बुधवार, 1 अगस्त 2018

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ख्वाब में ही झलक दिखाते हैं
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ख्वाब में ही झलक दिखाते हैं
पर वही रोज याद आते हैं।
छोड़ दी जिनकी सोहबत मैंने
रात भर वो मुझे जगाते हैं
खासियत का पता चला उनका
खास को ही मगर रुलाते हैं।
प्यार या जंग में करो कुछ भी
मानकर प्यार से सताते हैं।
पागलों की तरह हैं दीवाने
आप क्यों इस तरह लुभाते हैं।
खेल क्या खेलते 'अमर' तुम हो
सबको आईना हम दिखाते हैं।
बहरे मुतकारिब मुसमन सालिम
फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
122 122 122 122
अदीबों की महफिल में
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
अदीबों की महफिल में बस कामिनी है।
सुने हर कोई प्रेम की रागिनी है।
किसे फिक्र है क्यों बिलखता है बचपन
लबों पर सभी के तो गजगामिनी है।
कहे जा रहे सब कहानी पुरानी
मुहब्बत बनी नज़्म की स्वामिनी है।
ग़ज़ल क्या हुई जख़्म के गर न चर्चे
हमेशा बसी याद में भामिनी है।
रवायत ये कैसी अदब में बनी अब
यहाँ बज़्म में जख़्म अनुगामिनी है।
वतन की कसम झूठी खा सब रहे क्यों
'अमर' ये जमीं ही तो फलदायिनी है।
जम्हूरियत के खेल में
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल--9871603621
जम्हूरियत के खेल में फँसती रही है ज़िंदगी
रोटी यहाँ महँगी हुई सस्ती रही है ज़िंदगी।
सच चाहते हो जानना तो खोल लो आँखों को तुम
बस वोट की खातिर ही तो बँटती रही है ज़िंदगी।
हालात कुछ ऐसे बने काली घटा हैरत में है
बरसात बिन ही बाढ़ में बहती रही है ज़िंदगी।
देखा कभी उनकी हँसी तो जाने क्यों ऐसा लगा
सिमटे लबों के बीच बस सिमटी रही है ज़िंदगी।
चुपचाप सहते ही रहे जुल़्म-ओ-सितम दुनिया के हम
सब कुछ लुटाकर इश्क में हँसती रही है ज़िंदगी।
बलिदानियों को याद करके दिल दुखाते क्यों 'अमर'
अब इंक़लाबी शोर में लुटती रही है ज़िंदगी।
आज के दोहे
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
तुझमें-मुझमें सब फँसे, उसको अब बिसराय
खुद में गर ढूँढें उसे, जग अपना हो जाय।
उसके पीछे मैं चला, बिना किए कछु शोर
जबसे मैं पीछे मुड़ा, वही दिखे हर ओर।
हँस-हँस कर आगे बढ़ा, देखा यह संसार
नदिया बहती आग की, उतरें क़ैसे पार।
कहाँ नहीं खोजा उसे, भटका मैं हर रोज
पत्थर मारा शीश पर, बाकी बची न खोज।
तन-मन दोनों एक हो, सब दिन की थी चाह
तन को लागी चोट तो, मन भरता है आह।
दोहा अब कैसे कहें, रक्खें कैसे बात
मन विचार करता रहा, बीत गई अब रात।
मैं तो लेता ही रहा, नाम उसी का मीत
रब से है बिनती यही, बनी रहे यह प्रीत।
देखो मैंने क्या किया, जाने क्या संसार
खुद को जों मैं जानता होता बेड़ा पार।
पीर पराई क्या कहें, खुद में ही था मस्त
पर जब डूबा इश्क में, मेरा निज भी अस्त।
मैं क्या जानूँ इल्म को, बसता वो किस देश
रहबर रूठा तो 'अमर', बढ़ा लिये हैं केश।