रविवार, 25 मार्च 2018

ढल रही अब शाम
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ढल रही अब शाम तो फ़िर देखता हूँ प्यार को
ढह रही दीवार थी रोके नदी की धार को।
उठ रहा था जो बवंडर इस समंदर में कभी
बन गया है वो भँवर अब देखकर पतवार को
जो दिखाती जिंदगी अब देख मत चुपचाप वह
ना मिले साहिल कभी तो चूम ले मँझ धार को।
हो सके तो आज पढ़ तुम ज़र्द रुख़ के हर्फ़ को
सुर्ख़ गालों ने छुपाया दुख के पारा वार को।
कशमकश की इस ख़लिश में चाँद गर मिलता मुझे
पूछता ये दाग क्यों है क्या कहें संसार को।
चाहते हो कैद करना देह की इस गंध को
जज्ब कर पहले 'अमर' तुम आँसुओं की धार को
ब़ुत बनाकर
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ब़ुत बनाकर रोज ही तुम तोड़ते हो
कर चुके जिसको दफ़न क्यों कोड़ते हो।
अब बता दो कौन सी बाक़ी कसक है
आज फिर क्यों सर्द साँसें छोड़ते हो।
ख़्वाब सबने तो सुहाने ही दिखाए
बन गई नासूर यादें फोड़ते हो।
एक मन मंदिर बना लो उस जगह तुम
बैठकर दिल से जहाँ दिल जोड़ते हो।
फिक्र कब तक डर अजाने का करोगे
हादसों की सोच क्यों मुँह मोड़ते हो।
बेस़बब तो नैन फिर छलके नहीं हैं
क्यों 'अमर' ऐसे जिग़र झिँझोड़ते हो।
यादों में तुम जब आते हो
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
यादों में तुम जब आते हो
कुछ सौगातें भी लाते हो।
भूली-बिसरी सुधियाँ छेड़ी
घाव हरे सब कर जाते हो।
ऐसा तो सौ बार हुआ है
बीच डगर क्यों भरमाते हो।
नैनों के कोरों से छलके
धीरे से जब मुस्काते हो।
ढलता यौवन भी लहराता
मुझको अब भी ललचाते हो।
बीते जीवन के पल कितने
अब भी 'अमर' तुम सकुचातो हो।

रविवार, 18 मार्च 2018

रोज होते रहे हादसे
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
रोज होते रहे, हादसे ही मगर
वो नहीं आ सके, बन कभी भी खबर।
आज मायूस सा, तुम खड़े हो जहाँ
गा रहे थे सभी, कल वहीं नाचकर।
हादसों बिन कहाँ, कट रहा वक्त भी
जानते हम बनी, अब कँटीली डगर।
कौन सुनता यहाँ, चीख सच की कभी
बन गया आज तो, सच छुपाना हुनर।
जानते सब मगर, हम जताते नहीं
मौज़ ही बन गई, जिंदगी का भँवर।
है बदल सी गई, कुछ फ़िजा वक़्त की
अश्क की धार भी, रुक गई जो 'अमर'।

शनिवार, 10 मार्च 2018

जाना मैंने भी ग़ज़ल का व्याकरण। हिंदी-उर्दू ग़ज़लों के नियमों के तहत ग़ज़ल कैसे कहें?
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ग़ज़ल 5 से 15 अशआर (शेर का बहुवचन) के उस समूह को कहते है जिसका पहला शेर 'मतला' और आख़िरी शेर 'मक़्ता' कहलाता है। प्रत्येक शेर में एक 'क़ाफ़िया' अवश्य होता है। अर्थात 'क़ाफ़िया' के बिना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती है। 'रदीफ़' से ग़ज़ल की खूबसूरती बढ़ती है और ग़ज़ल की गायकी या गनाइयत में भी चार चाँद लग जाते हैं। इस दृष्टि से 'रदीफ़' ग़ज़ल का एक महतवपूर्ण पहलू है, लेकिन बिना 'रदीफ़' के भी ग़ज़लें कहीं जा सकतीं हैं या जातीं हैं। परंतु बिना 'क़ाफ़िया' के ग़ज़ल की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
ग़ज़ल का प्रत्येक 'शेर' दो 'मिसरों' (पंक्तियों) का होता है। पहली पंक्ति 'मिसरा-ए-उला' कहलाती है और दूसरी पंक्ति को 'मिसरा-ए-सानी' कहा जाता है।
शेर के दोनों मिसरे को एक की 'बह्र' (छंद) पर कहा जाता है अर्थात दोनों 'मिसरों' की 'वज़्न' (मात्रा-भार) समान होती है।
ग़ज़ल के 'मतले' में ली गई 'बह्र' का निर्वाह ग़ज़ल के बाकी सभी अशआर में करना पड़ता है। ठीक इसी तरह मतले में प्रयुक्त 'क़ाफ़िये' और 'रदीफ़' का निर्वाह भी शेष सभी अशआर में करना पड़ता है। यानी कि ग़ज़ल के प्रत्येक शेर की 'बह्र' एक ही होती है और प्रत्येक शेर में नियमानुसार 'क़ाफ़िया' और 'रदीफ़' लगाया जाता है।  
ग़ज़ल लेखन के प्रमुख तत्वों में ‘कहन’ के अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण तत्व है उसे 'बह्र' (छंद) कहते है। 'बह्र' (छंद या मीटर) के बिना ग़ज़ल नहीं कही जा सकती है। कुछ लोग 'आज़ाद ग़ज़ल' की बात करते रहे हैं जहां 'बह्र' का निर्वाह ज़रूरी नहीं माना जाता है, लेकिन इस तथाकथित 'आज़ाद ग़ज़ल' को ग़ज़ल माना ही नहीं जाता है। अधिक से अधिक 'नज़्म' कहा जा सकता है, ऐसी तथाकथित रचना को। मतलब ये कि 'फ्री वर्स' में ग़ज़ल नहीं कही जा सकती है। अतः हम कह सकते हैं कि किसी भी 'बह्र' में कहे गए वैसे अशआर (शेर का बहुवचन) जिनमें ‘क़ाफ़िया’ और ‘रदीफ़’ के नियमों का पालन हुआ हो, मिलकर एक ग़ज़ल का निर्माण करते हैं। 'बह्र' में ‘रुक्न’ का विशेष महत्व है। सभी बहरों में प्रयुक्त मुख्य अरकान (रुक्न का बहुवचन यानी कई रुक्न) आपस में जुड़कर ही ग़ज़ल कहने की भिन्न-भिन्न 'बह्र' (छंद) का निर्माण करते हैं। 'रुक्न' को मुख्यतः शेर की 'बह्र' की मात्राओं को गिनने के मानक के रूप में समझा जा सकता है।
हर ग़ज़लकार अपनी सुविधानुसार 'बह्र' विशेष का प्रयोग करता है। प्रायः यही देखा जाता है कि अपनी रुचि और 'कहन' के अनुरूप प्रत्येक ग़ज़लकार 3-4 बह्र का ही प्रमुखता से प्रयोग करता है। सभी तरह की 'बह्र' में प्रयुक्त अरकान निम्नलिखित हैं--
आठ बेसिक अरकान
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1. फ़ा-इ-ला-तुन (2-1-2-2)
2. मु-त-फ़ा-इ-लुन(1-1-2-1-2)
3. मस-तफ़-इ-लुन(2-2-1-2)
4. मु-फ़ा-ई-लुन(1-2-2-2)
5. मु-फ़ा-इ-ल-तुन (1-2-1-1-2)
6. मफ़-ऊ-ला-त(2-2-2-1)
7. फ़ा-इ-लुन(2-1-2)
8. फ़-ऊ-लुन(1-2-2)
इन आठ अरकान को मिलाकर आज प्रमुखतः निम्नलिखित 30 अरकान प्रयोग में लाये जा रहे हैं:
1. फ़अल 12 या 111
2. फ़ा 2
3. फ़ाअ 21
4. फ़ाइलात 2121
5. फ़ाइलातुन 21211 या 2122
6. फ़ाइलान 2121
7. फ़ाइलुन 2111
8. फ़इलात 1121
9. फ़इ्लातुन 11211 या 1122
10. फ़इलुन 1111 या 112
11. फ़ऊ 12
12. फ़ऊल 121
13. फ़ऊलुन 1211 या 122
14. फ़ेल 21
15. फ़ेलुन 211 या 22
16. मफ़ा इलतुन - 121111 या 12112
17. मफ़ाइलुन - 12111 या 1212
18. मफ़ाईल 1221
19. मफ़ाईलुन 12211 या 1222
20. मफ़ ऊ ल 1121 या 221
21. मफ़ऊलात 11221
22. मफ़ऊलातुन 112211 या 2222
23. मफ़ऊलान 11221_या 2221
24. मफ़ ऊलुन 1122 या 222
25. मुतफ़ाइलुन 112111 या 11212
26. मुतफ़इलुन 111111 या 11112ं
27. मुसतफ़इलुन 1111111 या 2212
28. मफ़ाइलतुन 121111
29. मफ़ाइलातुन= 121211
30. मफ़ाइलान = 121211
इन अराकान और वज़्न पर आधारित आज की ग़ज़लों की प्रमुख 32 बह्र प्रचलित हैं। इन प्रमुख बह्र के नाम, अरकान और वज़्न को समझकर और उनका अनुपालन करके कोई भी संवेदनशील कवि दिल को छू लेने वाले भावों को मखमली अल्फ़ाज में गूँथकर किसी भी बह्र की लय में खूबसूरत ग़ज़ल कहने में सफल हो सकता है।
1. बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
मुतफ़ाइलुन, मुतफ़ाइलुन, मुतफ़ाइलुन, मुतफ़ाइलुन
11212 11212 11212 11212
2. बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मख़बून
फ़ाइलातुन, मुफ़ाइलुन, फ़ेलुन
2122 1212 22
3. बहरे मज़ारिअ मुसम्मन मक्फ़ूफ़ मक्फ़ूफ़ मुख़न्नक मक़्सूर
मफ़ऊलु, फ़ाइलातुन, मफ़ऊलु, फ़ाइलातुन
221 2122 221 2122
4. बहरे मुजतस मुसमन मख़बून महज़ूफ
मुफ़ाइलुन, फ़इलातुन, मुफ़ाइलुन, फ़ेलुन
1212 1122 1212 22
5. बहरे मज़ारिअ मुसमन अख़रब मकफूफ़ मकफूफ़ महज़ूफ़
मफ़ऊलु, फ़ाइलातु, मुफ़ाईलु, फ़ाइलुन
221 2121 1221 212
6.बहरे मुतकारिब मुसद्दस सालिम
फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन
122 122 122
7. बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
8. बहरे मुतक़ारिब मुसम्मन मक़्सूर
फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़उल
122 122 122 12
9. बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ाइलुन
212 212 212
10. बहरे मुतदारिक मुसम्मन अहज़ज़ु आख़िर
फ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ा
212 212 212 2
11. बहरे मुतदारिक मुसम्मन सालिम
फ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ाइलुन
212 212 212 212
12. बहरे रजज़ मख़बून मरफ़ू’ मुख़ल्ला
मुफ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ऊलुन, मुफ़ाइलुन, फ़ाइलुन, फ़ऊलुन
1212 212 122 1212 212 122
13. बहरे रजज़ मुरब्बा सालिम
मुस्तफ़इलुन, मुस्तफ़इलुन
2212 2212
14. बहरे रजज़ मुसद्दस मख़बून
मुस्तफ़इलुन, मुफ़ाइलुन
2212 1212
15. बहरे रजज़ मुसद्दस सालिम
मुस्तफ़इलुन, मुस्तफ़इलुन, मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212
16. बहरे रजज़ मुसम्मन सालिम
मुस्तफ़इलुन, मुस्तफ़इलुन, मुस्तफ़इलुन, मुस्तफ़इलुन
2212 2212 2212 2212
17. बहरे रमल मुरब्बा सालिम
फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
2122, 2122
18. बहरे रमल मुसद्दस मख़बून मुसककन
फ़ाइलातुन, फ़इलातुन, फ़ेलुन
2122 1122 22
19. बहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़
फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन ,
2122 2122 212
20. बहरे रमल मुसद्दस सालिम
फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
2122 2122 2122
21. बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ
फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
22. बहरे रमल मुसम्मन मख़बून महज़ूफ़
फ़ाइलातुन, फ़इलातुन, फ़इलातुन, फ़ेलुन
2122 1122 1122 22
23. बहरे रमल मुसम्मन मशकूल सालिम मज़ाइफ़
फ़इलातु, फ़ाइलातुन, फ़इलातु, फ़ाइलातुन
1121 2122 1121 2122
24. बहरे रमल मुसम्मन सालिम
फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
2122 2122 2122 2122
25. बहरे हज़ज मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन, फ़ऊल
1222 1222 122
26 बहरे हज़ज मुसद्दस सालिम
मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन
1222, 1222 1222
27. बहरे हजज़ मुसमन अख़रब मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ मक्फ़ूफ महज़ूफ़
मफ़ऊलु, मुफ़ाईलु, मुफ़ाईलु, फ़ऊलुन
221 1221 1221 122
28. बहरे हज़ज मुसम्मन अख़रब मक़्फूफ़ मक़्फूफ़ मुख़न्नक सालिम
मफ़ऊलु, मुफ़ाईलुन, मफ़ऊलु, मुफ़ाईलुन
221 1222 221 1222
29. बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर मक़्फूफ़ मक़्बूज़ मुख़न्नक सालिम
फ़ाइलुन, मुफ़ाईलुन, फ़ाइलुन, मुफ़ाईलुन
212 1222 212 1222
30. बहरे हज़ज मुसम्मन अशतर, मक़्बूज़, मक़्बूज़, मक़्बूज़
फ़ाइलुन, मुफ़ाइलुन, मुफ़ाइलुन, मुफ़ाइलुन
212 1212 1212 1212
31. बहरे हज़ज मुसम्मन मक़्बूज़
मुफ़ाइलुन, मुफ़ाइलुन, मुफ़ाइलुन, मुफ़ाइलुन
1212 1212 1212 1212
32. बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम
मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन
1222 1222 1222 1222
इनके अतिरिक्त नई बहरों पर भी ग़ज़ल काही जा सकती है, बशर्ते अरकान, वज़्न, काफ़िया और रदीफ़ के नियमों का पालन हो रहा हो, ऐसा ग़ज़ल के कई उस्तादों का मानना है। मसलन मेरे ग़ज़ल गुरु एवं विख्यात ग़ज़ल-उस्ताद श्रद्धेय श्री शरद तैलंग साहब ने मुझे भी एक नई बह्र पर ग़ज़ल कहने की इज़ाजत दी है जिसके आधार पर मैंने ये ग़ज़ल कही थी:
1212/22/2/,212/22/2
मफ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा/, फ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा
बदल रहा गर सबकुछ
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

कभी-कभी मदहोशी बे-सबब छाने दो
अगर बहक भी जाऊँ तो बहक जाने दो
बदल गया सब कुछ तेरे यहाँ आने से
बदल गया हूँ मैं भी आज जतलाने दो 
तड़क-भड़क देखो तो होश उड़ जाते हैं
चहक रही वासंती प्रीति को पाने दो
हमें रहा बौरा ये बेरहम मौसम भी
बचे हुए पल हैं कुछ दिल तो भरमाने दो
बना रहा वाइज़ मैं उम्र-भर रोज़े रख
बिना पिए मुझको अब रिंद कहलाने दो
नहीं खबर मुझको है वक़्त के जाने की
महक रही साँसों से देह महकाने दो
बज़ा रही ढ़ोलक रुत झाल-मंजीरे भी
सुनो 'अमर' तुम भी अब नज़्म कुछ गाने दो
उपरयुक्त सभी 'बह्र' उर्दू ग़ज़लों के नियमों पर आधारित हैं। लेकिन हिन्दी के कुछ ग़ज़लकार वर्णिक और मात्रिक छंदों को आधार बनाकर भी ग़ज़ल कह रहे हैं। लेकिन वर्णिक और मात्रिक छंदों के आधार पर ग़ज़ल कहने के नियमों से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ हूँ, अतः इस संदर्भ में यहाँ कोई टिप्पणी नहीं कर सकता हूँ। धन्यवाद।
--------- अमर पंकज, इंदिरापुरम, गाज़ियाबाद, शनिवार, 10 मार्च, 2018

22 22 22 22 22 22
नज़रें जो फिसलीं हैं
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अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
नज़रें जो फिसलीं हैं इनको अब टिकने दो
आवाजें ख़ामोशी की मुझको सुनने दो।
चुप्पी का दीवानापन पहचाना मैंने
चुप्पी में अपनी तुम मुझको अब बसने दो।।
गूँथा है जूड़े में उजले वनफूलों को
बागों में जूही अब रूठी कुछ कहने दो।
पुरइन भी सरखी भी महके इन साँसों में
प्रेमी हूँ बात मुझे सबसे यूँ करने दो।
पीछे सब कहते पागलपन की हद हूँ मैं
आशिक दीवाना हूँ धड़कन में पलने दो।
लैला की आँखों में काजल भी लाली भी
आँखों को पीकर फिर आज 'अमर' बहने दो।

मंगलवार, 6 मार्च 2018

'निंदक नियरे राखिए, आँगन कुटी समाय'-- प्रिय और अभिन्न मित्र डॉ विक्रम सिंह तथा खुद के रिश्तों पर यह उक्ति एकदम सटीक बैठ रही है, इस संशोधन के साथ कि डॉ विक्रम सिंह मेरे निंदक तो हरगिज नहीं हैं, बल्कि मेरे व्यक्तित्व के कई पहलुओं के घनघोर समर्थक और सहयोगी हैं। यह तो हम सब जानते ही हैं कि डॉ विक्रम सिंह जी एक सुप्रतिष्ठित कथाकार के साथ ही ख्यातिलब्ध विद्वान समीक्षक और समालोचक भी हैं। वे मेरे भी कविताओं और ग़ज़लों के पाठक (अभी किसी गोष्ठी में उन्हें सुनाने का अवसर नहीं मिला इसलिए श्रोता नहीं कह सकता) हैं। परंतु निजी मित्र होने के वावजूद वे मेरी ग़ज़लों के कुछ प्रमुख कटु आलोचकों में से एक हैं। इस कारण वे मेरे लिए और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
हाल-हाल की मेरी एक ग़ज़ल पर उनके द्वारा व्यक्त की गई तीखी प्रतिक्रिया ने मुझे उस ग़ज़ल में कुछ संशोधन करने को विवश / प्रेरित किया। पता नहीं बदले हुए रूप में अब वह ग़ज़ल उन्हें या अन्य आलोचकों को पसंद आती है या नहीं, परंतु कुछ संसोधनों के साथ वही ग़ज़ल फिर पोस्ट कर रहा हूँ। आप सभी दोस्तों से गुजारिश है कि कृपया तव्वजो फरमाएँ:
(बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
212 212 212 )
फूल ही फूल हैं कब खिले
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
फूल ही फूल हैं कब खिले
दिल लुटे प्यार में जब मिले।
पूछ लूँ वक्त से जों रुके
वक़्त से ही हमें हैं गिले।
अश्क जो बह रहे रात भर
भोर तक वे कुमुद बन खिले।
रूठकर वह गया, प्यार था
और सब बेफ़िकर ही मिले।
शुक्र है कुछ हवा तो चली
सूखती शाख से मन मिले।
आज तुम मत रहो चुप "अमर"
हिल रहे होठ थे जो सिले।
सुप्रभात।नमस्कार। अहो भाग्य।🙏🙏🌹🌹बहुत-बहुत धन्यवाद।
1212/22/2/,212/22/2
मफ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा/, फ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा
बदल रहा गर सबकुछ
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
बदल रहा गर सब कुछ, तो बदल जाने दो
ठहर जरा मदहोशी, भी मगर छाने दो।
तड़क-भड़क देखो तो, होश उड़ जाते हैं
चहक रही वासंती प्रीति को पाने दो।
हमें गई बौरा ये, बेरहम होली भी
बचे हुए पल हैं कम, ग़म सभी खाने दो।
बने रहे वाइज़ हम, उम्र-भर रोज़े रख
बिना पिए मुझको अब, रिन्द कहलाने दो।
खबर मुझे कुछ भी ना, वक़्त के जाने की
महक रही साँसों से, देह महकाने दो।
बज़ा रही ढ़ोलक रुत, झाल-मंजीरे भी
सुनो 'अमर' तुम भी अब, नज़्म कुछ गाने दो।
आज ही मैंने इस ग़ज़ल की बह्र के बारे में मित्रों से जानना चाहा था। मैं प्रिय आशीष अनचिन्हार जी के प्रति धन्यवाद ज्ञपित करना चाहता हूँ कि उन्होने यह स्वीकार किया एवं सुझाव दिया कि मौजूदा बह्र पर ग़ज़ल कही जा सकती है। श्री अनचिन्हार ग़ज़लों के शिल्प-विधान के गंभीर अध्येता हैं, अतः उनकी राय को मैं भी गंभीरता से लेता हूँ।
मेरे प्रिय मित्र और हिन्दी के प्रतिष्ठित कथाकार एवं आलोचक डॉ विक्रम सिंह जी ने जिस तरह से मनोयोग-पूर्वक मेरी ग़ज़लों को पढ़कर उनकी कमियों को बेबाक तरीके से रखा, उससे भी मुझे अपने कहन की शैली को धारदार बनाने में मदद मिली है। मैं अपने मित्र डॉ विक्रम सिंह का भी शुक्रगुजार हूँ।
मेरी इस ग़ज़ल-यात्रा में कतिपय क्षण ऐसे भी आए जब मेरा आत्मविश्वास डगमगाया भी। ऐसे वक़्त मेरे अग्रज गुरूभाई परमादरणीय सुप्रतिष्ठित एवं वरिष्ठ गीतकार और ग़ज़लकार श्री शम्भूनाथ मिस्त्री जी ने जो मेरा मनोबल बढ़ाया और मेरी त्रुटियों को परिमार्जित करके उनमें जो निखार लाया उसके लिए मैं उनका सदा-सर्वदा के लिए कृतज्ञ हूँ।
परंतु मेरी इस यात्रा में जिन्होने मुझे अंगुली पकड़कर चलना सिखाया, मेरी बेबह्र पंक्तियों को सुधारकर ग़ज़लों के आशआर बनने का रास्ता दिखाया, मुझे सच में ग़ज़लकार बनाया और जिनका मैं आजीवन ऋणी रहूँगा, वे हैं ग़ज़लों की दुनिया के मशहूर और अति-प्रतिष्ठित उस्ताद, मेरे ग़ज़ल-गुरु श्रद्धेय श्री शरद तैलंग साहब। मौजूदा ग़ज़ल की बह्र को लेकर मन में उठ रही शंका का भी उन्होने ही समुचित समाहार करते हुए अपना निर्णय दिया कि यद्यपि कि "मफ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा/, फ़ायलुन/फैलुन/ फ़ा" की बह्र में ना के बराबर ग़ज़लें कहीं गई हैं, लेकिन कोई चाहे तो इस बह्र में भी ग़ज़ल कह सकता है, कोई बंदिश नहीं है। गुरुदेव की कृपा और आशीर्वाद लेकर, इसीलिए मैंने मौजूदा ग़ज़ल कही है। हालांकि शिल्प को लेकर अधिक सतर्क होने के कारण भावों को वह गहराई नहीं मिल पाई, जिसकी शुरुआत मतले से हुई थी। अतः मेरी अभी भी ये कोशिश होगी कि अपने मूल उद्गारों को, जो मतले के साथ सहज ही निकल रहे थे, इस बह्र- शिल्प में फिर से, नए सिरे से पिरोने की कोशिश करूँ।
लेकिन तबतक के लिए, जो भी बन पाया है, आपके समक्ष रख रहा हूँ। धान्यावाद।
इसे देखने की कृपा की जाए:
1212/22/2/,212/22/2
मफायलुन/फैलुन/ फा/, फायलुन/फैलुन/ फा
बदल रहा सबकुछ तो
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
बदल रहा सब कुछ तो, फ़िर बदल जाने दो मुझे मगर बेहोशी, की दवा खाने दो।
तड़क-भड़क देखूँ तो, होश उड़ जाते हैं
फटी हुई चादर से, लाज ढँक आने दो।
चली गई आकर ये, बेशरम होली भी
बिना पिए मुझको भी, रिन्द कहलाने दो।
बहुत बने हम भी हैं, ता-उमर पंडित पर
बचे हुए दिन हैं कुछ, रस अभी पाने दो।
खबर नहीं कुछ तुम्हें, आ गए अच्छे दिन
डगर-डगर कचरे का, ढेर बिछ जाने दो।
बज़ा रहा गाँलों को, बेफ़िकर होके वो
'अमर' अभी चुप रहना, ज्वार ढल जाने दो।
"बदल रहा सब कुछ तो फ़िर, बदल जाने दो
मुझे मगर बेहोशी की, दवा खाने दो।"
मात्रिक चंद में 23 मात्राओं का यह मतला यति और गति के नियम का पालन करता है। परंतु इसकी बह्र क्या है? किसी को जानकारी हो तो कृपया बताने का कष्ट करें? मुझे मतले का यह स्वतःस्फूर्त शेर बहुत पसंद आ रहा है। अगर इसकी बह्र कोई बता सके तो आसानी होगी, अन्यथा मुझे इसे बे-बह्र ही कहना पड़ेगा क्योंकि इसके आंतरिक लय को मैं नहीं तोड़ना चाहता।
बहरे-मुतदारिक मसम्मन सालिम:
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
(212 212 212 212 )
ना दिशा ना किनारा
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ना दिशा ना किनारा, बही जिंदगी
ना फ़जा ना फ़साना, यही जिंदगी।
आबरू की फ़िकर थी, आज भी बहुत
इसलिए बेख़बर भी, लही जिंदगी।
फिर चली मौसमी है, यहाँ भी हवा
दर्द सब सह सके जो, वही जिंदगी।
देख पाए नहीँ हम नज़र भर जिन्हेँ
बात उनकी सुनी अनकही जिंदगी।
बह रही हर बरस बस, पुरानी हवा
गंध बासी मग़र हँस, रही जिंदगी।
खेल सब जानते हैं, गज़ब ये ‘अमर’
जीतकर हार में जी, रही जिंदगी।
(बहरे मुतदारिक मुसद्दस सालिम
फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन)
फूल ही फूल हैं कब खिले
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
फूल ही फूल हैं कब खिले
प्यार ही प्यार हैं कब मिले।
पूछ लूँ गर कभी वो रुके
वक़्त से हैं हमें कुछ गिले।
अश्क जो बह गए रात भर
भोर तक वे कुमुद बन खिले।
रूठकर जो गए प्यार था
वगरना बेफ़िकर सब मिले।
शुक्र है कुछ हवा तो चली
सूखते शाख भी अब हिले।
आज तुम मत रहो चुप "अमर"
हिल रहे होठ थे जो सिले।