गुरुवार, 30 जून 2011

आचार्य पंकज की ९२वी जयन्ती चुपचाप गुजर गयी

आज ३० जून था. १८५५ की ३० जून को संताल परगना में संताल क्रांति हुयी. उसके बाद से ही इस क्षेत्र का नाम संताल परगना पड़ा.
आज झारखण्ड में संताल हूल दिवस राजकीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. महान सिदु - कान्हू को क्या पता था की वे इतिहास बनाने जा रहे हैं.

इसी तरह ३० जून १९१९ को पंकज जी का जन्म हुआ. पंकज जी ने बहुत कम उम्र पाई. लेकिन कम उम्र में ही उन्होंने ऐसे काम कर दिए जो आज चमत्कार लगते हैं. उन्होंने एक मानव द्वारा सम्भव हर दिशा में अपने व्यक्तित्व की छाप छोडी. शिक्षा, साहित्य, स्वाधीनता-संग्राम, रंगकर्म, मानवीय श्रम की गरिमा की स्थापना, उछातम जीवन मूल्यों की स्थापना, कविता, एकांकी, प्रहसन, समीक्षा, वक्तृत्व कला---प्रत्येक दिशा में पंकज जी अप्रतिम थे. विद्वता ऐसी की बड़े-बड़े नतमस्तक थे, शिक्षण ऐसा की छात्र दीवाने थे, संभाषण ऐसा की जन-समूह झूम उठाता था, काव्य-पथ ऐसा की श्रोता रोने लगते थे, सुबकने लगते थे तो वीर रश के साथ सबकी भुजाएं फड़कने लगती थीं. संताल परगना में पंकज-गोष्ठी के माध्यम से उन्होंने हिन्दी साहित्य सृजन की जो अलख जगाये उअसने उन्हें इतिहास निर्माता बना दिया. शायद उन्हें भी नहीं पता होगा कि वे इतिहास रचाने जा रहे हैं.

सवभाव शिशु की तरह निर्मल. जो भी उनसे मिलता था उनका कायल हो जाता था. सुगठित कद्दावर काया, सुदर्शन व्यक्तित्व, अद्भुत आकर्षण था उनके भौतिक व्यक्तित्व में भी. झकझक सफ़ेद खाधी की धोती और कुर्ता उनके व्यक्तित्व को ऐसा बना देता था मनो उनको देखते ही रह जाओ.

पंकज जी जब ५७ वर्षा की अल्पायु में चल बसे तो संपूर्ण अंचल में मनो बज्रपात हो गया हो. 
आज भी, उनके चले जाने के ३४ वर्षों बाद भी वहां के लोग उनकी स्मृति को आपनी पावन धरोहर मानते हैं.

उनकी ९२वी जयन्ती पर तथा रवींद्र टेगोर की १५०वी जयन्ती पर दोघर में कार्यक्रम आयोजित करना था--पर नहीं कर पाया. देखता हूँ, उनकी ३४वी पुण्य-तिथि पर, १७ सितम्बर को यह कार्यक्रम कर पाटा हूँ की नहीं. इच्छा और योजना--दोनों है, अगर संसाधनों का प्रबंध हो जय तो इसे सहज संपन्न कर पाउँगा. पंकज जी ने संताल परगना के निवासियों को जिस ज्ञान का अवदान दिया उसे कृतज्ञता के साथ याद किया जाता रहेगा.

२९ जून को उनके शिष्य और संताल परगना की एक अन्य महँ विभूति प्रोफ़ेसर सत्यधन मिश्र जी का भी जन्म दिन है. इस साल वे ७५ साल पुरे कर गए. मेरा इरादा था की पंकज जयन्ती और सत्यधन बाबू की हीरक जयन्ती एक साथ मनाऊँ. सत्यधन बाबु ने संताल आदिवाशियों में चेतना जागृत करने में जो भूमिका निभाई है वह अद्वितीय है-- कोई भी संताल या गैर संताल व्यक्ति इस दिशा में सत्यधन बाबू की बराबरी नहीं कर सकता है. सत्यधन बाबू ने मेरा व्यक्तित्व गढ़ने में भी भूमिका निभाई है. सत्यधन बाबू के योगदानों को रेखांकित किये बगैर संताल परगना का इतिहास अधूरा रहेगा. सचमुच वे पंकज जी जैसे योग्य गुरु के योग्य शिष्य थे. हम सबको मिलकर सत्यधन बाबू को उनका वाजिब सम्मान देना चाहिए, उनके योगदानों को रेखांकित करना चाहिए. लगता है की संताल परगना और वहां के सपूतों को इतिहास में वाजिब स्थान दिलाने की जिम्मेवारी मेरी ही है-- तभी तो आज तक किसी ने कुछ भी नाहे लिखा इन विषयों पर. 

पंकज जी और सत्यधन बाबू ही नहीं, संपूर्ण संताल परगना और वहां की प्रतिभावों की कातर पुकार मेरे कानों में निरंतर कोलाहित हो रही है. पता नहीं कब मै यह पुनीत कर्त्तव्य पूरा कर पाउँगा--अभी तो बस अपने नून-तेल के ही फेर में लगा हुआ हूँ. 

पता नहीं कब मैं अपनी यह जिम्मेदारी पुरी करूंगा.

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