शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी की याद में आयोजित यह कार्यक्रम हमें हिंदी साहित्य की इस शोकान्तिका पर विचार करने का मौका देता है---मस्तराम कपूर


आचार्य ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ’पंकज’ जी की याद में आयोजित यह कार्यक्रम हमें हिंदी साहित्य की इस शोकान्तिका पर विचार करने का मौका देता है — कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद हमारा साहित्य कैसे विदेशी साहित्य-विमर्श पर निर्भर हो गया और उसका संबंध अपनी परंपरा से टूट गया। स्वातंत्र्योत्तर हिंदी साहित्य का इतिहास साठोत्तरी पीढ़ी से शुरू होता है और यह परिवर्तन उससे पहले के साहित्य तथा साहित्यकारों को नकार कर या उनकी तिरस्कारपूर्वक उपेक्षा कर होता है। इस परिवर्तन के अंतर्गत भक्तिकाल और रीतिकाल ही नहीं, आधुनिक काल के मैथिलीशरण, श्रीधर पाठक, पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी, दिनकर, बच्चन, नवीन यहां तक कि जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय, रामवृक्ष बेनीपुरी, विष्णु प्रभाकर आदि भी उपेक्षित हुए। यह एक तरह का साहित्यिक तख्ता-पलट था जो राजनैतिक तख्ता-पलट का अनुगामी था। जिस तरह स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जवाहरलाल, सरदार पटेल, मौलाना आजाद आदि कांग्रेस के नेताओं ने गाँधीजी के ग्राम स्वराज और स्वतंत्रता आंदोलन के तमाम मूल्यों से पल्ला झाड़कर ब्रिटिश राज की सारी संस्थाओं और तौर-तरीको को ढोने का जिम्मा लेकर अपने को आधुनिक और प्रगतिशील घोषित किया, उसी तरह, साठोत्तरी पीढी़ के लेखकों-समीक्षकों ने भी अपने अतीत को, अपने इतिहास को नकार कर और उसका उपहास कर विदेशी विचारों, संकल्पनाओं तथा मूल्य-विमर्श के अनुकरण को अपनाकर अपने को अत्याधुनिक, प्रगतिशील या जनवादी घोषित किया। समय-समय पर इंगलैंड-अमरीका के शिक्षा-संस्थानों या शिक्षा-जगत से जो भी साहित्यिक और वैचारिक वायरस(स्वाइन-फ्लू के वायरस की तरह) चलें उन्होंने यहां के बौद्धिक जगत को इस प्रकार जकड़ लिया कि अब उससे मुक्ति की संभावना भी नहीं दिखाई दे रही है। इस बीच डॉ० राममनोहार लोहिया ने जवाहरलाल नेहरू के मोह से आविष्ट एवं सन्निपात-ग्रस्त बौद्धिक जगत को कुछ, ताजे, नये विचारों से झकझोरने का प्रयास किया। जब हिंदी के बौद्धिक जगत के लोग गुलाब और गेहूं, रोटी और आजादी, क्रांतिकरण और सौंदर्य-रचना के द्वंद की बहस में उलझे हुए थे तो डॉ० राममनोहर लोहिया ने एक सूत्र दिया। उन्होंने कहा कि जैसे गाँधीजी के रास्ते पर चलकर समता के माध्यम से शांति और शांति के माध्यम से समता की साधना की जा सकती है, उसी प्रकार स्वतंत्रता, समता और बंधुता के संघर्ष के माध्यम से सत्य, शिव और सुंदर की तथा सत्य, शिव और सुन्दर के माध्यम से स्वतंत्रता, समता तथा बंधुता की साधना की जा सकती है। उनके इस विचार ने रूस या चीन की क्रांति का झंडा उठाने वाली साहित्यिक संस्थाओं के आतंक से साहित्य को मुक्त किया तथा साहित्य को उस व्यापक सरोकार से जोड़ा, जिसका लक्ष्य था मानव-जीवन को स्वतंत्रता, समता और बंधुता के अनुभवों से समृद्ध करना। इससे हर लेखक को मर्क्सवादी ठप्पा लगाने की जरूरत नहीं रही और साहित्य के क्षेत्र का ऐसा विस्तार हुआ कि उसमें सौंदर्यवादी, प्रयोगवादी, अस्तित्ववादी और अराजकतावादी ही नहीं, स्त्रीवादी और दलितवादी लेखन भी समाविष्ट हुआ। यहीं कारण हैं कि लोहिया ने हिन्दी साहित्य पर व्यापक प्रभाव डाला और ’दिनमान’, परिमल ग्रुप के लेखक ही नहीं, उनके अलावा भी बड़ी संख्या में लेखक उनसे प्रभावित हुए; जैसे: रेणु, मुक्तिबोध, शमसेर, कुंवर नारायण, प्रयाग शुक्ल, गिरिराज किशोर, रमेश चन्द्र शाह, गिरधर राठी, ओम प्रकाश दीपक, हृदयेश, शिवप्रसाद सिंह, कृष्ण नाथ, नित्यानंद तिवारी, कृष्ण दत्त पालीवाल आदि (हिन्दी में) और विरेन्द्र कुमार भट्टाचार्य, यू. आर. अनन्तमूर्ति, चद्रशेखर पाटिल, स्नेहलता रेड्डी, पट्टाभि रामा रेड्डी, आचार्य अगे, फुले देशपांडे, विजय तेंदुलकर आदि अन्य भारतीय भाषाओं में.




इस समय बहुत जरूरी है कि डा. लोहिया के विचारों से अनुप्राणित साहित्यिक संस्थाएं बनें, जो जैसे ’पंकज-गोष्ठी’ बनी है, [पंकज-गोष्ठी 1955 में दुमका, झारखण्ड, में बनी थीं और डा. लोहिया के विचारों से यह अनुप्राणित थी या नहीं यह शोध का विषय हो सकता है। 2009 में पुन: पंकज-गोष्ठी को पुनर्जीवित करके मौजूदा स्वरूप में इसे स्थापित करने के प्रयास में लगे हुए इसके संपादक अमर नाथ झा बहुत हद तक लोहिया के विचारों से प्रभावित है.] जो पकज जी जैसे उन सब लेखकों को ढूंढे और छापें जिन्हें सिर्फ इसिलिये भूला दिया गया क्योंकि वे अपनी परंपरा और इतिहास से जुड़े थे। शब्द को ब्रह्म इसलिये कहा गया है कि वह अनश्वर होता है, इसलिये इसे नष्ट होने से बचाने का भरसक प्रयत्न किया जाना चाहिये। पंकज जी पचास के दशक के लेखक थे और इस दशक को जैसे हिन्दी साहित्य से खारिज ही कर दिया गया है। अंग्रेजी में पढ़ने और हिन्दी में उसका उलथा कर लिखने वाली साठोत्तरी पीढियों ने हिन्दी साहित्य में अपने अतीत को नकारने या अपनी कोख को लात मारने का जो पाप किया है, उसका प्रयश्चित बहुत जरूरी है। अगर इस प्रयश्चित की प्रक्रिया की शुरूआत इस पितृपक्ष से होती है तो इससे अच्छी बात क्या हो सकती है?



अपने वक्तव्य के अंत में पंकज जी का एक कवित्व पढ़ना चाहता हूं जो अतुकान्त कविता के फैशन के माहोल में कुछ लोगों को भले ही न रूचे, मेरा मन तो उस पर मुग्ध है। कवित्त स्वातंत्र्य के प्रात: काल की महिमा का वर्णन करता है:







जागरण प्रात यह दिव्य अवदात बंधु, प्रीति की वासंती कलिका खिल जाने दो।

दूर हो भेद-भाव कूट-नीति, कलह-तम, द्वेष की होलिका को शीघ्र जल जाने दो॥

नूतन तन, नूतन मन, नव जीवन छाने दो, ढल रही मोह-निशा, मित्र ढल जाने दो।

रोम-रोम पुलकित हो, अंग-अंग हुलसित हो, प्रभापूर्ण ज्योतिर्मय नव विहान आने दो॥

इस कवित्त को पंकज जी ही लिख सकते थे, जो स्वातंत्र्य संग्राम के सहभागी थे। जो किनारे खड़े थे वे इसका महत्व नहीं समझ पाएंगे।

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