सोमवार, 1 अक्टूबर 2018


बैठे हैं हम भी इम्तिहाँ में
फिर हैं खिले फूल गुलिस्ताँ में
दिल में हलचल तो है लेकिन
आवाज़ नहीं आज जुबाँ में
तनहाई का आलम क्यों है
रहते जब हैं सब इसी मकाँ में
ऐ दिल मत हो तू उदास कहीं
छा जाए न उदासी जहाँ में
शोख निगाहों की ये खता 'अमर'
कैसे सुकूँ मिले दर्दे-निहाँ में