रंग बदलकर
हवा का रुख भाँपकर
चलने की बेशर्मी
हमारे न्यूनतम आडंबर हैं
जबर्दस्ती लूटे गये मंचों पर
अकड़कर विराजमान होकर
चवन्नी मुस्कुराहट बिखेर
गीड़दभपकी की दहाड़ लगाकर
जो तिलिस्म हम फैलाते हैं
वही तो हमारे
बेशकीमती आकर्षण
माने जाते हैं।
मैं लेखक और कवि भी हूँ
पहचानते ही नहीं आप
पोएटिक फ्रॉड की बात क्या करते हो
यहाँ तो मैं
पूरा का पूरा फ्रॉड हूँ
लफ्फाज के साथ साथ
चिपकू कलम-घिस्सू
लिक्खाड़ हूँ
जानते ही नहीं आप।
गहन संवेदनाओं की
भावनात्मक अभिव्यक्ति मात्र
कविता कैसे बन सकती है?
अगर उलटबानी न करो
बात का बतंगड़ न बनाओ
तो कविता कैसे लह सकती है?
शब्दाडंबरों के ताने-बाने में
चटकारे की चासनी न भरो
तो कविता कैसे कुछ कह सकती है
सिर्फ तीव्र संवेदनाओं
और तरल भावनाओं के संग
कविता कैसे बह सकती है?
कविता लिखने के लिए
कवि कहलाने के लिए
आकर मुझसे गुर सीखो
फिर जो मर्जी हो लिखो।
अक्कड लिखो
बक्कड लिखो
चाहे लाल बुझक्कड लिखो
चित्र लिखो
विचित्र लिखो
या फिर क्यों न कुचित्र लिखो
आड़े लिखो
तिरछे लिखो
पर ना लिखो कभी नहीं सपाट
पाठक या श्रोता की
रसानुभूति के
बंद कर दो सारे कपाट ।
पहले शब्दजाल बिछाओ
सबको बारंबार लुभाओ
शब्द-शब्द पर फिर भरमाओ
एक सौ अस्सी डिग्री पर
दाएँ-बाएँ खूब घुमाओ
यकीनन तभी तुम बन सकते
आज का महान कलाकार
सबकी नजरों में आ सकते
कहलवा सकते खुद को
एक सधा हुआ अदाकार
कवि और कलाकार ।
ऐसा सधा हुआ कवि ही
क्रांतिकारी है
कुछ भी लिखता छप जाता वह
उसकी ही कविता युगान्तकारी है।
भई बिना मूड बनाए ही
मूड में था आज मैं
बहुत सुना-सीखा दिया सबको
बिना भंग के ही
नशा चढ़ गया था
इसीलिए गूढ़ रहस्य
बता दिया सबको।
नेतागिरी चाहे
राजनीति की हो
या साहित्य-संस्कृति की
बिना दारू की बोतल खोले
सखियों की कनखियाँ बिन टटोले
कभी कर नहीं पाओगे
कुछ भी नहीं बन पाओगे
नेता बनने की तो छोड़ो
कवि भी ना कहलाओगे।
मेरी बातों को हालाते-हिंदोस्तान का
विधवा-विलाप ना समझना
असफल क्रांति के दिवास्वप्न का
अनर्गल-प्रलाप ना सम्झना
कहे देता हूँ
हाँ !!!!!!!!!!!

जिंदगी के क्या कहिए

जिन्दगी के क्या कहिए
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
टुकड़ों में बँटती रोज लुटती हुई जिन्दगी के क्या कहिए
सच को सौदा बना रहे हैं जहाँ ऐसे डेरों के क्या कहिए।
शिद्दत से तो पूछे कोई उनसे हुई इस शोहरत का राज
मचल उठे हैं दिल बहके से इस अंदाज के क्या कहिए।
हैरान थे सब देखकर काफिले की शानो-शौकत का रंग
मुंसिफ ने जों सुनाया हुक्म उसकी रंगत के क्या कहिए।
खुदा से कमतर क्यों समझे जों पास हो दरिन्दों की फौज
मासूमों पे कहर बरपाते शैतानों की नीयत के क्या कहिए।
फरिश्ता कहते हो उसको जो करता इन्सानियत का खून
धरम की धज्जियाँ उड़ाते हैं उन हुक्मरानों के क्या कहिए।
बिरहमन को गालियां इस रस्मी-रिवाज से क्या होगा 'अमर'
सजदा करें चौखट पे हाकिम हालाते-मुल्क के क्या कहिए।

धरम का धंधा है फिर ऊफान पर

धरम का धंधा है फिर ऊफान पर
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अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
धरम का धंधा है फिर ऊफान पर खूब बिकते देखा है
शुक्रिया भक्तो राक्षसों को भी भगवान बनते देखा है।
वक्त का फैसला भला कौन टाल सका आज तलक
पुजारियों की औलाद को भी दरबान बनते देखा है।
प्यार की बगिया भी क्यों अब मैदाने-जंग बनने लगी
फूलों को अपने आँगन में ही धू-धूकर जलते देखा है।
इंकलाब की कश्ती पर चढ़के जो हुक्मरान बन गए
सरे आम उनको जातियों का सरदार बनते देखा है।
शोर ही सफलता का आज है पैमाना बन गया मगर
अंगार बन दहकते थे जो उनको धुआँ बनते देखा है।
अँधेरों को चीरकर जो जहां रौशन करते रहे 'अमर'
सच के लिए उनको मीरा वो सुकरात बनते देखा है।