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आचार्य पंकज की ९२वी जयन्ती चुपचाप गुजर गयी

आज ३० जून था. १८५५ की ३० जून को संताल परगना में संताल क्रांति हुयी. उसके बाद से ही इस क्षेत्र का नाम संताल परगना पड़ा. आज झारखण्ड में संताल हूल दिवस राजकीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. महान सिदु - कान्हू को क्या पता था की वे इतिहास बनाने जा रहे हैं. इसी तरह ३० जून १९१९ को पंकज जी का जन्म हुआ. पंकज जी ने बहुत कम उम्र पाई. लेकिन कम उम्र में ही उन्होंने ऐसे काम कर दिए जो आज चमत्कार लगते हैं. उन्होंने एक मानव द्वारा सम्भव हर दिशा में अपने व्यक्तित्व की छाप छोडी. शिक्षा, साहित्य, स्वाधीनता-संग्राम, रंगकर्म, मानवीय श्रम की गरिमा की स्थापना, उछातम जीवन मूल्यों की स्थापना, कविता, एकांकी, प्रहसन, समीक्षा, वक्तृत्व कला---प्रत्येक दिशा में पंकज जी अप्रतिम थे. विद्वता ऐसी की बड़े-बड़े नतमस्तक थे, शिक्षण ऐसा की छात्र दीवाने थे, संभाषण ऐसा की जन-समूह झूम उठाता था, काव्य-पथ ऐसा की श्रोता रोने लगते थे, सुबकने लगते थे तो वीर रश के साथ सबकी भुजाएं फड़कने लगती थीं. संताल परगना में पंकज-गोष्ठी के माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य सृजन की जो अलख जगाये उअसने उन्हें इतिहास निर्माता बना दिया. शायद उन्हें भ...
सहज मानवीय भावनाओं के कुशल चितेरे कवि ज्योतींद्र प्रसाद झा ’पंकज’ डॉ. विश्वनाथ झा उपनिदेशक - राजभाषा विभाग, बेंगलूर            अभी-अभी 30 जून गुजरा. 30 जून हूल क्रांति दिवस है. यह इतिहास का वो दिन है जब संतालपरगना के आदिवासियों ने सन 1855 में भोगनाडीह गांव में सिदो, कान्हू, चांद और भैरव - इन चार भाइयों के नेतृत्व में महाजनों, सूदखोरों और प्रकारांतर से ब्रिटिश महाप्रभुओं के विरूद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद किया और ब्रिटिशसत्ता को धत्ता बताते हुए पूरे के पूरे दामिन क्षेत्र में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी. शायद भारत का यह पहला स्वतंत्रता संघर्ष था.           इसी 30 जून [वर्ष 2009] को एक और घटना घटी. दुमका में सूचना भवन में कवि आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा ’पंकज’ की 90वीं जयंती मनाई गई. 30 जून 1919 को, तब के बिहार और अब के झारखंड के संतालपरगना के सारठ थाना के खैरबनी नामक गुमनाम से गांव में इस कवि ने जन्म लिया था. जयंती में तत्कालीन संताल परगना जिले की और अब के दुमका, देवघर, गोड्डा, साहेबगंज और पाकुड़ के साहित्यिक जगत की नामचीन हस्तियां जु...

भ्रष्टाचार के विरोध के विरोध का सच

          अन्ना हजारे और रामदेव द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाए गए अभियान के तहत हजारों लोगों के गोलबंद होने से भारतीय बौद्धिक जगत भी एक तरह के अजाने भय का शिकार हुआ सा दिखता है. सरकार की तरफ से जिस तरह से इस मुद्दे को लेकर असमंजस और विरोधाभास से परिपूर्ण रवैया अपनाया गया, उसे तो हम समझ सकते हैं, क्योंकि कोई भी सत्ता प्रतिष्ठान जनतांत्रिक आंदोलन से ’गोलबंद हुई भीड़’  की अनदेखी नहीं कर सकता है और न ही उनके लिये इस ’गोलबंद भीड़’ द्वारा उठाये गये सवालों से टकराना आसान होता है. इसी लिये भ्रष्टाचार विरोधी अभियानों की तपिस ज्यों-ज्यों बढ़ती गयी, अनेक भ्रष्ट राजनीतिक ताकतों ने, जो हजारों-लाखों करोड़ रूपये के घोटालों के बावजूद राजनीति में अपनी महन्थी चला रहे हैं, इन आंदोलनों पर हमला शुरू कर दिया. वैसे देखा जाए तो राजनीतिक गुंडों द्वारा आंदोलनकारियों पर हमला कोई नई बात नहीं है - अजित सरकार, सफदर हाशमी, चंद्रशेखर, नियोगी, सुरेश चरण मिश्र - यह फेहरिस्त इतनी लंबी हो सकती है कि इस पर एक मुकम्मल लेख बन सकता है, जैसे बहादुर शहीद बनते रहे हैं. नयी बात यह है कि अब प्रदर्शनक...