आज जिस तरह की जद्दोजहद कर रहा हूँ उसमे कई बार मन शिथिल होने लगता है,लगता है राजनीति का यह खेल हमारे बस का नहीं है.कल६०० किलोमीटर ड्राइव करके जिनसे मिलने गया वह अपने ही जाल में उलझा हुआ था,मुझे क्या टिकेट दिलाता?पहले भी ऐसा ही होता रहा.क्या राजनीति में सिर्फ़ बेईमानी ही चलती रहेगी?फिर कैसे ठीक हो पायेगी व्यवस्था?पूनम भी तो काफ़ी छूब्ध थी.पर हमें हारना नही है.बढे पिता आचार्य पंकज की यह पूरी कविता हमें कैसा कहती है इसे हमें भूलना नही चाहिए।
बढे अगम की ओर बीच में
पंथी फ़िर अब रुकना कैसा?
जूझ चुके हो झंझा से जब
सहसा तब यह झुकना कैसा?
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