रविवार, 11 अक्टूबर 2009

पंकज के काव्य में संघर्ष चेतना का बोध


पंकज के काव्य में संघर्ष चेतना का बोध




प्रो० ताराचरण खवाड़े









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मैं समदरशी देता जग को

कर्मों का अमर व विषफल



के उद्‌घोषक कवि स्व० ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी संसार से उपेक्षित क्षेत्र संताल परगना के एक ऐसे कवि है, जिनकी कविताओं में आम जन का संघर्ष अधिक मुखरित हुआ है. कवि स्नेह का दीप जलाने का आग्रही है, ताकि ’भ्रमित मनुजता पथ पा जाये’ और ’अपनी शांति सौम्य सुचिता की लौ से’ जो घृणा द्वेष के तिमिर को हर ले. यह आग्रह बहुत पहले निराला के ’वीणा वादिनी बर दे’ में व्यक्त हो चुका है –





काट अंध उर के बंधन स्तर

कलुष भेद, तम हर प्रकाश भर

जगमग जग कर दे



इतिवृत्तात्मक द्विवेदी युगीन व यथातथ्यात्मक अभिव्यक्ति का दौर समाप्त हो चुका था. छायावाद लक्षणा-व्यंजना प्रतीक व बिंब योजना के घोड़े पर सवार हो एक नवीन भाषा में प्रकृति, सौंदर्य़, सुख-दुख का गायन व्यक्तितकता के परिवेष्टन में कल्पना का आश्रय ले स्थापित हो चुका था. परिवर्तनशीलता सृष्टि-चक्र की अनिवार्य शर्त है. छायावाद सिर्फ़ मर ही नहीं चुका था, उसका शव-परीक्षण भी कुछ आलोचक कर चुके थे. किन्तु उसकी आत्मा साहित्य के सृजन-क्षितिज पर मंडरा रही थी. उत्तर छायावाद व फिर प्रगतिवाद अपना-अपना मोर्चा संभाल रहा था. ऐसे ही समय में अपनी कविता लेकर कविवर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हिन्दी साहित्य के संताल परगना के सरोवर में खिलते है, जिसमे एक और छायावादी प्रवृत्तियों कॊ सुगन्ध है, तो दूसरी और प्रगतिवादी संघर्ष का सुवास. कवि पंकज की काव्य यात्रा छायावाद व उत्तर छायावाद की क्षीण होती प्रवृत्तियों की राह से शुरू होती है व रूप कविता को देख विस्मित-चकित सा वह गा उठता है–





कौन स्वप्न के चंद्रलोक से

छाया बन उतरी भू पर l

अवगुंठन में विहंस-विहंस जो

तोड़ रही विधि का बंघन l





कभी वह ’कली से बतियाता है, कभी ’सरिता’ प्रिय मिलन के उन्माद उरेहता है, कभी स्मृतियों को कुरेदता है –





तेरी स्मृतियों का हार लिए

मैं जीवन ज्वार सुलाता हूं

या





निशि दिन आती याद तुम्हारी

जबकि





पागल चांद के नयन में चांदनी हो l



ऐसी रचनाओं में कवि की किशोर भावना आत्मुग्धता व यौनाकर्षण के इंद्रजाल में फंसती है. कल्पना का महल खड़ा करती है. अंत में स्वप्न-भंग का दंश भी झेलती है–





जले न वे मुझसे परवाने

मिले न वे मुझसे दीवाने l

– और, अपनी नियति पर जार-जार आंसू बहाती है–





शीतल पवन है गा रहा

बंदी मधुप अकुला रहा l



पंकज जी की ऐसी कितनी-कितनी रचनाओं में छायावादी आत्मा का मंडराना दिखाई पड़ता है. ऐसी कविताओं को देख कवि पंकज को भावुक कवि, कल्पना का कवि, वैयक्तिकता का कवि, छायावादी या फिर उत्तर छायावादी कवि घोषित कर देना जल्दबाजी होगी.





यह कैशोर्य भावुकता का दौर गुजर जाने के बाद जीवन व जगत के यथार्थ से जब उनका साबका पड़ता है, तब कवि महसूसता है कि जीना कितना कठिन है व जीने के लिए संघर्ष कितना जरूरी. उनकी कविताओं में उनके जीवन का यथार्थ कुछ इस कदर घुल-मिल जाता है कि मनुष्य मात्र के संघर्ष का यथार्थ बन जाता है. एक अनजाने गांव खैरबनी गांव का प्रतिभा संपन्न छात्र. कितने बाह्य व आंतरिक अड़चनों को अपनी हिम्मत व उदग्र आकांक्षाओं के सहारे पराजित करता हुआ एक मंजिल पाता है - यह अपने आप में कवि पंकज के व्यक्तित्व के संघर्षशील जीवन का एक ऐसा पक्ष है, जिसने उन्हें जुझारू कवि बनाया, आम आदमी का पक्षधर कवि, मानवीय संघर्ष चेतना का कवि. प्रगतिशील कवि. मेरी समझ में प्रगतिशीलता व प्रगतिवाद में मौलिक अंतर है. प्रगतिवाद मार्क्सवाद के कोख से उत्पन्न एक साहित्यिक उत्पाद, जबकि प्रगतिशीलता हमारे परंपरागत संस्कारों से जन्मा, आमजन से संघर्ष, अनुभवों व अनुभूतियों का साहित्यिक निचोड़. कवि पंकज का संघर्ष व उनकी प्रगतिशीलता उनके पूरे रचना-संसार में व्याप्त है. एक समय भोगे यथार्थ की अभिव्यक्ति की अनुगूंज पूरे हिन्दी काव्य-संसार में व्याप्त थीं, जिसे लक्ष्यकर बाबा नागार्जुन ने लिखा भी था–





कालिदास सच सच बतलाना

इंदुमति के मृत्यु शोक में अज रोया या तुम रोये थे?



स्पष्टत: साहित्य को मात्र आवेष्टन की प्रतिक्रिया नहीं भुक्त यथार्थ से भी जोड़ा गया है. इस दृष्टि से विचार करने पर पंकज की रचनाओं में आवेष्टन व भुक्त यथार्थ का समावेश हुआ लगता है.





फूल व शूल के प्रतीकों से वे आवेष्टन गत यथार्थ को अंकित करते हं, जिससे भिड़ना मनुष्य की नियति है. उनका यह प्रश्न इस टकराहट को व्यक्त करता है –





फूल भी क्यों शूल बनता ?

अमृत के वर विटप तल क्यों

जहर का है कीट पलता?



यह संसार सुखात्मक कम दुखात्मक अधिक है. यहां जीना कितना दुश्वार है? किन्तु जीना एक मजबूरी है. इसकी गतिशीलता के लिये संघर्ष का पतवार आवश्यक है, परिस्थियां चाहे कितनी विपरीत हों —





बरसतीं हों सावन की धार

नाचती बिजली की तलवार

चीखता मेघ, भीत, आकाश,

प्रलय का मिलता आभास l



फिर भी निरन्तर कर्मठता से जीवन को जीने लायक बनाया जा सकता है. निराशायें कभी-कभी कर्म-विमुख व निष्क्रिय करती हैं व लगने लगता है कि —





नियति का अभिशाप हूं मै



पर इस अभिशाप को वरदान बनाने के लिये पलायन नहीं, हौसला चाहिये. मानवीय चेतना में इतना संकल्प होना चाहिये –





मैं महासिंधु का गर्जन हूं

हिल उठे धरा, डोले अंबर,

मैं वह परिवर्तन हूं l



पंकज, अपने कठिन युग में मानवता के पक्षधर कवि रहे है. जहां शोषण है, उत्पीड़न है, वहां कवि जन-पक्षधर बन खड़ा है. वह लघु मानव की ओर से घोषित करता है कि –



<

देवत्व नहीं ललचा सकता

हमको न भूख अंबर की है l

मिट्टी के लघु पुतले है हम

मिट्टी से मोह निरंतर है l



युग-युगाब्दि से पीड़ित आमजन को धन-वैभव नहीं, पद-प्रतिष्ठा नहीं, मानवीय संवेदना चाहिये. पीड़ा से मुक्ति, अपमान व अवमानना से मुक्ति चाहिये. ऐसे ही मुक्ति के लिये संघर्ष करना होगा, निरंतरता के साथ –





सिद्धि चूमती चरण उसी के

हंस-हंस विध्नों से कि लड़े जो

बंधु लौह सा बन जा जिससे

भिड़कर सौ चट्टानें टूटें l

मरू में भी जीवनमय निर्झर,

जिसके चरण-चिह्न से फूटें l

ठीक इसी तरह —





शूलों पर चलना मुश्किल है

हिम्मतवाला वहां सफल है l

कहकर कवि आमजन में लड़ने की क्षमता भरता है —





रूकता कब हिम्मत का राही

चाहे पथ कितना बेढब है l

या –





मैं झंझा में पलने वाला हूं

मेरा तो इतिहास अजब है l



कहीं न कहीं कवि का अपना अनुभव, पर के अनुभव के साथ घुल-मिलकर एक ऐसे औदात्य संघर्ष की रूपरेखा प्रस्तुत करता है, जो केवल उसका नहीं, मानव मात्र का एक महत्वपूर्ण औजार है. कवि की आकांक्षा एक ऐसे संसार की रचना करती है जहां –





रहे न कोई आज उपेक्षित

रहे न कोई आज बुभुक्षित

नहीं तिरष्कृत, लांक्षित कोई

आज प्रगति का मुक्त द्वार हो l



कवि ऐसे प्रगति का द्वार खोलना चाहता है, जहां समरस जीवन हो, जहां शांति हो, भाईचारा हो और हो प्रेममय वातावरण.





पंकज के काव्य-संसार का फैलाव बहुत अधिक तो नहीं है, किन्तु उसमें गहराई अधिक है. और, यह गहराई कवि को पंकज के व्यक्तित्व की संघर्षशीलता से मिली है.



प्रभात खबर (देवघर संस्करण)

जुलाई 2, 2005, शनिवार

से साभार









Jyotindra Prashad Jha 'Pankaj'

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June 2009

शनिवार, 10 अक्टूबर 2009

आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी की याद में आयोजित यह कार्यक्रम हमें हिंदी साहित्य की इस शोकान्तिका पर विचार करने का मौका देता है---मस्तराम कपूर


आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी की याद में आयोजित यह कार्यक्रम हमें हिंदी साहित्य की इस शोकान्तिका पर विचार करने का मौका देता है — कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमारा साहित्य कैसे विदेशी साहित्य-विमर्श पर निर्भर हो गया और उसका संबंध अपनी परंपरा से टूट गया। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास साठोत्तरी पीढ़ी से शुरू होता है और यह परिवर्तन उससे पहले के साहित्य तथा साहित्यकारों को नकार कर या उनकी तिरस्कारपूर्वक उपेक्षा कर होता है। इस परिवर्तन के अंतर्गत भक्तिकाल और रीतिकाल ही नहीं, आधुनिक काल के मैथिलीशरण, श्रीधर पाठक, पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी, दिनकर, बच्चन, नवीन यहां तक कि जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, विष्णु प्रभाकर आदि भी उपेक्षित हुए। यह एक तरह का साहित्यिक तख्ता-पलट था जो राजनैतिक तख्ता-पलट का अनुगामी था। जिस तरह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जवाहरलाल, सरदार पटेल, मौलाना आजाद आदि कांग्रेस के नेताओं ने गाँधीजी के ग्राम स्वराज और स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम मूल्यों से पल्ला झाड़कर ब्रिटिश राज की सारी संस्थाओं और तौर-तरीको को ढोने का जिम्मा लेकर अपने को आधुनिक और प्रगतिशील घोषित किया, उसी तरह, साठोत्तरी पीढी़ के लेखकों-समीक्षकों ने भी अपने अतीत को, अपने इतिहास को नकार कर और उसका उपहास कर विदेशी विचारों, संकल्पनाओं तथा मूल्य-विमर्श के अनुकरण को अपनाकर अपने को अत्याधुनिक, प्रगतिशील या जनवादी घोषित किया। समय-समय पर इंगलैंड-अमरीका के शिक्षा-संस्थानों या शिक्षा-जगत से जो भी साहित्यिक और वैचारिक वायरस(स्वाइन-फ्लू के वायरस की तरह) चलें उन्होंने यहां के बौद्धिक जगत को इस प्रकार जकड़ लिया कि अब उससे मुक्ति की संभावना भी नहीं दिखाई दे रही है। इस बीच डॉ० राममनोहार लोहिया ने जवाहरलाल नेहरू के मोह से आविष्ट एवं सन्निपात-ग्रस्त बौद्धिक जगत को कुछ, ताजे, नये विचारों से झकझोरने का प्रयास किया। जब हिंदी के बौद्धिक जगत के लोग गुलाब और गेहूं, रोटी और आजादी, क्रांतिकरण और सौंदर्य-रचना के द्वंद की बहस में उलझे हुए थे तो डॉ० राममनोहर लोहिया ने एक सूत्र दिया। उन्होंने कहा कि जैसे गाँधीजी के रास्ते पर चलकर समता के माध्यम से शांति और शांति के माध्यम से समता की साधना की जा सकती है, उसी प्रकार स्वतंत्रता, समता और बंधुता के संघर्ष के माध्यम से सत्य, शिव और सुंदर की तथा सत्य, शिव और सुन्दर के माध्यम से स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता की साधना की जा सकती है। उनके इस विचार ने रूस या चीन की क्रांति का झंडा उठाने वाली साहित्यिक संस्थाओं के आतंक से साहित्य को मुक्त किया तथा साहित्य को उस व्यापक सरोकार से जोड़ा, जिसका लक्ष्य था मानव-जीवन को स्वतंत्रता, समता और बंधुता के अनुभवों से समृद्ध करना। इससे हर लेखक को मर्क्सवादी ठप्पा लगाने की जरूरत नहीं रही और साहित्य के क्षेत्र का ऐसा विस्तार हुआ कि उसमें सौंदर्यवादी, प्रयोगवादी, अस्तित्ववादी और अराजकतावादी ही नहीं, स्त्रीवादी और दलितवादी लेखन भी समाविष्ट हुआ। यहीं कारण हैं कि लोहिया ने हिन्दी साहित्य पर व्यापक प्रभाव डाला और ’दिनमान’, परिमल ग्रुप के लेखक ही नहीं, उनके अलावा भी बड़ी संख्या में लेखक उनसे प्रभावित हुए; जैसे: रेणु, मुक्तिबोध, शमसेर, कुंवर नारायण, प्रयाग शुक्ल, गिरिराज किशोर, रमेश चन्द्र शाह, गिरधर राठी, ओम प्रकाश दीपक, हृदयेश, शिवप्रसाद सिंह, कृष्ण नाथ, नित्यानंद तिवारी, कृष्ण दत्त पालीवाल आदि (हिन्दी में) और विरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, यू. आर. अनन्तमूर्ति, चद्रशेखर पाटिल, स्नेहलता रेड्डी, पट्टाभि रामा रेड्डी, आचार्य अगे, फुले देशपांडे, विजय तेंदुलकर आदि अन्य भारतीय भाषाओं में.




इस समय बहुत जरूरी है कि डा. लोहिया के विचारों से अनुप्राणित साहित्यिक संस्थाएं बनें, जो जैसे ’पंकज-गोष्ठी’ बनी है, [पंकज-गोष्ठी 1955 में दुमका, झारखण्ड, में बनी थीं और डा. लोहिया के विचारों से यह अनुप्राणित थी या नहीं यह शोध का विषय हो सकता है। 2009 में पुन: पंकज-गोष्ठी को पुनर्जीवित करके मौजूदा स्वरूप में इसे स्थापित करने के प्रयास में लगे हुए इसके संपादक अमर नाथ झा बहुत हद तक लोहिया के विचारों से प्रभावित है.] जो पकज जी जैसे उन सब लेखकों को ढूंढे और छापें जिन्हें सिर्फ इसिलिये भूला दिया गया क्योंकि वे अपनी परंपरा और इतिहास से जुड़े थे। शब्द को ब्रह्म इसलिये कहा गया है कि वह अनश्वर होता है, इसलिये इसे नष्ट होने से बचाने का भरसक प्रयत्न किया जाना चाहिये। पंकज जी पचास के दशक के लेखक थे और इस दशक को जैसे हिन्दी साहित्य से खारिज ही कर दिया गया है। अंग्रेजी में पढ़ने और हिन्दी में उसका उलथा कर लिखने वाली साठोत्तरी पीढियों ने हिन्दी साहित्य में अपने अतीत को नकारने या अपनी कोख को लात मारने का जो पाप किया है, उसका प्रयश्चित बहुत जरूरी है। अगर इस प्रयश्चित की प्रक्रिया की शुरूआत इस पितृपक्ष से होती है तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है?



अपने वक्तव्य के अंत में पंकज जी का एक कवित्व पढ़ना चाहता हूं जो अतुकान्त कविता के फैशन के माहोल में कुछ लोगों को भले ही न रूचे, मेरा मन तो उस पर मुग्ध है। कवित्त स्वातंत्र्य के प्रात: काल की महिमा का वर्णन करता है:







जागरण प्रात यह दिव्य अवदात बंधु, प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो।

दूर हो भेद-भाव कूट-नीति, कलह-तम, द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो॥

नूतन तन, नूतन मन, नव जीवन छाने दो, ढल रही मोह-निशा, मित्र ढल जाने दो।

रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित हो, प्रभापूर्ण ज्योतिर्मय नव विहान आने दो॥

इस कवित्त को पंकज जी ही लिख सकते थे, जो स्वातंत्र्य संग्राम के सहभागी थे। जो किनारे खड़े थे वे इसका महत्व नहीं समझ पाएंगे।

शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009

pankaj jee



संताल परगना की साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया



नित्यानंद



संताल परगना — भारत का वह भू-भाग जिसने अपनी खनिज संपदा से देश को समृद्धि दी, जिसकी दुर्गम राजमहल की पहाड़ियों ने सत्ता-प्रतिष्ठान के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंकने वालों को सुरक्षित शरणस्थली दिया, जिसने तब, जबकि भारत में अंग्रेजों का अत्याचार शुरू ही हुआ था, पहाड़ियां विद्रोह के रूप में सबसे पहले स्वाधीनता आंदोलन का शंखनाद किया, सामाजिक विषमताओं के विरूद्ध और शोषण-मुक्त समाज बनाने के लिये जहां के वीर सपूत सिद्धो-कान्हो ने भारत की प्रथम जन-क्रांति को जन्म दिया; जिसके अरण्य-प्रांतर में महादेव की वैद्यनाथ नगरी का परिपाक हुआ — वही संताल परगना सदियों से उपेक्षित रहा। पहले अविभाजित बिहार, बंगाल, बंग्लादेश और उड़ीसा, जो सूबे-बंगाल कहलाता था, की राजधानी बनने का गौरव जिस संताल परगना के राजमहल को था, उसी संताल परगना की धरती को अंग्रेजी शासन के दौरान बंगाल प्रांत के पदतल में पटक दिया गया। जब बिहार प्रांत बना तब भी संताल परगना की नियति जस-की-तस रही। हाल में झारखण्ड बनने के बाद भी संताल परगना की व्यथा-कथा खत्म नहीं हुई। आधुनिक इतिहास के हर दौर में इसकी सांस्कृतिक परंपराएं आहत हुई, ओजमय व्यक्तित्वों की अवमानना हुई और यहां की समृद्ध साहित्यिक कृतियों तथा प्रतिभाओं को उपेक्षा के पत्थर तले दबा दिया गया।



तब भी, जबकि बिहार और झारखण्ड एक हुआ करता था, अनेक समृद्ध साहित्यिक विभूतियों का आविर्भाव एकीकृत बिहार में होता रहा — परमेश, कैरव, द्विज, दिनकर, बेनीपुरी, पंकज, रेणु आदि ने प्रदेश के हिन्दी साहित्य को उच्चतम शिखर तक पहुंचाया, लेकिन यहां भी संताल परगना हत्‌भाग्य और उपेक्षित ही रहा। दिनकर, बेनीपुरी, रेणु आदि का नाम तो बृहत्तर हिन्दी-जगत में स्वर्णाक्षरों में अंकित हो गया, लेकिन संताल परगना के साहित्याकाश के महान नक्षत्र — परमेश, कैरव, पंकज और न जाने कितने प्रतिभाशील लेखक, कवि अपने जीवन-काल में अपनी असाधारण भूमिका निभाने के बावजूद विस्मृति की तमिश्रा में ढकेल दिये गये।



पं० जनार्दन मिश्र ’परमेश’ का नाम संताल परगना की साहित्यिक परंपरा में विशेष रूप से उल्लेखनीय है। परमेश अर्थात्‌ वह व्यक्तित्व जिसने साहित्य की हर विधा पर अपनी कलम चलाई। ब्रजभाषा, अवधी और खड़ी बोली में रचित जिनकी सैकड़ों कविताओं ने जिन्हें अपने युग के सर्वाधिक प्रतिभाशाली और विलक्षण कवि की ख्याति दिलाई थी, वह परमेश आज उपेक्षा के कारण गुमनामी में विलीन हो चुके है।



परमेश के साहित्यिक शिष्य और अनुज-तुल्य पं० बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ का भी यही हश्र हुआ। हिन्दी जगत में कैरव जी की “साहित्य साधना” ने समीक्षा एक नयी ’पृष्ठभूमि’ तैयार की, लेकिन इसके बावजूद आज कैरव कहां है? साहित्यिक परिदृश्य में कैरव का नामलेवा कौन है?



आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’– परमेश और कैरव– दोनों के शिष्य ही नहीं योग्यतम उत्तराधिकारी भी थे। परमेश, कैरव और पंकज की बृहत्त्र्यी के जो यशस्वी तृतीय स्तंभ थे, के साथ तो और भी अधिक अन्याय हुआ। संताल परगना में साहित्य-सृजन के संस्कार को एक आंदोलन का रूप देकर नगर-नगर गांव-गांव की हर डगर पर ले जाने वाली ऐतिहासिक-साहित्यिक संस्था, पंकज-गोष्ठी के प्रेरणा-पुंज और संस्थापक सभापति पंकज जी ने इतिहास जरूर रचा, परन्तु हिन्दी जगत ने उन्हें भुलाने में कोई कंजूसी नहीं बरती। लोक-स्मृति का शाश्वत अंग और जनश्रुति का नायक बन चुके पंकज की भी सुधि हिन्दी-जगत के मठाधीशों ने कभी नहीं ली। लेकिन पंकज के ही शब्दों में –







रोकने से रूक सकेंगे

क्या कभी गति-मय चरण।

कब तलक है रोक सकते

सिंधु को शत आवरण।

जो क्षितिज के छोर को है

एक पग में नाप लेता।

क्षुद्र लघु प्राचीर उसको

भला कैसे बांध सकता।

अस्तु, इतिहास रचने वाले, संताल परगना के लोक-जीवन में अमर हो जाने वाले पंकज जी के कुछ ऐसे पहलूओं को उद्‍घाटित करना इस लेख का अभीष्ट है, जिनसे हम सब प्रेरणा प्राप्त करते रहते है।



संताल परगना मुख्यालय दुमका से करीब 65 किलोमीटर पश्चिम देवघर जिलान्तर्गत सारठ प्रखंड के खैरबनी ग्राम में 30 जून 1919 को ठाकुर वसंत कुमार झा और मालिक देवी की तृतीय संतान के रूप में ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ का जन्म हुआ था। पंकज जी के जन्म के समय उनका ऐतिहासिक घाटवाली घराना — खैरबनी ईस्टेट विपन्न और बदहाल हो चुका था। साहुकारों के कर्ज के बोझ तले कराहते इस घाटवाली घरानें में उत्पन्न पंकज ने सिर्फ स्वयं के बल पर न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि अपने घराने को भी विपन्नता से मुक्त किया। परिवार का खोया स्वाभिमान वापस किया। लेकिन वह यहीं आकर रूकने वाले नहीं थे। उन्हें तो सम्पूर्ण जनपद को नयी पहचान देनी थी, संताल परगना को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाना था। इसलिये कर्मयोगी पंकज प्रत्येक प्रकार की बाधाओं को लांघते हुए अपना काम करते चले गये। उन्होंने बंजर मिट्टी को छुआ तो लहलाते खेत उग आये, लोहे को हाथ लगाया तो सोना बन गया। लेकिन उनकी यह यात्रा नितान्त अकेली यात्रा थी। ’एकला चलो र’ के अनुगामी पंकज समाज और परिवार के सहारे के बिना ही अपने कर्म-पथ पर चल पड़ा था। इनका मूल मंत्र बना था “न दैन्यम्‌ न पलायनम्‌”।



अध्यवसायी विद्यार्थी के रूप में ये हिन्दी विद्यापीठ, देवघर पहुंचे। वहां द्विज, परमेश और कैरव जैसे आचार्य के सान्निध्य में इनमें साहित्य साधना और राष्ट्रीयता की भावना का बीजारोपण हुआ। महात्मा गांधी की ऐतिहासिक देवघर यात्रा के समय स्वयंसेवी छात्र के रूप में इन्हें गांधी जी की सेवा और सान्निध्य का दुर्लभ अवसर प्राप्त हुआ, जिसने इनकी जीवनधारा ही बदल दी। ये आजीवन गांधी जी के मूल्यों के संवाहक बन गये। जीवन-पर्यन्त खादी धारण किया और अंतिम सांस लेने के दिवस तक “रघुपति राघव राजा राम” प्रार्थना का सुबह और सायं गायन किया। “प्रभु मेरे अवगुण चित्त ना धरो”, इनका दूसरा सर्वप्रिय भजन था जिसे ये तन्मय होकर प्रतिदिन प्रात: एवं सन्ध्‍याकाल में गाते थे। किस कदर इन्होंने गांधी के मूल मंत्र को आत्मसात कर लिया था!



1942 में गांधी जी ने करो या मरो का मंत्र दिया। बस फिर क्या था? पहाड़िया विद्रोह, सन्यासी विद्रोह और संताल विद्रोह की भूमि संताल परगना में सखाराम देवोस्कर के शिष्यत्व में अरविंद घोष और वारिंद्र घोष की क्रांतिकारी विरासत तो थी ही, अमर-शहीद शशिभूषण राय, राम राज जेजवाड़े, पं० विनोदानंद झा समेत अनगिनत क्रांतिकारियों ने स्वाधीनता संग्राम की मशाल थाम रखी थी। इसी विरासत को आगे बढा़ते हुए 1942 के “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आंदोलन में प्रफुल्ल पटनायक समेत कई क्रांतिकारियों के साथ-साथ युवा पंकज ने भी हुंकार भरी और इनके साथ चल पड़ा देवघर शहीद आश्रम छात्रावास के इनके शिष्यों की बानरी सेना। इनका खैरबनी का पैतृक घर गुप्त क्रांतिकारी गतिविधियों का अड्डा बन गया। क्रातिकारी गतिविधियों में भागीदारी के साथ-साथ इस साधनहीन साहसी ने लघुनाटकों को रचकर– उनका मंचन कराया, गीतों को लिखकर उसके सस्वर गायन से लोगों के अंदर छुपे हुए आक्रोश को अभिव्यक्ति दी और फिर क्रांति का तराना घर-घर में गूंजने लगा। सोई पड़ी अलसाई पीढ़ी में स्वाभिमान की अलख जगाई और प्रचंड उद्‍घोष किया –







मत कहो कि तुम दुर्बल हो

मत कहो कि तुम निर्बल हो

तुम में अजेय पौरूष है

तुम काल-जयी अभिमानी।

इस हुंकार में दंभ नहीं, सिर्फ आत्माभिमान भरा था, क्योंकि पौरूष की उद्दंडता भी उन्हें सह्य नहीं थी, इसिलिये तो उन्होंने साफ-साफ घोषणा की थी — –







हैं एक हाथ में सुधा-कलश

दूसरा लिये है हालाहल।

मैं समदरसी देता जग को

कर्मों का अमृत औ विषफल॥



उनके इसी पूर्णतावादी और संतुलित दर्शन ने उन्हें इतिहास का नायक बना दिया।



15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया। अब देश के नव-निर्माण का सपना अपने युग के अन्य क्रांतिकारियों की तरह युवा पंकज ने भी देखा था जो इन पंक्तियों में प्रतिबिंबित हुआ है — –







जागरण-प्रात यह दिव्य अवदात बंधु,

प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो

दूर हो भेद-भाव कूट नीति-कलह-तम

द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो,

नूतन तन, नूतन मन, नव जीवन छाने दो,

ढल रही मोह-निशा मित्र, ढल जाने दो।

रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित हो

प्रभा-पूर्णज्योतिर्मय नव विहान आने दो।

परन्तु, अंग्रेजों की लंबी गुलामी के दौर में भारतीय उदात्त चरित्र के कुम्हला जाने के अवशेष शीघ्र सामाजिक चरित्र में प्रदर्शित होने लगे। जोड़-तोड़, राजनीति, सत्ता तक पहूंचने के लिये नैतिकता की तिलांजलि, चाटुकारिता और स्वाभिमान को गिरवी रखने की होड़ शुरू हो गयी। घात-प्रतिघात का दौर चल पड़ा। इन सब से इस दार्शनिक क्रांतिकारी कवि का हृदय व्यथित भी हुआ — –







बहुत है दर्द होता हृदय में साथी!

कि जब नित देखता हूं सामने –

कौड़ियों के मोल पर सम्मान बिकता है –

कौड़ियों के मोल पर इन्सान बिकता है!

किन्तु, कितनी बेखबर यह हो गयी दुनियां

कि इस पर आज भी परदा दिये जाती!

लेकिन इतनी आसानी से पंकज जी की उद्दाम आशा मुरझाने वाली नहीं थी, क्योंकि — –







छोड़ दी जिसने तरी मँझ-धार में

क्यों डरे वह तट मिले या ना मिले!

चल चुका जो विहँस कर तूफान में

क्यों डरे वह पथ मिले या ना मिले।

है कठिन पाना नहीं मंजिल, मगर

मुस्कुराते पंथ तय करना कठिन!

रोंद कर चलना वरन होता सरल

कंटकों को चुमना पर है कठिन।

1954 में पंकज जी के जीवन का दूसरा अध्याय शुरू हुआ। दुमका में संताल परगना महाविद्यालय की स्थापना हुई और पंकज जी वहां के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में संस्थापक शिक्षक बने। नियुक्ति हेतु आम साक्षात्कार की प्रक्रिया से अलग हटकर पंकज जी का साक्षात्कार हुआ। यह भी एक इतिहास है। पंकज जी जैसे धुरंधर स्थापित विद्वान का साक्षात्कार नहीं, बल्कि आम लोगों के बीच व्याख्यान हुआ और पंकज जी के भाषण से विमुग्ध विद्वत्‌ समुदाय के साथ-साथ आम लोगों ने पंकज जी की महाविद्यालय में नियुक्ति को सहमति दी। टेलीविजन के विभिन्न कार्यक्रमों (रियलिटि शो आदि) में आज हम कलाकारों की तरफ से आम जनता को वोट के लिये अपील करता हुआ पाते है और जनता के वोट से निर्णय होता है। लेकिन आज से 55 साल पहले भी इस तरह का सीधा प्रयोग देश के अति पिछड़े संताल परगना मुख्यालय दुमका में हुआ था और पंकज जी उसके केन्द्र-बिन्दु थे। है कोई ऐसा उदाहरण अन्यत्र? ऐसा लगता है कि नियति ने पंकज जी को इतिहास बनाने के लिये ही भेजा था, इसलिये उनसे संबंधित हर घटना ऐतिहासिक हो गयी है। राजधानी दिल्ली व अन्य जगहों में बैठे हुए बुद्धिजीवियों और समालोचकों को इस बात से कितना रोमांच होगा या इसे वे कितना महत्व देंगे, यह मैं नहीं जानता, लेकिन इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह दुमका के सैकड़ों प्रबुद्ध नागरिक आज भी जीवित है, जिनकी स्मृति में ये दंतकथा के अमर नायक बन चुके हैं। संताल परगना महाविद्यालय ही नहीं यह पूरा अंचल इस बात का गवाह हैं कि आजतक पुन: कोई दूसरा पंकज पैदा नहीं हुआ।



पंकज-गोष्ठी तो मानिये इस पूरे क्षेत्र के घर-घर में चर्चा का विषय थीं। आज भी 50 वर्ष की उम्र पार कर चुका कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति पंकज-गोष्ठी से संबंधित किसी न किसी प्रकार की स्मृति के साथ जीता है जो पुन: पंकज जी के अतुलनीय व्यक्तित्व का ही प्रमाण है। पंकज-गोष्ठी की स्थापना के साथ ही इस पूरे क्षेत्र में साहित्य-सर्जना के साधक मनिषियों की बाढ़ सी आ गई और कई बड़े लेखक, नाटककार तथा कवि हिन्दी साहित्य के पटल पर उभरे। “पंकज” शब्द अब “व्यक्ति-बोधक” मात्र न रहकर “संस्था-बोधक” बन गया और पंकज जी तथा पंकज-गोष्ठी एक-दूसरे में विलीन हो गये। इसका मूल्यांकन भी पंकज जी जैसे सहृदय साधक-साहित्यकार ही कर सकते है।



एक और रोमांचक घटना, जिसका चश्मदीद गवाह इस लेख का लेखक भी है, को हिन्दी जगत के सामने लाना चाहता हूं। बात 68-69 के किसी वर्ष की है– ठीक से वर्ष याद नहीं आ रहा। दुमका में कलेक्टरेट क्लब द्वारा आयोजित एक साहित्यिक आयोजन में रवीन्द्र साहित्य के अधिकारी विद्वान डॉ० हंस कुमार तिवारी मुख्य अतिथि थे। संगोष्ठी की अध्यक्षता पंकज जी कर रहे थे। कवीन्द्र रवीन्द्र से संबंधित डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को उपस्थित विद्वत्‌ समुदाय ने धैर्यपूर्वक सुना। संभाषण समाप्त हुआ और प्रश्नोत्तर का दौर चला। इसमें भी तिवारी जी ने प्रेमपूर्वक श्रोताओं की शंकाओं का समाधान करने की कोशिश की। यहां यह उल्लेख करना जरूरी है कि संताल परगना बंगाल से सटा हुआ है और बंगला यहां के बड़े क्षेत्र में बोली जाती है। इसलिये बंगला साहित्य के प्रति यहां के निवासियों में अभिरूचि जन्मजात है। चैतन्य महाप्रभु, रामकृष्ण परमहंस, बामा खेपा, पगला बाबा, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, बंकिमचन्द्र चटर्जी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर तथा शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय समेत सैकड़ों महानुभावों को इस क्षेत्र के लोग उसी तरह से अपना मानते है जैसे बंगाल के लोग। यहां के महान भक्त-कवि भवप्रीतानंद ओझा की सारी रचनाएं बंगला में ही है। अत: यहां के विद्वत्‌ समुदाय ने तिवारी जी पर रवीन्द्र-साहित्य से संबंधित प्रश्नों की बौछार की थी, जिनका यथासंभव उत्तर प्रेम और आदर के साथ तिवारी जी ने दिया था। इसके बाद अध्यक्षीय भाषण शुरू हुआ, जिसमें पंकज जी ने बड़ी विनम्रता, परंतु दृढ़तापूर्वक रवीन्द्र साहित्य से धाराप्रवाह उद्धरण-दर-उद्धरण देकर अपनी सम्मोहक और ओजमयी भाषा में डॉ० तिवारी की प्रस्थापनाओं को नकारते हुए अपनी नवीन प्रस्थापना प्रस्तुत की। पंकज जी के इस सम्मोहक, परंतु गंभीर अध्ययन को प्रदर्शित करने वाले भाषण से उपस्थित विद्वत्‌ समाज तो मंत्रमुग्ध और विस्मृत था ही, स्वयं डॉ० तिवारी भी अचंभित और भावविभोर थे। पंकज जी के संभाषण की समाप्ति के बाद अभिभूत डॉ० तिवारी ने दुमका की उस संगोष्ठी में सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि रवीन्द्र-साहित्य का उस युग का सबसे गूढ़ और महान अध्येता पंकज जी ही है। इस ऐतिहासिक क्षण के गवाह मेरे अतिरिक्त सैकड़ों लोग आज भी दुमका शहर में मौजूद है। ऐसे व्यक्तित्व और प्रतिभा के मालिक पंकज जी अगर दंत-कथाओं के नायक बनते चले गये तो इसमें आश्चर्य किस बात का!



ये दो प्रकरण पंकज जी की प्रकांड विद्वत्ता और असाधाराण ज्ञान की झलक प्रस्तुत करने के दो छोटे-छोटे प्रसंग मात्र है। लेकिन अगर पंकज जी मात्र विद्वान ही होते तो शायद महान नहीं होते। वे तो गांधी के स़च्चे शिष्य के रूप में ’श्रम’ की गरिमा को सर्वाधिक महत्व देने वाले सच्चे कर्म-योगी थे। शारिरिक श्रम का अद्‌भुत उदाहरण भी उन्होंने अपने कर्म-शंकुल जीवन में पेश किया है। इस क्षेत्र के लोग आमतौर पर पंकज जी के जीवन के उस दौर की कहानी से परिचित तो है ही जब उन्होंने आजीविका हेतु अपनी किशोरावस्था में अखबार बांटने वाले हॉकर का भी काम किया था। बल्कि एक बार तो “चार आने” की पगार हेतु वे म्युनिसिपैलिटी में झाड़ू लगाने की नौकरी के लिये भी अभ्यर्थी बने थे, यह बात अलग है कि जन्मना ब्राह्मण होने के चलते उन्हें यह नौकरी नहीं मिली थी। जरा दिमाग पर जोर डालिये। 1930 के दशक की यह बात है। बैद्यनाथधाम देवघर, कर्मकांडी ब्राह्मणों और पंडों का गढ़। वहां कुलीन मैथिल ब्राह्मण, ऐतिहासिक घाटवाल घराने का बालक अगर ऐसा क्रांतिकारी व्यक्तित्व का विकास कर रहा हो तो निश्चय ही यह असाधाराण बात थी। संभवत: गांधी के साहचर्य और सेवा ने उन्हें अंदर से एकदम बदल दिया होगा, तभी तो तत्कालीन कट्टरपंथी सामाजिक दौर में भी उन्होंने ऐसा आत्मबल दिखाया था, जिसमें शारिरिक श्रम की गरिमा की प्रतिष्ठापना की सुगंध थी।



शारिरिक श्रम की गरिमा को उच्च धरातल पर स्थापित करने का एक अन्य सुन्दर उदाहारण पंकज जी ने पेश किया है। 1968 में उन्हें मधुमेह (डायबिटीज) हो गया। उन दिनों मधुमेह बहुत बड़ी बीमारी थी। गिने-चुने लोग ही इस बीमारी से लड़कर जीवन-रक्षा करने में सफल हो पाते थे। चिकित्सक ने पंकज जी को एक रामवाण दिया — अधिक से अधिक पसीना बहाओ। फिर क्या था! पंकज जी ने वह कर दिखाया, जिसका दूसरा उदाहरण साहित्यकारों की पूरी विरादरी में शायद अन्यत्र है ही नहीं। संताल परगना की सख्त, पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन। पंकज जी ने कुदाल उठाई और इस पथरीली जमीन को खोदना शुरु कर दिया। छ: महीने तक पत्थरों को तोड़ते रहें, बंजर मिट्टी काटते रहे और देखते ही देखते पथरीली ऊबड़-खाबड़ परती बंजर जमीन पर दो बीघे का खेत बना डाला। हां, पंकज जी ने– अकेले पंकज जी ने कुदाल-फावड़े को अपने हाथों से चलाकर, पत्थर काटकर दो बीघे का खेत बना डाला। खैरबनी गांव में उनके द्वारा बनाया गया यह खेत आज भी पंकज जी की अदम्य जीजीविषा और अतुलनीय पराक्रम की गाथा सुना रहा है। क्या किसी और साहित्यकार या विद्वान ने इस तरह के पराक्रम का परिचय दिया है?



पिछले दिनों अदम्य पराक्रम का अद्‍भुत उदाहरण बिहार के दशरथ मांझी ने तब रखा जब उन्होंने अकेले पहाड़ काटकर राजमार्ग बना दिया। आदिवासी दशरथ मांझी तक पंकज जी की कहानी पहुंची थी या नहीं हमें यह नहीं मालूम, परन्तु हम इतना जरूर जानते है कि पंकज जी या दशरथ मांझी जैसे महावीरों ने ही मानव जाति को सतत प्रगति-पथ पर अग्रसर किया है। युगों-युगों तक ऐसे महामानव हम सब की प्रेरणा के स्रोत बने रहेंगे। क्या उनकी इन पंक्तियों में भी इसी पराक्रम का संकेत नहीं मिलता है :–





बंधु लौह वह बन जा जिससे

भिड़कर चट्टानें भी टूटें

मरु में भी जीवन-मय निर्झर

तेरे चरण--चिन्ह से फूटें

कर्तव्य-परायणता और पंकज जी एक दूसरे के पर्याय थे। इसकी भी एक झलक प्रस्तुत करना चाहता हूं। बात उन दिनों की है जब पंकज जी बामनगामा उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में शिक्षक थे। अपने गांव से ही आना जाना करते थे। दोनों गांवों के बीच अजय नदी है। उन दिनों अजय नदी पर पुल नहीं था। परिणामत: बरसात के मौसम में नदी के दोनों किनारे के गांव एकदम अलग-अलग हो जाते थे। सम्पर्क से पूरी तरह कट जाते थे। पहाड़ी नदियों की बाढ़ की भयावहता तो सर्वविदित ही है। उसमें भी अजय नदी के बाढ़ की विकरालता तो गांव के गांव उजाड़ देती थी। जान-माल की कौन कहें, सैकड़ों मवेशी तक बह जाते थे। लेकिन वाह री पंकज जी की कर्तव्यनिष्ठा — बारिश के महिने में विनाशलीला का पर्याय बन चुकी अजय नदी को तैरकर अध्यापन हेतु पंकज जी स्कूल आते-जाते थे। एक बर्ष ऐसी भयंकर बाढ़ आयी कि मवेशी तक बहने लगे। जिस बाढ़ ने भैस जैसी मवेशी को बहा लिया उस बाढ़ को पंकज जी ने हरा दिया। स्कूल से लौटते वक्त उन्होंने उफनती नदी में छलांग लगाई और तैरते हुए वे भैस तक पहुंच गये। भैस की पुंछ पकड़ी और अपने साथ भैस को भी बाढ़ से बाहर निकाल दिया। भैस लेकर घर चले आये। इस अद्‌भुत प्रसंग का सहभागी बनने और उस भैस को देखने हेतु आस-पास के कई गांवों के सैकड़ों लोग पंकज जी के घर पहुंच गये। उनकी बहादुरी और जानवरों के प्रति करुणा की कहानी को सुनकर सबों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। लेकिन पंकज जी के लिये तो यह रोजमर्रा का काम था। वे नदी के किनारे पहुंचकर एक लंगोट धारण किये हुए, बाकि सभी कपड़ों को एक हाथ में उठाकर, पानी से बचाते हुए, दूसरे हाथ से तैरकर नदी को पार करते थे। कुचालें मारती हुई अजय नदी की बाढ़ एक हाथ से तैरकर पार करने वाला यह अद्‍भुत व्यक्ति अध्यापन हेतु बिला-नागा स्कूल पहुंचता था। क्या कहेंगे इसे आप! शिष्यों के प्रति जिम्मेदारी, कर्तव्य परायणता या जीवन मूल्यों की ईमानदारी। “गोविन्द के पहले गुरु” की वन्दना करने की संस्कृति अगर हमारे देश में थी तो निश्चय ही पंकज जी जैसे गुरुओं के कारण ही। ऐसी बेमिसाल कर्तव्यपरायणता, साहस और खतरों से खेलने वाले व्यक्तित्व ने ही पंकज जी को महान बनाया था, जिनकी गाथाओं के स्मरण मात्र से रोमांच होने लगता है, तन-बदन में सिहरन की झुरझुरी दौड़ने लगती है।



पंकज जी एक तरफ तो खुली किताब थे, शिशु की तरह निर्मल उनका हृदय था, जिसे कोई भी पढ़, देख और महसूस कर सकता था। दूसरी तरफ उनका व्यक्तित्व इतना बहुआयामी था और उनका कर्म-शंकुल जीवन इतना परिघटनापूर्ण था कि वे अनबूझ पहेली और रहस्य भी थे। निरंतर आपदाओं को चुनौती देकर संघर्षरत रहनेवाले पंकज जी के जीवन की कुछ ऐसी घटनाएं जिसे आज का तर्किक मन स्वीकार नहीं करना चाहता है, लेकिन उनसे भी पंकज जी के अनूठे व्यक्तित्व की झलक मिलती है। 1946-47 की घटना है, पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ समेत कई विद्यालयों में पढा़ते हुए 1945 में मैट्रिक पास करते है। तदुपरांत इंटरमीडिएट की पढा़ई के लिये टी० एन० जे० कॉलेज, भागलपुर में दाखिला लेते है। रहने की समस्या आती है। छात्रावास का खर्च उठाना संभव नहीं है। ऐसी स्थिति में उन्हें अपने शिक्षक ’परमेश’ की पंक्तियों से प्रेरणा मिलती है — –







गुलगुले पर्यंक पर हम लेट क्या सुख पाएंगे

भूमि पर कुश की चटाई को बिछा सो जाएंगे।

एक छोटी सी दियरी से जब रोशनी का काम हो

क्या करेंगे लैम्प ले जब एक ही परिणाम हो।

पंकज जी उहापोह की स्थिति से उबरते हुए विश्वविद्यालय के पीछे टी एन बी कालेज और परवत्ती के बीच स्थित पुराने ईसाई कब्रिस्तान की एक झोपड़ी में पहुंचते है। वहां एक बूढ़ा चौकीदार मिलता है। उस वीराने में अकेला मनुष्य। चारों ओर कब्र ही कब्र। भांति-भांति के कब्र। मिट्टी के कब्र, सीमेंट के कब्र, पत्थर के कब्र और संगमरमर के कब्र, बड़ी कब्र और छोटी कब्र भी। कब्रों के नीचे दफन लाश। वहां अकेला चौकीदार। पंकज जी और चौकीदार में बातें होती है और पंकज जी को उस कब्रिस्तान में आश्रय मिल जाता है…. दिन भर की जद्दोजहद के बाद रात गुजाराने का आश्रय। पहली रात है — अंदर से मन में भय का कंपन्न होता है, लेकिन चौकीदार की उपस्थिति से मन आश्वस्त होता है और मुर्दों के बीच पंकज जी की रात गुजर जाती है। सुबह की लाली रात की भयावहता को परे ढकेल देती है। फिर दिनभर की भागदौड़ और रात्रि विश्राम हेतु बूढ़े चौकीदार की वही झोपड़ी। लेकिन यह क्या आज चौकीदार नहीं दिख रहा। शायद कहीं गया होगा, सोचकर पंकज जी सो जाते है। रातभर गहरी नींद में रहते है, दिन भर फिर अपनी दैनिकी में व्यस्त। रात फिर उसी झोपड़ी में कटती है, लेकिन चौकीदार कहीं नहीं है। कहां गया वह चौकीदार? क्या वह सचमुच चौकीदार था या कोई भूत जिसने पंकज जी को उस परदेश में आश्रय दिया था? लोगों का मानना है कि वह भूत था ; सच चाहे कुछ भी हो लेकिन कब्रिस्तान में अकेले रहकर पढाई करने का कोई उदाहरण और भी है क्या?



1954 में पंकज जी दुमका आ जाते है। उनके चाहने वाले उन्हें अपने साथ रखते है, लेकिन पंकज जी किसी के घर अधिक दिनों तक रहना नहीं चाहते। अकेले उस छोटे से शहर में मकान ढूंढने लगते है। उस समय का दुमका आज का दुमका नहीं है। गांधी मैदान, बगल में लगने वाली साप्ताहिक हाट और जिला परिषद कार्यालय से टीनबाजार तक जाती हुई कोलतार की पतली सड़क। सड़क के इर्द-गिर्द चाय पान और रोजमर्रा के काम की दो-चार दुकाने। बीच में दुमका बस-स्टैंड — बस यहीं था दुमका। अंग्रेजों ने शहर से दूर रहने के लिये कुछ कोठियां बनवाई थी, जो खाली पड़ी हुई थी। कोठियों के आस-पास बस ड्राईवर और मजदूरों ने अड्डा जमा रखा था। खूंटा बांध के पीछे की एक कोठी पंकज जी को पसंद आ गई। लोगों का मानना था कि वहां भूत रहते थे। कहा तो यहां तक जाता था कि भूतों के डर से अंग्रेजी फौज भी वहां से भागकर चली गयी थी। लेकिन धुन के धनी पंकज जी को भला भूतों से क्या डर था। पहले भी तो वे भूतों के साथ भागलपुर में रह ही चुके थे। अत: पंकज जी ने उस भुताहा कोठी को ही अपना आवास बना लिया। लोगों का कहना हैं कि भूत ने पंकज जी को परेशान करना शुरू कर दिया। पवित्र चरित्र और वजनदार आसन के कारण भूत ने इन्हें कभी प्रत्यक्ष दर्शन तो नहीं दिया, परन्तु कभी खुन, तो कभी हड्डियों को बिखेरकर इनकों डराने की कोशिश की। भूतों के इस उत्पात को पंकज जी ने चुनौती के रूप में लिया और आंगन में खड़े अनार का पेड़, जिसपर भूत का बसेरा माना जाता था को कटवाने का निश्चय कर लिया। मजदूरों को पेड़ काटने का आदेश दिया, परंतु किसी मजदूर ने हिम्मत नहीं दिखाई। अंत में खुद ही पेड़ काटने का निश्चय करके पंकज जी ने टीनबाजार से एक कुल्हाड़ी खरीदी। भूत परेशान हो गया और रात में कातर होकर पंकज जी के सामने गिड़गिड़ाने लगा कि मेरा बसेरा मत उजाड़ो। पंकज जी ने भी कहा कि मुझे तंग करना छोड़ दो। दोनों में समझौता हुआ कि जबतक अन्यत्र कोई अच्छी जगह नहीं मिल जाती, पंकज जी वहीं रहेंगे। जगह मिलते ही कोठी छोड़ देंगे। तबतक उन्हें तंग नहीं किया जाएगा। बदले में पंकज जी को भी अनार का पेड़ नहीं काटने का आश्वासन देना पड़ा। और इस तरह पंकज जी और भूत मित्र हो गये, एक-दूसरे के सहवासी हो गये। पंकज जी ने भूत के कार्यों में खलल नहीं डाली और भूत ने पंकज जी को अनजानी जगह में एक बार फिर पांव पसारने में मदद की। पंकज जी की भूत के साथ मित्रता की ये दो कहानियां भी जमाने के लिये उदाहरण बन गयी। लोगों ने पढा-सुना था कि लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास को भूत ने सफलता दिलाई थी, यहां भी लोगों ने जाना सुना कि पंकज जी दूसरे लोकनायक थे, जिनकी बहुविध सफलता में भूतों की भी थोड़ी भूमिका थी।



पंकज जी के व्यक्तित्व के साथ इतनी परिघटनाएं गुम्फित है कि पंकज जी का व्यक्तित्व रहस्यमय लगने लगता है। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के हर पहलू में चमत्कार ही चमत्कार बसा हुआ है। इन्हीं कथानकों ने पंकज जी की अक्षय कीर्ति को “ज्यों-ज्यों बूढ़े स्याम-रंग” की तर्ज पर अधिकाधिक ’उज्वल’ बना दिया है। इसलिये पंकज जी को कवि, एकांकीकार, समीक्षक, नाटककार, रंगकर्मी, संगठनकर्ता, स्वाधीनता सेनानी जैसे अलग-अलग खांचों में डालकर– उनका सम्यक्‌ मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं। इसीलिये तो 30 जून 2009 में दुमका में सम्पन्न “आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा पंकज 90वीं जयन्ती समारोह” में जहां डॉ० प्रमोदिनी हांसदा उन्हें वीर सिद्दो-कान्हों की परंपरा में संताल परगना का महान सपूत घोषित करती हैं, वहीं प्रो० सत्यधन मिश्र जैसे वयोवृद्ध शिक्षाविद्‌ पंकज जी को महामानव मान लेते है। एक ओर जहां आर. के. नीरद जैसे साहित्यकार-पत्रकार पंकज जी को “स्वयं में संस्थागत स्वरूप थे पंकज” कहकर विश्लेषित करते है, वहीं दूसरी ओर राजकुमार हिम्मतसिंहका जैसे विचारक-लेखक पंकज जी को महान संत-साहित्यकार की उपाधि से विभूषित करते है, लेकिन फिर भी पंकज जी का वर्णन पूरा नहीं हो पाता। ऐसा क्यों है? वास्तव में पंकज जी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व में एक अलौकिक चमत्कार का सम्मोहन था, मानो पंकज जी वशीकरण के सिद्ध पुरूष हो। जिन्होंने भी उन्हें देखा, पंकज जी उनकी आंखों में सदा-सर्वदा के लिये बस गये। जिन्होंने भी उन्हें सुना, वे आजीवन पंकज जी के मुरीद बन गये। लंबा और डील-डौल युक्त कद-काठी, तना हुआ सीना, अधगंजे सिर के नीचे दमकता हुआ ललाट…फ़िर घने भ्रूरेखों से आच्छादित करूणामय नेह-पूरित सरस नेत्र-द्वय… नासिका के ठीक नीचे चिरहासमय अधरोष्ठ… दैदीप्यमान मुखमंडल… रेखाओं से भरा ग्रीवाक्षेत्र और फिर खादी का स्वेत धोती-कुर्ता का परिधान… पांव में बाटा की चप्पल और इन सबके पीछे छिपा कठोर साधना, दृढ़ सिद्धांत, सुस्पष्ट जीवन-दर्शन तथा अतुलनीय चरित्र के स्वामी पंकज जी का प्रखर व्यक्तित्व।परन्तु, वास्तव में महामानव दिखने वाले पंकज जी भी हाड़-मांस के पुतले में ही थे।



इस लेख में पंकज जी के जीवन से सम्बन्धित सच्ची घटनाओं के आधार पर ही उनका रेखा-चित्र खींचने का प्रयास किया गया है। इसमें कुछ ऐसे प्रसंग भी है, विशेष कर भूतों से इनकी मित्रता के प्रसंग, जिन्हें 21वीं सदी का तार्किक मन सहज ही स्वीकार नहीं कर सकता है। लेकिन लोग इन विवरणों के आधार पर चाहे जो भी निष्कर्ष निकाले, मेरे जैसे लोगों के लिये तो यह बात अधिक महत्वपूर्ण है कि इस बात की पड़ताल हो कि पंकज जी का व्यक्तित्व आखिर क्या था? क्या था समाज को पंकज जी का योगदान? क्या है उनका इतिहास में स्थान? क्यों उनके आस-पास इतनी कहानियां गढ़ी गयी है? आखिर उनके चमत्कार का रहस्य दिनों-दिन क्यों गहराते जा रहा है और वे अनुश्रुति तथा दंतकथाओं में समाते जा रहे है? क्या उपेक्षा के पत्थर तले दबाए गये संताल परगना की विभूतियों का वृतांत्त सिर्फ कथानकों और जनश्रुतियों में ही उलझा रहेगा या इतिहास और साहित्य के विद्यार्थी की शोधपूर्ण दृष्टि इन महानुभावों पर भी पड़ेगी और रहस्य के आवरण से बाहर निकालकर इनका सम्यक्‌ मूल्यांकन होगा? महेश नारायण से लेकर पंकज जी तक की तीन पीढ़ियों के महान रचनाकारों की आत्मा आज भी ऐसे शोधार्थी और समीक्षक की प्रतिक्षा कर रही है जो इनके योगदानों को रहस्य के आवरण से मुक्त करके बृहत्तर हिन्दी जगत में इनका समुचित स्थान निरूपित कर सकें।



pankaj jee


गीत एवं नवगीत के स्पर्श-बिन्दु के कवि ’पंकज’










डॉ० रामवरण चौधरी





16 सितम्बर 1977 की आधी रात को ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ हमें छोड़ गये। मात्र 58 वर्ष की उम्र में एक सुन्दर तारा टूट गया। इसके 20 वर्ष पीछे लौट जाएं तो संभवत: 1957 या इसके भी कुछ पूर्व वे साहित्य साधना के शीर्ष पर रहे होंगे। इस अनुमान की भाषा को इसलिये बोलना पड़ रहा क्योंकि उन दिनों के कवि प्राय: आत्मविज्ञापन के प्रति सचेत नहीं रहा करते थे। परिणामत: पंकज की काव्य-यात्रा का कोई निश्चित वृत्तान्त मेरे पास नहीं है, हैं तो, बस, उनके गीत — उनकी कविताएं।



पंकज जी एस. पी. कालेज दुमका में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। इसके पूर्व वे कई स्कूल के टीचर थे, देवघर के हिन्दी विद्यापीठ में भी कई वर्षों तक अध्यापन किया था।



यदि पंकज जी की आयु लम्बी होती और समय से मैं एस. पी. कालेज आया होता तो साथ कार्य करने का मीठा अनुभव मेरे साथ होता। मगर ऐसा हो नहीं सका।



दुमका में उत्पल जी मेरे अभिभावक थे। जब भी मैं कोई अपना गीत उत्पल जी को सुनाता तो वे पंकज जी के गीतों की चर्चा छेड़ देते थे।



हिन्दी और अंगिका के साधक साहित्यकार सुमन भी कुछ दिन पूर्व हमें छोड़कर चले गये। ’भाषा संगम’ से प्रकाशित बाँस-बाँस बाँसुरी में ’अतीत की प्रेरणायें’ स्तम्भ में हम लोगों ने पंकज जी के दो गीत प्रकाशित किये हैं। इन दोनों ही गीतों ने मुझे मुग्ध किया है।



पंकज के गीतों की दो एक पंक्तियाँ सुमन जी सुना दिया करते थे। बड़ी तृप्ति मिलती थी।



2005 में मैंने डॉ० चतुर्भुज नारायण मिश्र एवं जगदीशमंडल जी ने पंकज जी का पुण्य दिवस मनाने का निर्णय लिया था। इसी क्रम में दोनों प्रकाशित पुस्तकें ’स्नेह-दीप’ एवं ’उद्‍गार’ गौर से पढ़ने का सुयोग मिला। मैं अभिभूत हुआ मगर दु:ख भी हुआ कि संताल परगना का इतना सिद्ध कवि आज तक गुमनाम रहा।



कवि की मृत्यु नहीं होती। 30 जून 2009 को पंकज जी की भव्य 90वीं जयन्ती मनायी गयी। इस कार्यक्रम में उनके तीनों ही पुत्रों ने, कहिए समूचे परिवार ने, कह सकते हैं कि सम्पूर्ण दुमका ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और लगा कि पंकज जी जीवित हो उठे हैं। बहुत अच्छा लगा। दुनिया के और लोग लेने आते हैं, कवि देने आता है।



आज वैश्वीकरण के दौर में बाजारवाद ने आदमी के जीवन को बदल दिया है। परिणाम है कि जो व्यक्ति नैतिकता और मूल्य की बात करता है, उसे ’छाड़न’ का आदमी माना जाता है। गांव गांव नहीं रहा, समाज समाज नहीं रहा। हर आदमी दौड़ रहा है, उसकी दौड़ अपनी और अकेली है। भीड़ के बीच का यह अकेलापन जीवन को घेरता चला जा रहा है। साहित्य और संस्कृति में इसके प्रतिबिम्ब स्पष्ट नजर आते है। एक तरफ आदि़मकाल से चली आती हमारी परंपराएं है, दूसरी तरफ इन पर चोट करती पश्चिम से आने वाली आंधियां है। भारतीय जीवन-मूल्य बेचारा लहरों का राजहंस बना थपेड़ों के बीच डोल रहा है।



खड़ी बोली के विकास के साथ छायावाद के नाम से एक बड़ा काव्यांदोलन खड़ा हुआ जिसके चार विशिष्ट कवि — प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी वर्मा हुए। छायावाद के बाद प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता, नयी कहानी, नवगीत आदि के नाम से हिन्दी कविता के तेवर बदलते रहे और बदल रहे हैं।



पंकज जी जब छात्र रहे होंगे तो छायावाद की धमस का काल रहा होगा, जब शिक्षक बने होंगे तो प्रगतिवाद की प्रतिध्वनियां सुनी होंगी और जब साहित्य साधना में पूरी तरह सन्नद्ध हुए होंगे तो प्रयोग का दौर शुरू हो चुका होगा।



इस प्रकार विचार करने से निष्कर्ष आता है कि पंकज जी के भीतर के गीतकार ने मैथिली शरण के गीतों को पीया होगा। महादेवी, पंत, निराला, दिनकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, हंस कुमार तिवारी, द्विज, गोपाल सिंह नेपाली आदि के मनहर गीत इनकी प्रेरणा के केन्द्र में रहे होंगे।



महाप्राण निराला ने छंद के बंधन तोड़े थे, किन्तु कविता के अंतर्लय को प्राण-वायु के रूप में स्वीकार किया था। ’जुही की कली’ और ’राम की शक्ति पूजा’ का अंतर्नाद एवं प्रवाह अन्यत्र शायद ही मिले कहीं। मगर ’नई कविता’ के नाम पर जो आंदोलन आया उसमें छंद और लय से प्राय: कविता को विलगा दिया। अत: इस दौर की कविताएं (कुछ को छोड़कर) छिन्न लगती है। छंद से छिन्न कविता जनमानस से भी टूट गयी। इसीलिये राजेन्द्र गौतम ने लिखा है, और ठीक ही लिखा है कि “पचास वर्षों की हिन्दी की छंदमुक्त कविता में देश का ’एरियल सर्वे’ ही मिलता है…. समकालीन कविता का बहुलांश ऐसा है जिसमें ऋतुएं गायब हैं, गांव अनुपस्थित हैं, प्रकृति का दूर-दूर तक अस्तित्व नहीं” (आजकल, अप्रेल 2009, पेज 17)।



कविता यदि आज भी जीवित है, लोकजीवन से इसका सीधा सरोकार है तो गीतों के ही कारण। क्योंकि गीत छूता है, झंकृत और आह्लादित करता है।



पंकज जी के गीत ही नहीं, इनकी कविताएं — सभी की सभी — छंदों के अनुशासन में बंधी हैं।



गीत यदि बिंब है तो संगीत इसका प्रकाश है, रिफ्लेक्शन है, प्रतिबिंब है। गीत का आधार शब्द है और संगीत का आधार नाद है। संगीत गीत की परिणति है। जिस गीत के भीतर संगीत नहीं है वह आकाश का वैसा सूखा बादल है, जिसके भीतर पानी नहीं होता, जो बरसता नहीं है, धरती को सराबोर नहीं करता है।



पंकज जी के गीतों में सहज संगीत है, इन गीतों का शिल्प इतना सुघर है कि कोई गायक इन्हें तुरत गा सकता है।



चोटी के नवगीत का देवेन्द्र शर्मा ’इन्द्र’ गीत और नवगीत के अन्तर्संबंध को व्याख्यायित करते हुए कहते है — “पारंपरिक गीत और नवगीत में जनक-जन्य और कारण-कार्य संबद्धता है। नवगीत ने पूर्वतन, काव्यरूढियों को जहां नकारा है, वहां परंपरा के प्राणवाही तत्वों का अंतर्भाव भी किया है। दोनों ही छंदोबद्ध, लयात्मक और गेय होते हैं, किन्तु जहां तक इनकी अंतर्वस्तुओं का संबंध है, वहां ये एक-दूसरे से भिन्न है” (आजकल, अप्रेल 2009 पेज 32)।



यह सच है कि नवगीत की जमीन सामाजिक संदर्भों की माटी से बनी है। यहां व्यक्तिगत प्रेमरूदन, भावुक संवेदन, स्वप्न-संसार से ज्यादा सामाजिक विसंगतियां, विद्रोह की मनसिकता बलवत्तर है।



तो क्या पंकज के गीतों में आत्मरूदन एवं स्वप्न ही है केवल? या कुछ और?



ऋगवेद के दशम्‌ मंडल में कई ऋचाएं मिल जाती है जब थका हुआ सवित(सूर्य) कभी उषा, कभी संध्या के आंचल में विश्राम करता है। चाहे कोई तीर्थ यात्रा हो या जीवन-यात्रा, चलने के लिये दो पल का आराम तो चाहिये ही। फिर यदि कोई मनमीत साथ हो तो विश्राम में कुछ और मजा आ जाता है। यह विश्राम क्यों? क्योंकि खोई उर्जा मिल जाए, थोड़ी जिजीविषा मिल जाए, थोड़ी स्फूर्ति मिल जाए। यह विश्राम रूकना नहीं है, बल्कि दुलकी चाल चलने की तैयारी मात्र है। पंकज जी लिखते है —







हम राही है विर में छन भर

फिर तो अपनी राह चलेंगे

आओ उर की गांठ खोल लें

अपनी अपनी बात कहेंगे।

कवि को तो चलना ही चलना है, चलते ही रहना है। यह चलना — संघर्षवाची चलना है। निरंतरता इसके भीतर की आकांक्षा है। मगर कवि दो पल विरमना चाहता है। क्यों? इसलिये कि मन की गांठों को खोलना है। मन की गांठ बहुत वजनदार होती है। उसके खुलते ही मन हल्का हो जाता है, पांवों में पंख लग जाते है। आगे पंकज जी खुद लिखते है —







नूतन परिचय का बल पाकर

कल की दूरी तय कर लेंगे।

लगता है पंकज जी को गीत की नाजूकता का पूरा ही ज्ञान है। “हम राही है विर में छन भर”. यहां तत्सम क्षण का प्रयोग किया जाता तो ’क्ष’ और ’ण’ दोनों ही कठोर वर्ण होते जबकि ’छन’ में दोनों ही कोमल वर्ण है तथा गांव की माटी की सुगंध है, सो अलग से।



एक दूसरा गीत देखा जाए —







गुमसुम गुमसुम चांद गगन में और उनींदी रात है

जानें रह रह याद आ रही किस अतीत की बात है

प्रथम गीत 16 मात्राओं का है, द्वितीय गीत 28 मात्राओं का। कहीं एक मात्रा भी इधर-उधर नहीं, कहीं यतिभंग नहीं, ताल-तुक में सोलह आने सधे हुए।



गीत के अतिरिक्त पंकज जी ने ढेर सारी कविताएं लिखी हैं जिन्हें आप ’स्नेह-दीप’ और ’उद्‌गार’ में देख सकते है। ये कविताएं बहुरंगिनी हैं। हां, राष्ट्रप्रेम की धारा इनमें मुख्य है, क्योंकि आजादी के संघर्ष को इन्होंने जिया था, अनुभव किया था।



मगर पंकज जी को छायावादी कवि कहना उचित नहीं होगा। ये आकाशचारी नहीं रहे। जमीन का खुरदुरापन, ढेलाधक्कर का सामना इन्हें सदा करना पड़ा था। साथ ही, माटी की सुगंध का भरापूरा एहसास इनके गीतों में मिलता है। इन्हें और कुछ नहीं कहकर माटी का गीतकार कहना मुझे ज्यादा ही अच्छा लगता है।



सुना है इनके आलोचनात्मक निबंध तत्कालीन उच्चस्तरीय पत्रिकाओं में छपते थे। नाट्‌य-विद्या में भी उनकी अच्छी पैठ थी। उनकी बहुत सारी रचनाएं अभी भी अप्रकाशित पड़ी है। यह शब्द जान सुनकर मन दुखित होता है। क्या संताल परगना के साहित्यकारों की यहीं नियति है?



pankaj jee


स्मृतियों के आईने में — आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’




भूजेन्द्र आरत



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30 जनवरी, 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की हत्या बिड़ला मंदिर, नई दिल्ली के प्रार्थना सभागार से निकलते समय कर दी गई थी। इससे सम्पूर्ण देश में शोक की लहर दौ़ड़ गई। संताल परगना जिले (अब प्रमंडल) का छोटा-सा गाँव सारठ वैचारिक रुप से प्रखर गाँधीवादी तथा राष्ट्रीय घटनाओं से सीधा ताल्लुक रखने वाला गाँव के रूप में चर्चित था। इस घटना का सीधा प्रभाव इस क्षेत्र पर भी पड़ा। सारठ क्षेत्र के ग्रामीण शोकाकुल हो उठे। 31 जनवरी, 1948 को राय बहादुर जगदीश प्रसाद सिंह विद्यालय, बमनगावाँ के प्रांगण से छात्रों, शिक्षकों, इस क्षेत्र के स्वतंत्रता सेनानियों के साथ-साथ हजारों ग्रामीणों ने गमगीन माहौल में बापू की शवयात्रा निकाली थी, जो अजय नदी के तट तक पहुंचीं। अजय नदी के पूर्वी तट पर बसे सारठ गाँव के अनगिनत लोग श्मसान में एकत्रित होकर बापू की प्रतीकात्मक अंत्येष्टि कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे थे। मैं उस समय करीब 8-9 वर्ष का बालक था, हजारों की भीड़ देखकर, कौतुहलवश वहाँ पहुंच गया। उसी समय भीड़ में से एक गंभीर आवाज गूंजी कि पुज्य बापू के सम्मान में ’पंकज’ जी अपनी कविता के माध्यम से श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। इसके बाद भीड़ से निकलकर धोती और खालता (कुर्ता) धारी एक तेजस्वी व्यक्ति ने अपनी भावपूर्ण कविता के माध्यम से पूज्य बापू को जब श्रद्धांजलि अर्पित की तो हजारों की भीड़ में उपस्थित लोगों की आंखें गीली हो गई। हजारों लोग सुबकने लगे। मुझे इतने सारे लोगों को रोते, कलपते देखकर समझ नहीं आ रहा था कि आखिर क्या हो गया है जो एक साथ इतने सारे लोग रो रहे हैं। कैसा अद्‍भुत था पंकज जी द्वारा अर्पित उस काव्य श्रद्धांजलि का प्रभाव ! उसी समय पहली बार मेरे बाल-मस्तिष्क के स्मृति-पटल पर पंकज जी का नाम अंकित हो गया, जो कालांतर में उनसे मेरी अति निकटता के कारण, दिन-प्रतिदिन और मजबूत होता चला गया।



अब आईये हम आपको पंकज जी के पैतृक गाँव खैरबनी लिये चलते है। सारठ गाँव के उत्तर में एक जोर (छोटी पहाड़ी नदी) है, जिसका नाम ही है “बड़का जोर”। यह जोर कुछ दूर जाकर अजय नदी में मिलती है। इसी जोर के उस पार, उत्तर दिशा में, एक छोटा सा गाँव है खैरबनी। इसी गाँव में आज से 90 वर्ष पूर्व वहां के(खैरबनी के) घाटवाल (जमींदार) ठाकुर वसंत कुमार झा जी के घर एक ’रत्न’ ने जन्म लिया जो आगे चलकर साहित्य एवं शिक्षा-जगत में आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ के नाम से विख्यात हुआ। आज से 90 वर्ष पूर्व सारठ क्षेत्र में एक प्राथमिक विद्यालय को छोड़कर और कुछ भी नहीं था। यह विद्यालय उस समय के सारठ के घाटवाल (जमींदार) के अहाते में चला करता था। इस अंचल के बच्चें अपनी प्राथमिक शिक्षा की जरूरतें इसी विद्यालय में आकर पूरी करते थे। मध्य-वित्त परिवार के बच्चों की प्रारंभिक शिक्षा के लिये दूसरा कोई उपाय भी नहीं था। जो बड़े गृहस्थ हुआ करते थे, वे अपने बच्चों को शिक्षा के लिये देवघर भेजा करते थे। लेकिन देवघर जाकर शिक्षा ग्रहण करना इतना सुलभ और आसान नहीं था। उन दिनों देवघर-सारठ मार्ग में पाँच छोटी-छोटी नदियां मिलती थीं। बरसात में पानी से भरी होने के कारण आने-जाने के मार्ग को ये दुर्गम बना देती थी, लेकिन ऐसी विषम परिस्थियों में भी पंकज जी ने अपनी शैक्षणिक यात्रा देवघर हिन्दी विद्यापीठ के छात्र के रूप में वहां के शहीद आश्रम में रहकर प्रारंभ की, जहां से उन्होंने विद्यापीठ की उच्चतम उपाधि “साहित्यालंकार” प्राप्त की।



पंकज जी जब हिन्दी विद्यापीठ के छात्र थे, उन दिनों हिन्दी विद्यापीठ के शिक्षक के रूप में डॉ० लक्ष्मी नारायण सुधांशु (जो आगे चलकर बिहार विधान सभा के अध्यक्ष भी चुने गये थे), जनार्दन प्रसाद झा ’द्विज’ (बाद में पुर्णिया कॉलेज के प्राचार्य बने), बुद्धिनाथ झा ’कैरव’ (जो बाद में बिहार विधान-परिषद्‍ के सदस्य बने थे) जैसे विद्वान एवं ख्यातिलब्ध हस्तियां कार्यरत थी। ऐसे महान व्यक्तित्वों से सानिध्य में पंकज जी ने शिक्षा ग्रहण की और अपनी कुशाग्र बुद्धि एवं मेधा के चलते अपनी अलग पहचान बनाने में ये कामयाब हुए। हिन्दी विद्यापीठ की उच्चतम उपाधि साहित्यालंकार हासिल करने के तुरंत बाद पंकज जी हिन्दी विद्यापीठ में ही शिक्षक के रूप में नियुक्त हो गये और अपने गुरुजनों के सहकर्मी बन गये। पंकज जी ने अपने गुरुजनों की विद्वता का खूब लाभ उठाया और अपने ज्ञान को विस्तृत-क्षितिज देते हुए साहित्य की हर विधाओं पर अपना अधिकार सिद्ध किया। किसी भी विषय पर अपना आधिकारिक विचार रखने में उन्हें कोई कठिनाई नहीं हुई, बल्कि विद्वत्‌-समुदाय में इनके आधिकारिक और मौलिक विचारों को पूर्ण सम्मान मिला।



ईश्वर ने उन्हें लगता है, प्राचीन आर्य परंपरा के अनुरूप उनका व्यक्तित्व ढाला था। किसी भी तरह के वैचारिक गोष्ठी / आयोजनों में अपने विचार रखते समय, उनका मुखमंडल दैदिप्यमान हो उठता था। हमेशा सकारात्मक सोच के धनी रहे पंकज जी किसी भी आयोजन (जिसमें वे सिरकत करते थे) में सहज ही श्रोताओं के आकर्षण बन जाते थे। अपने कथन में लोच एवं वाणी में मिठास के चलते इनकों सुनने वाले सहज ही आकर्षित हो जाते थे। एक बीती घटना मुझे स्मरण आती है जब सारठ के घाटवाल के कनिष्ठ पुत्र की शादी बाका के निकट जोगडीहा नामक ग्राम में तय हुई। उन दिनों शादी के समय कन्या पक्ष की ओर से महफिल लगाई जाती थी, जिसमें वैचारिक वाद-विवाद होता था। यह वाद-विवाद वर-पक्ष की विद्वता को मापने का मानदंड भी था। उस समय कन्या पक्ष की ओर से सवाल पूछने के लिये ख्यातिलब्ध विद्वानों को बुलाया जाता था जो वर पक्ष के लोगों से तर्कित सवाल पूछते थे, जिसका उत्तर वर पक्ष के विद्वानों को देना होता था। इसीलिये उस समय की बारात में विद्वत्‌जनों का जाना परमावश्यक माना जाता था। इस बारात में पंकज जी को भी सादर आमंत्रित किया गया था। पंकज जी भी बारात के साथ जोगडीहा गये थे। शादी के बाद संध्या समय महफिल सजी थी। दोनों पक्षों के विद्वान आमने-सामने थे। तभी कन्या पक्ष की ओर से भागलपुर से आये एक विद्वान ने प्रश्न पूछा — “प्रणय के बाद परिणय या परिणय के बाद प्रणय ?” बारात में आये लोग एक-दूसरे का मुंह ताकने लगे। कुछ देर के लिये महफिल में सन्नाटा पसर आया। कन्या पक्ष के लोग प्रसन्न थे कि बारातियों की ओर से उनके प्रश्न का उत्तर नहीं आ रहा है। तभी बारातियों की ओर से स्वयं पंकज जी खड़े हुए और पूरे घंटे भर पूरे विस्तार से प्रश्न का तार्कित उत्तर दिया। बाराती में गये लोग ताली बजाने लगे और कन्या पक्ष के लोग मौन हो गये। स्वयं घाटवाल ने उठकर पंकज जी को गले लगा लिया। विद्वता का यह अलग रूप था — पंकज जी का।



कालांतर में पंकज जी ने अपनी शैक्षणिक यात्रा को आगे बढ़ाते हुए पुन: मैट्रिक, इंटरमीडिएट, बी० ए० एवं एम० ए० की उपाधि हासिल की। तत्‌पश्चात 1954 में वे एस० पी० कॉलेज दुमका के संस्थापक शिक्षक सह हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में नियुक्त हुए और दुमका को उस क्षेत्र की हिन्दी साहित्य की गतिविधियों का केंद्र बना दिया। इसके कुछ वर्षों बाद देवघर कॉलेज से आई० ए० की परीक्षा पास करने के बाद दुर्गा पूजा एवं दिवाली की छुट्टियों के बाद 1958 में मैंने एस० पी० कॉलेज दुमका में बी० ए० में अपना नामांकन कराया। उन दिनों एस० प० कॉलेज जिला स्कूल दुमका के परिसर में ही चलता था। जब स्कूल का दिवाकालीन सत्र होता था तब कॉलेज प्रात:कालीन सत्र में चलता था और जब गरमी के दिनों में विद्यालय का सत्र प्रात:कालीन होता तब कॉलेज का सत्र दिवाकालीन हो जाता था। हिन्दी विषय रखने के कारण मैं भी पंकज जी का छात्र बना। सफेद खालता (कुर्ता) एवं धोती में पंकज जी कक्षा लेने आते थे। अन्य लड़कों के बीच मैं नया होने के कारण अजनबी था। और देर से नामांकन कराने के कारण मेरा क्रमांक भी अंतिम था। उन दिनों व्याख्यातागण प्रत्येक छात्र की व्यक्तिगत जानकारी रखते थे। उन्होंने मुझसे भी मेरे बारे में जानकारी चाही। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि मैं सारठ ग्राम का निवासी हूं और हरनारायण प्रसाद का पुत्र हूं तो वे मंद-मंद मुस्कुराते रहे और उन्होंने मुझको शिक्षक कक्ष में मिलने को कहा। व्याख्याता के रूप में वे हमें काव्य-खंड पढा़ते थे। ऐसे तो पूरे काव्य खंड में पाठ्यक्रम के अनुसार चयनित भक्तिकाल ही पढ़ाया करते थे, पर जब सूरदास की बाललीला तथा भ्रमरगीत पढा़ते थे तो मुझे अनुभव होता था जैसे हम सभी भ्रमरगीत के रचनाकाल में पहुंच गये हैं। अध्यापन में इतनी तन्मयता फिर अपने शैक्षणिक काल के दूसरे व्याख्याता में कभी नहीं देखी। वे स्वयं तो भाव-विभोर होते ही थे, छात्रों को भी भाव-विभोर कर देते थे। उनके व्याख्यान में शब्दों का चयन सटीक एवं वेजोड़ हुआ करता था। घंटी अवधि कैसे बीत जाती थी पता ही नहीं चल पाता था। वर्ग में उनका प्रवेश घंटी लगने के बाद तुरंत हो जाता था। वे स्वयं अनुशासनप्रिय थे और अपने छात्रों से भी ऐसी ही अपेक्षा करते थे।



समर्पित शिक्षक के रूप में उनके व्यक्तित्व की झलक देने वाली एक घटना की चर्चा करना मैं प्रासंगिक समझता हूं। उन दिनों महाविद्यालयों में ’टर्मिनल’ परिक्षाएं हुआ करती थी। पता नहीं आजकल होती भी है या नहीं? मैं परीक्षा में सम्मिलित हुआ। उत्तर पुस्तिकाओं की जांच वे वर्ग में ही छात्रों के नजदीक जाकर करना पसंद करते थे ताकि उत्तर लेखन में छात्रों द्वारा जो कमी रह गयी है उसे वे छात्रों के सामने ही सुधार की नसीहतों के साथ उसके आदर्श उत्तर भी छात्रों को बता दिया करते थे, ताकि छात्र भी सुधार की प्रक्रिया में सीधे तौर पर भागी बन सकें। साथ ही वे छात्रों को यह भी बताते थे कि अमुक प्रश्न का आदर्श उत्तर कैसे लिखा जा सकता है। मेरे द्वारा लिखी गई उत्तर पुस्तिका की जांच के क्रम में मैं देख रहा था — वे धीरे-धीरे माथा हिला रहे थे और वाह! वाह! भी कह रहे थे। उत्तर पुस्तिकाओं की जांच पूरी करने के बाद उन्होंने मुझे अपने नजदीक बुलाकर कहा — “मैं तुम्हारी ही उत्तर पुस्तिका की जाँच कर रहा था। तुमने अमुक कवि की जो काव्यगत विशेषता लिखी है वह बेजोड़ है। यह तुमने कहाँ से पढ़ लिया है” और जब मैने इसका स्रोत बताया तो उन्होंने मेरी पीठ ठोंकी और मुझे कुछ हिदायतों के साथ अधिक अंक लाने के उपाय भी बतलायें। मैं उनका स्नेहभाजन तो था ही इस घटना के बाद मैं उनका अति स्नेहभाजन बन गया। और स्नेह की यह डोर कॉलेज की पढा़ई पूरी करने के बाद भी बनी रही।



दुमका में उन दिनों प्रतिवर्ष रामनवमी के अवसर पर ’रामायण यज्ञ’ हुआ करता था। यह यज्ञ सप्ताह भर चला करता था। इसमें भारत के कोने-कोने से रामायण के प्रकांड पंडित एवं विद्वान अध्येताओं को यज्ञ समीति द्वारा आमंत्रित किया जाता था। यज्ञ स्थल जिला स्कूल के सामने यज्ञ मैदान हुआ करता था। यज्ञ स्थल पर सायंकाल में प्रवचन का कार्यक्रम होता था। विन्दु जी महाराज, करपात्री जी महाराज, शंकराचार्य जी एवं अन्य ख्यातिलब्ध विद्वान यहां प्रवचन किया करते थे। एक दिन मैं यहां केवल एक रामायण के अध्येता का प्रवचन संभव हो पाता था। इस कार्यक्रम में जहां देश के कोने-कोने से प्रकांड रामायणी अध्येताओं का प्रवचन होता था वहीं सप्ताह की एक संध्या पंकज जी के प्रवचन के लिये सुरक्षित रहती थी। ऐसे थे हमारे पंकज जी और उनका प्रवचन! हजारों श्रोताओं के बीच पंकज जी के मुख से नि:सृत रामकथा उपस्थित लोगों का मन मोह लेती थी। यह असाधारण बात पंकज जी के व्यक्तित्व, वक्तृत्व कला और अगाध ज्ञान का सहज पहलू था। हम छात्रों और दुमका वासियों के लिये तो सचमुच यह गौरव की बात थी कि इतने उद्‌भट्ट विद्वान हमारे अपने पंकज जी थे।



पंकज जी की सम्मोहन कला का एक और संदर्भ। 1964 की बात है। दुर्गापूजा की छुट्टियों के बाद सारठ अस्पताल के डॉ० साहिब के घर हिन्दी के सुविख्यात विद्वान डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव अपने परिवार के साथ आये थे। डॉ० साहिब के वे आत्मीय परिजन थे। डॉ० साहिब ने मुझसे कहा — डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव जी आये है, कोई कार्यक्रम का आयोजन करवा दे । फिर दो-तीन दिनों के बाद तुलसी जयन्ती का आयोजन सारठ मध्य विद्यालय के बरामदे पर किया गया। डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की बड़ी ख्याति थी। वे राजेन्द्र कॉलेज, छपरा में हिन्दी के विभागाध्यक्ष थे। उन्होंने देश-विदेश का भ्रमण किया था। उनके पुत्र शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव पटना में अध्ययनरत थे जो बाद में पटना विश्वविद्यालय के कुलपति एवं पटना के सांसद भी निर्वाचित हुए और डॉ० शैलेन्द्रनाथ श्रीवास्तव के नाम से हिन्दी साहित्य संसार में प्रसिद्ध हुए तथा कई मानक पुस्तकों की समालोचना भी लिखी। आयोजन से पूर्व श्रद्धेय पंकज जी दुमका से अपने गांव छुट्टियों में आये थे। मैने तुलसी जयन्ती के बावत उनसे बात की। वे बैठक में भाग लेने के लिये राजी हो गये। नियत तिथि को अपराह्न तुलसी जयन्ती का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। बैठक में स्वनामधन्य वासुदेव बलियासे, गोविन्द प्रसाद सिंह, उमाचरण लाल, सच्चिदानंद झा सहित कई विद्वान एवं सैकड़ों श्रोता उपस्थित हुए। डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की पत्नी ने दीप प्रज्वलित कर तुलसीदास के चित्र पर माल्यार्पण किया और “ठुमकि चलत रामचन्द्र बाजत पैजनियां” गाकर कार्यक्रम का शुभारंभ किया। दो व्यक्तियों, वासुदेव बलियासे एवं सच्चिदानंद झा ने क्रमश: संस्कृत के श्लोकों के साथ साहित्य की चर्चा करते हुए तुलसी कृत “रामचरित मानस” के कई प्रसंगों पर अपने सारगर्भित विचार रक्खें। मुख्य अतिथि के रूप में पधारे डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव ने देश-विदेश में प्रचलित रामकथा एवं रामायण के प्रसंगों की विस्तृत रूप-रेखा प्रस्तुत की और अपने अगाध ज्ञान का परिचय दिया। अंत में बठक की अध्यक्षता कर रहे पंकज जी ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया जिसमें उन्होंने डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव की मुक्त कंठों से प्रशंसा करते हुए उन्हें रामकथा का अधिकारी विद्वान बताया और डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव के व्याख्यान को सारठ की जनता के लिये एक अवदान माना। इस तरह डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव के रामकथा विषयक अगाध ज्ञान और उनकी विद्वता को सादर रेखांकित करने के बाद पंकज जी ने अपना वक्तव्य शुरू किया। अपने भाषण में पंकज जी ने रामचरित मानस द्वारा समाज में समन्वय की विराट चेष्टा का आधार फलक रखा और तुलसी को सर्वश्रेष्ठ कवि घोषित करते हुए उनकी कई चोपाईयों को उद्धृत किया और अपनी मान्यता की संपुष्टि हेतु विस्तृत भाषण दिया तथा तुलसी के संदेशों को उपस्थित श्रोताओं के समक्ष अपनी अनूठी शैली में रखा। हम सभी मंत्रमुग्ध होकर पंकज जी का सरस, सारगर्भित और गूढ़ संभाषण सुन रहे थे। ऐसे लग रहा था कि पंकज जी अपनी कक्षा में थे और उपस्थित समूह उनके व्याख्यान को सुध-बुध खोकर सुन रहा था। उनके संभाषण की समाप्ति के बाद पुन: डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव उठ खड़े हुए और पंकज जी के द्वारा व्यक्त किये गये विचारों तथा उनकी वक्तृत्व कला की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे। डॉ० मुरलीधर श्रीवास्तव ने पंकज जी को रामचरित मानस का अधिकारी विद्वान और महान अध्येता घोषित किया। हम सब के लिये यह गर्व की बात थी कि हम सब उस क्षण के साक्षी बन रहे थे जब दो उद्‌भट्ट विद्वान एक-दूसरे की विद्वता पर मुग्ध थे और एक दूसरे के कायल भी। पंकज जी ने हर बार की तरह इस बार भी अपनी विद्वता से हम सारठ वासियों का सिर गर्वोन्नत्त कर दिया था।



अंत में बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चतुर्थ अधिवेशन की चर्चा करना चाहता हूं। 13 फरवरी 1965 को दुमका में यह अधिवेशन आयोजित किया गया था। समूचे बिहार से ख्यातिलब्ध लेखकों, कवियों और समीक्षकों का आगमन दुमका में हुआ। संताल परगना हिन्दी साहित्य सम्मेलन के तत्कालीन अध्यक्ष पं० जनार्दन मिश्र ’परमेश’ जी थे। संताल परगना जिले की ओर से तत्कालीन उपायुक्त श्री रासबिहारी लाल, जो स्वयं चर्चित नाटककार एवं साहित्यकार थे, इस सम्मेलन की स्वागत-समिति के अध्यक्ष थे। साहित्यिक अभिरूचि के प्रशासनिक पदाधिकारी होने की वजह से साहित्य जगत में भी उनका बड़ा सम्मान था। स्वागताध्यक्ष के रूप में श्री रास बिहारी लाल जी ने अपने स्वागत भाषण में सर्वप्रथम पं० शुद्धदेव झा ’उत्पल’ जी एवं आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी का ही नामोल्लेख किया था। निश्चय ही यह बहुत बड़ी बात थी, क्योंकि जिन साहित्यिक लेखकों और कवियों ने इस समागम में भाग लिया था उनमें से सभी स्थापित एवं ख्यातिलब्ध थे। राजा राधिकारमण प्रसाद सिंह, हंस कुमार तिवारी, गोवर्धन सदय, लक्ष्मी नारायण सुधांशु, नागार्जुन, बुद्धिनाथ झा ’कैरव’, प्रफुल्ल चन्द्र पटनायक, उमाशंकर, रंजन सूरीदेव, दुर्गा प्रसाद खवाड़े, श्याम सुंदर घोष, डोमन साहु ’समीर’, ’ज्योत्सना’ के संपादक शिवेन्द्र नारायण एवं अन्य अनेक स्वनामधन्य साहित्यकार वहां उपस्थित थे। उसमें मैं भी एक अदना-सा व्यक्ति शामिल था। दूसरे दिन एक कवि सम्मेलन का भी आयोजन किया गया जिसमें हमारे पंकज जी भी प्रमुख कवि के रूप में शामिल थे। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इस अधिवेशन में अन्य बड़े विद्वानों और साहित्यकारों की तरह पंकज जी भी बड़े विद्वान के रूप में आकर्षण के एक प्रमुख केंद्र थे।



पंकज जी जैसे विद्वान साहित्यकार, शिक्षाविद भले ही शारिरिक रूप से इस चराचर जगत में मौजूद नहीं है लेकिन उनकी कृतियां और उनका व्यक्तित्व इस संसार में हमेशा मौजूद रहेगा तथा पंकज जी के दिखाए रास्ते, उनकी सादगी, उनकी सहृदयता, उनकी विद्वता और छात्र हित का उनका दृष्टिकोण हमेशा अनुकरणीय रहेगा।



शिक्षा समाप्ति के बाद मैं सरकारी सेवा में चला आया। तत्कालीन बिहार राज्य के विभिन्न जिलों में पदस्थापित रहा। इस कारण पंकज जी से सम्पर्क काफी कम हो गया, लेकिन आत्मीयता बनी रही। हठात्‌ एक दिन समाचार प्राप्त हुआ कि आदरणीय पंकज जी इस नश्वर संसार को अल्पायु में ही छोड़ गये है। यह हमारे लिये असह्य पीड़ा थी। संताल परगना के पूरे साहित्यिक एवं शैक्षणिक जगत पर मानो वज्रपात हो गया था। करीब 32 वर्षों के अंतराल के बाद विगत 30 जून 2009 को दुमका में आयोजित “आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ 90वीं जयन्ती समारोह” में भाग लेने हेतु जब मुझे आमंत्रित किया गया तो सहसा वर्षों पुरानी यादें मानस पटल पर रील की भांति घूमने लगी और पुरानी स्मृतियों में मैं आकंठ डूब गया। अगर इतने वर्षों के बाद भी हम सभी इस महान विभूति — पंकज जी की अमूल्य धरोहर को सहेज नहीं पाये तो वर्तमान एवं भावी पीढ़ी हमें कभी माफ नहीं करेगी। अभी भी उनकी यादों को सहेजने के लिये बहुत कुछ किया जाना शेष है। अगर हम उनकी रचनाओं का ’पंकज-ग्रंथावली’ के रूप में प्रकाशित करने, संताल परगना के एक साहित्यकार को पंकज-स्मृति के सम्मान से सम्मानित करने तथा दुमका विश्वविद्यालय में हिन्दी विषय के सर्वश्रेष्ठ छात्र को पंकज छात्रवृत्ति प्रदान करने का प्रयास करें तो उनकी यादों को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। इस दिशा में हम कुछ भी सार्थक प्रयास कर सके तो हमारे लिये यह गौरव की बात होगी और पंकज जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।