शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

क्या है अच्छा और क्या अच्छा नहीं कैसे कहें


क्या है अच्छा और क्या अच्छा नहीं कैसे कहें,
है यहाँ पर कोई भी सच्चा नहीं कैसे कहें।

हम ग़ज़ल हिन्दी में कहते चढ़ सके जो हर जुबां,
अब दिलों में घर बने इच्छा नहीं कैसे कहें।

दोस्त समझा और हमने भी भरोसा कर लिया,
दोस्ती में भी मिला गच्चा नहीं कैसे कहें।

तेज़ सी आवाज़ है और तल्ख़ से अल्फाज़ भी,
उनको अच्छी ही मिली शिक्षा नहीं कैसे कहें।

दाद दी हर शेर पर उसने हमें दिल भी दिया,
वह अभी मासूम सा बच्चा नहीं कैसे कहें।

क्यों गुज़ारिश पर गुज़ारिश आपसे अब भी करें,
आपने जो भी दिया भिक्षा नहीं कैसे कहें।

दो क़दम आगे बढ़ा पीछे हटा तू सौ क़दम,
प्यार में तू है 'अमर' कच्चा नहीं कैसे कहें।

कारवां लेकर चला था लोग अब थोड़े हुए


कारवां लेकर चला था लोग अब थोड़े हुए,
चल रहा हूँ मैं मगर हैं दोस्त मुँह मोड़े हुए।

सब यही कहते मिले है रास्ता सच का कठिन,
पर चला जब राह सच की दूर सब रोड़े हुए।

मान लूँ कैसे कि उनको है मुहब्बत ख़ुद से भी,
ख़ून से लथपथ है चहरा ख़ुद ही सर फोड़े हुए।

तुम दुखी थे मैं दुखी था इसलिये थे साथ हम,
दिल भरा तो साथ छूटा दुख ही था जोड़े हुए।

साथ की ख़्वाहिश नहीं अब दूर मैं हूँ जा चुका,
मुद्दतें बीतीं 'अमर' सब ख़्वाहिशें तोड़े हुए।

भीड़ में शामिल कभी होता नहीं हूँ


भीड़ में शामिल कभी होता नहीं हूँ, 
बोझ नारों का कभी ढोता नहीं हूँ।

रात को मैं दिन कहूँ सच जानकर भी,
क्यों कहूँ मैं? पालतू तोता नहीं हूँ।

मुल्क़ की बर्बादियों को लिख रहा जो,  
मैं ही शाइर आज इकलौता नहीं हूँ।

झेलता हूँ हर सितम भी इसलिए मैं,
हूँ ग़ज़लगो धैर्य मैं खोता नहीं हूँ।

क्यों अचानक प्यार वह दिखला रहा है? 
हो न कोई हादसा, सोता नहीं हूँ।

हाथ मोती लग न पाया सच तो है यह,
मैं लगाता डूबकर गोता नहीं हूँ।

ये कमाई उम्र भर की है कि काँटे, 
मैं किसी की राह में बोता नहीं हूँ।

ज़ुल्म से डर कर 'अमर' पीछे हटूँ क्यों,
मौत को भी देखकर रोता नहीं हूँ।

सपना दिन में देखा, टूटा



सपना दिन में देखा, टूटा,
रहबर ने ही सबको लूटा।

कैसे कहें अफ़रा तफ़री में,
किसने किसको कितना कूटा।

अक्सर करता बात बड़ी जो,  
होता है वह कद का बूटा।

दुनिया दारी समझी मैंने,
साथ तुम्हारा जबसे छूटा।

आज 'अमर' तुम बदले से हो,
पिघला पत्थर, झरना फूटा।

कुछ मस्तियाँ कुछ तल्ख़ियतयाँ जाने-ज़िगर ये इश्क़ है

ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

कुछ मस्तियाँ कुछ तल्ख़ियाँ जाने-जिगर ये इश्क़ है,
कुछ फ़ासले कुछ दर्मियाँ जाने जिगर ये इश्क़ है।

परवाह साहिल की करें क्यों आज जब फिर लह्र से, 
टकरा रहीं हैं कश्तियाँ जाने जिगर ये इश्क़ है।

है आग पानी में लगी फ़ैली ख़बर जब हर तरफ़,
बनने लगीं हैं सुर्खियाँ जाने जिगर ये इश्क़ है।

नज़दीकियाँ जबसे बढीं हैं दोस्ती के नाम पर, 
दिल में चलीं हैं बर्छियाँ जाने जिगर ये इश्क़ है।

है ये जुनूँ की आग मत दो तुम हवा, इस आग में 
जलकर मिटीं हैं हस्तियाँ जाने जिगर ये इश्क़ है।

करने चला था फ़तह दिल शमशीर लेकर शाह जब
उजड़ीं कईं थीं बस्तियाँ जाने जिगर ये इश्क़ है।

मंदिर 'अमर' यह प्रेम का है भीड़ भक्तों की यहाँ,
सबने लगायी अर्ज़ियाँ जाने ज़िगर ये इश्क़ है।

मौत भी हो सामने तो मुस्कुराना चाहिए

ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

मौत भी हो सामने तो मुस्कुराना चाहिए,
हाँ, नहीं क़ातिल के आगे सर झुकाना चाहिए।

प्यार के बाज़ार में किस भाव से दिल बिक रहा,
प्यार की क़ीमत चुकाकर आज़माना चाहिए।

फूल-काँटे हर डगर तुमको मिलेंगे सच यही,
चूमकर कांटों को आगे बढ़ते जाना चाहिए।

सिर्फ़ बातों से नहीं है भूख मिटती पेट की,
काम जो करता नहीं वापिस बुलाना चाहिए।

कुछ उसे आए न आए उसने सीखा ये हुनर,
महफ़िलों में आगे बढ़ चहरा दिखाना चाहिए।

आजकल के दौर का कैसा चलन तू ही बता, 
दोस्ती को क्या अदद सीढ़ी बनाना चाहिए।

जिस दिशा जाना तुम्हें उसकी 'अमर' पहचानकर,
पथ सही पहचानकर ही पग बढ़ाना चाहिए।

ख़ौफ़ के साये में लगती अब है सस्ती ज़िंदगी

ख़ौफ़ के साये में लगती अब है सस्ती ज़िंदगी,
मौत से पहले हजारों बार मरती ज़िंदगी।

कुछ नहीं देता दिखाई सुन नहीं पाते हैं कुछ,
आग में जब भूख की हर पल झुलसती ज़िंदगी।

भूलकर अपनी अना सुल्तान का सज़दा करो,
जी हुज़ूरी का चलन है कहती रहती ज़िंदगी।

मौसमी बारिश का क्या चाहे बरसती ख़ूब हो,
बाढ़ लाती है यक़ीनन सिर्फ़ बहती ज़िंदगी।

मुल्क़ के इस दौर की है ये कहानी सुन ज़रा,
घोषणाओं के सहारे घटती बढ़ती ज़िंदगी।

टिमटिमाते से सितारे हैं बहुत इस बज़्म में,
किसलिए फिर चाँद की खातिर तरसती ज़िंदगी।

सीख लो दस्तूर इस बाज़ार का तुम भी 'अमर',
ओढ़ लो नकली हँसी होगी विहँसती जिंदगी।