प्रभाकर पालाका
(मूल अंग्रेजी से अनूदित)
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है क्योंकि यह समाज की छवि को दर्शाता है। साहित्य, इतिहास और समाज को आकार भी देता है। यदि आप 20वीं सदी के आरंभ में रचे गए भारतीय-साहित्य का सर्वेक्षण करें तो पाएंगे कि इस काल-खंड के साहित्य लेखन का पूरा संसार स्वतंत्रता संग्राम के इर्द-गिर्द घूमता रहा था, चाहे वह देश के विभिन्न क्षेत्रों में रचा जा रहा क्षेत्रीय साहित्य हो या फिर भारत में किया जा रहा भारतीय-अंग्रेजी लेखन- जैसे कि राजा राव का कांतापुरा या फिर आर.के. नारायण का महात्मा की प्रतीक्षा (वेटिंग फॉर द महात्मा) नामक उपन्यास। इन सब में ‘गांधी’ द्वारा दिये गए स्वतंत्रता-संग्राम के आवाहन का भाव भरा पड़ा है। उस समय का लेखन धार्मिक एकता बनाए रखने की भावना को प्रतिध्वनित करता है या फिर हाशिए पर पड़े समुदायों, जैसे कि पूर्व-अछूतों तक पहुंचने की कोशिश करता है। यद्यपि 1947 के बाद के लेखन में एक आमूल-चूल बदलाव होना ही था। यही कारण है कि स्वातंत्रयोत्तर भारत का लेखन संविधान के मूल सिद्धांतों पर आधारित नए भारत की कल्पना एक आवर्ती आख्यान बन गया। समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के विचारों पर आधारित डॉ. भीमराव आंबेडकर के सिद्धांत अखिल भारतीय साहित्य में भी परिलक्षित होने लगे।
इस शोधपत्र में आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा ‘पंकज’ की कविताओं का आलोचनात्मक विश्लेषण किया गया है, जो संताल परगना क्षेत्र के एक मूर्धन्य कवि थे, लेकिन संताल परगना क्षेत्र के बाहर बहुत कम पढ़े या जाने जाते हैं। ‘पंकज’ ने 1950 से 1970 के दशकों के बीच में लिखा। हमें उनके काव्य में आधुनिक विश्वदृष्टि और संविधान में निहित आधुनिक मूल्यों की भावना के अद्भुद निदर्शन होते हैं। भ्रातृत्व-भाव उनकी कविता का एक मुख्य स्वर है। यह शोधपत्र ‘पंकज’ की कविताओं का ‘दलित’ दृष्टिकोण से अध्ययन करने का एक प्रयास है। यह आलेख ‘पंकज’ की ‘दलित’ शब्द की समझ और उनकी कविताओं में इसके व्यापक प्रयोग को उजागर करने का भी प्रयास करेगा। वास्तव में 1970 के दशक में उभरे दलितपैंथर आंदोलन ने वास्तव में ‘दलित’ शब्द को पारिभाषित किया और लोकप्रिय बनाया। पर हैरत की बात है कि दलितपैंथर आंदोलन से पहले, बहुत पहले ही वे ‘दलित’ शब्द से इतने परिचित कैसे हो सकते थे! मैं ‘दलित’ शब्द के बारे में उनकी समझ का विश्लेषण करने और इसकी तुलना दलितपैंथर आंदोलन की ‘दलित’ शब्द की समझ से करने का प्रयास करूँगा।
स्वतंत्र भारत का लिखित संविधान 1950 में लागू किया गया। हमारा संविधान आधुनिक सभ्यता के अधुनातन और लोकतांत्रिक मूल्यों को दर्शाता है। इसने आंबेडकर जैसे भारतीय संविधान निर्माताओं की नए भारत की दृष्टि, आकांक्षा और कल्पना को भी उजागर किया। संविधान की प्रस्तावना कहती है, “हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्रदान करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढ़ाने के लिए सत्यनिष्ठा से संकल्प लेते हुए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं”।
स्वाभाविक ही है कि उस दौर का कोई भी कलमकार अपनी रचनाओं में इस नवीन राष्ट्र में चल रहे साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक बदलाव को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ की कविताओं में भी निश्चित रूप से इसी नए संविधान की भावना और आकांक्षा का पल्लवन और पुष्पण हुआ है।
भाईचारा या बंधुत्व ‘पंकज’ की कविता का मूल स्वर है। कवि ‘पंकज’ अपनी कविता के माध्यम से जाति और धर्म के बंधन से हट कर समाज में बंधुत्व को बढ़ावा देने का आह्वान करते हैं। बंधुत्व नए संविधान की मूल दृष्टि और भावना भी है। अपनी प्रसिद्ध कविता स्नेह-दीप में कवि समस्त देशवासियों से आपस में भाईचारे की भावना बढ़ाने की अपील करते हैं। वे लिखते हैं:
*बंधु स्नेह का दीप जलाओ!
आलोकित हो जग का कण कण
ज्योतिर्मय हो जन-जन का मन
तपःपूत निःस्वार्थ रश्मि से
जग का संचित तिमिर भगाओ
बंधु स्नेह का दीप जलाओ!
(*लेखक द्वारा किए काव्यानुवाद को ग्रहण न कर ‘पंकज’ की मूल कविता से लिया गया उद्धरण)
जब लोग एक-दूसरे को जाति के आधार पर देखते हैं, तो ऊंच-नीच और पवित्रता-अपवित्रता की धारणा के कारण रिश्ते खराब हो जाते हैं। वास्तव में, ‘पंकज’ इस तथ्य को स्वीकार करते प्रतीत होते हैं कि इसने भारतीय समाज में सांप्रदायिक सद्भाव को बहुत प्रभावित किया है। जब लोग जाति और धर्म के आधार पर एक-दूसरे पर दृष्टि डालते हैं, तो वे ‘पंकज’ के शब्दों में 'घृणा -तिमिर' में डूबे होते हैं। कवि इस बात से पूरी तरह से सहमत है कि केवल 'स्नेह-दीप' ही “घृणा-द्वेष” के इस “तिमिर“ को दूर कर सकता है। कवि का मानना है कि 'स्नेह' न केवल घृणा के अंधकार को दूर कर सकता है, बल्कि समाज में भाईचारा भी पैदा कर सकता है। कवि जाति के प्रतिगामी विचार को खारिज करता है क्योंकि यह केवल असमानता फैलाता है। जैसा कि आंबेडकर ने कहा था, जाति “श्रेणीबद्ध असमानता” को जन्म देती है। आंबेडकर हिंदुओं से न केवल भारत की सामाजिक एकजुटता की एक बड़ी बाध- जाति व्यवस्था, को खत्म करने का आवाहन करते हैं, बल्कि वे लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुरूप स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों पर आधारित एक नई सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने का आग्रह भी (हिंदुओं से) करते हैं ( आंबेडकर, 2014: XIV)। हिंदू सामाजिक व्यवस्था में वर्तमान अस्पृश्यता के कारण, आंबेडकर की हिंदू धर्म की गंभीर आलोचना यह थी कि यह व्यवस्था भाईचारे को बढ़ावा नहीं देती है। यह भी एक कारण था कि आंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपनाया क्योंकि बौद्ध धर्म भाईचारे का प्रचार करता है। भारतीयों के बीच भाईचारे और एकजुटता के महत्व को आंबेडकर ने समझा और इस भाईचारे को भारतीय संविधान में एक महत्वाकांक्षी मूल्य के रूप में रखा गया। ‘पंकज’ आंबेडकर द्वारा उठाई गई इस चिंता से सहमत प्रतीत होते हैं और इसलिए अपनी कई कविताओं में भाईचारे को बढ़ावा देने पर जोर देते दिखते हैं।
हिंदू समाज की सामाजिक संरचना के बारे में बात करते हुए आंबेडकर ने बिना सीढ़ी वाली एक चार-मंजिला इमारत का उदाहरण दिया है। इस संरचना में किसी प्रकार की ऊपरी गतिशीलता संभव नहीं है। इसलिए सामाजिक संबंधों में कोई भाईचारा भी संभव नहीं है। हालांकि हिंदू धर्म शूद्र और अतिशूद्रों को हिंदू धर्म का ही एक भाग होने का दावा करता है, फिर भी उन्हें मंदिरों में प्रवेश से वंचित करता है। यह वंचना दर्शाती है कि संरचना किस बुरी तरह से अपने में आंतर्विरोध से ग्रस्त है। ‘पंकज’, डॉ. आंबेडकर द्वारा उठाए गए इस मुद्दे से अवगत प्रतीत होते हैं। जे.एस. मिल एक प्रसिद्ध ब्रिटिश दार्शनिक और राजनीतिक अर्थशास्त्री रहे हैं। वे अपने निबंध, ‘Subjection of Women’ (महिलाओं की परवशता) में सवाल करते हैं कि कैसे एक राष्ट्र महिलाओं को व्यवस्था से बाहर रख करके प्रगति सुनिश्चित कर सकता है जो कि पूरी आबादी का लगभग आधा हिस्सा है! यही बात भारतीय संदर्भ में भी कही जा सकती है। दलितों, आदिवासियों और हाशिए पर पड़े अन्य समुदायों को, जिनमें महिलाएं भी शामिल हैं और जिनकी आबादी 70% से भी अधिक है, उन्हें समाज की मुख्यधारा से बाहर रखकर देश की प्रगति संभव नहीं है। । इसलिए संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक न्याय पर जोर दिया गया है। इसलिए विकास को इसके सामाजिक संदर्भ और मानव सूचकांक में समझना होगा। जैसा कि कोई भी देख सकता है, ‘पंकज’ भारतीय समाज में भाईचारे की वकालत करते हैं। वह ऊंची जाति के लोगों से दलितों को अपना हिस्सा बनाने की अपील करते हैं। युग की पुकार नामक अपनी कविता में वे लिखते हैं:
*एक धरा के हमवासी हैं
एक परा के विश्वासी हैं
एक चाँद सूरज के नीचे
शाश्वत समता का विकास हो।
‘दलित’ मनुजता को अपनाओ
बंधु ! आज यह युग पुकार हो।
(*लेखक द्वारा किए काव्यानुवाद को ग्रहण न कर ‘पंकज’ की मूल कविता से लिया गया उद्धरण)
इस कविता में ‘पंकज’ साथी ऊंची जाति के भारतीयों से अपील करते हैं कि वे दलितों और अन्य हाशिए पर पड़े लोगों को समाज से बाहर न कर उन्हें अपना समझें। वे ऊंची जाति के साथी नागरिकों से बहिष्कार की नहीं समावेशन की नीति अपनाने का आह्वान करते हैं। कवि ‘पंकज’ द्वारा अपनी कविताओं में प्रयुक्त ‘स्नेह’, ‘बंधुत्व’, ‘प्रेम’ और ‘समता’ जैसे शब्द पाठक के मन को सकारात्मक ऊर्जा से भर देते हैं। इन शब्दों का प्रयोग हमें यह समझने का अवसर देता है कि भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों के समान ही कवि के मन में भी नए भारत की कैसी संकल्पना पल रही थी।
‘पंकज’ अपनी कविताओं में ‘दलित’ शब्द का भरपूर इस्तेमाल करते हैं। इसलिए, इस शब्द की उत्पत्ति और उपयोग के ऐतिहासिक महत्व को उजागर करना उचित होगा। ‘दलित’ शब्द संस्कृत की ‘दल’ धातु से बना है जिसका अर्थ है फटना, विभक्त, टूटा हुआ या अलग-अलग, ‘दलित’, बिखरा हुआ, कुचला हुआ, नष्ट (वामन, 1989:493)।
‘दलित’ शब्द का अर्थ निम्न जाति या गरीब नहीं है: यह उस स्थिति को संदर्भित करता है जिसमें लोगों के एक वर्ग को कमतर बना दिया गया है और वह वर्ग अबतक मुख्य रूप से उसी स्थिति में रहता रहा है (पलका, 2016:13)। दलितपैंथर्स आंदोलन ने ‘दलित’ शब्द को व्यापक रूप से परिभाषित किया है जिसका अर्थ है 'सभी उत्पीड़ित - कम से कम वे सभी, जो जाति-व्यवस्था और जाति-वर्ग द्वारा सामाजिक और धार्मिक रूप से उत्पीड़ित हैं' (डांगळे, 2009:xvii)। इसलिए, ‘दलित’ के अंतर्गत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, नव-बौद्ध, मेहनतकश लोग, भूमिहीन गरीब किसान, महिलाएँ और वे सभी लोग शामिल होंगे जिनका राजनीतिक, आर्थिक और धर्म के नाम पर दलितों के रूप में शोषण किया जा रहा है (पलका, 2016.37)।
एलेनोर ज़ेल्लो के अनुसार ‘दलित’ शब्द से तात्पर्य है "वे लोग जो अपने ऊपर के लोगों द्वारा जानबूझकर और सक्रिय तरीके से तोड़े, कुचले गए हैं। इस शब्द में ही गंदगी, कर्म और अन्यायपूर्ण जाति पदानुक्रम के आधार पर अस्वीकरण अंतर्निहित है" (ज़ेल्लो, 2005:267)।
‘पंकज’ द्वारा ‘दलित’ शब्द का उपयोग स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि वे भारत में राजनीति की जटिल प्रकृति से अच्छी तरह वाकिफ थे। वे संविधान में आंबेडकर द्वारा उठाए गए मुद्दों और ‘गांधी’ द्वारा उठाए गए मुद्दों से भी अच्छी तरह परिचित थे। यह ध्यान रखना बहुत दिलचस्प है कि हालांकि प्रोफेसर ज्योतीन्द्र प्रसाद झा ‘पंकज’ अपनी विचारधारा में एक सच्चे गांधीवादी थे, पर उनकी कविताओं में एक बार भी 'हरिजन' शब्द का प्रयोग देखने को नहीं मिलता है जिसका, इस्तेमाल महात्मा ‘गांधी’ ने पूर्व अछूतों की पहचान के लिए किया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर उनके बेटे डॉ. ए.एन. झा से बात करते हुए, मुझे पता चला कि एक युवा छात्र के रूप में ‘पंकज’ ‘गांधी’ से अपने स्कूल में मिले थे। वह उन छात्रों में से एक थे जो ‘गांधी’ को मंच तक लेकर गए थे। ‘पंकज’ की कविताओं में ‘गांधी’ के विचार आसानी से दिखाई देते हैं। दरअसल, उन्होंने ‘गांधी’ पर एक कविता भी लिखी है जिसका शीर्षक भी 'बापू' है। लेकिन यह आश्चर्य की बात यह है कि ‘पंकज’ ‘गांधी’ की तुलना में आंबेडकर के आदर्शों से अधिक प्रभावित हैं। संभवतः यह संविधान में निहित आदर्शों से आया होगा। अपनी ‘युग की पुकार’ शीर्षक कविता में वे लिखते हैं:
*‘दलित’ मनुजता को अपनाओ
बंधु! आज यह युग पुकार हो।
रहे न कोई आज उपेक्षित
रहे न कोई आज बुभुक्षित
नहीं तिरस्कृत लांछित कोई
आज प्रगति का मुक्त द्वार हो।
(*लेखक द्वारा किए काव्यानुवाद को छोड़कर पंकज की मूल कविता से लिया गया उद्धरण)
इस कविता में, उनके द्वारा ‘दलित’ शब्द का प्रयोग निश्चित रूप से पूर्व-अछूत समुदायों का प्रतिनिधित्व करता है। कवि का मानना है कि दलितों को अपनाना और उन्हें मुख्यधारा में लाना ही सभी के लिए 'प्रगति का मुक्त द्वार' होगा। दलितों और अन्य हाशिए पर पड़े समुदायों को, जो भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैं मुख्य धारा में शामिल किए बिना राष्ट्र वास्तव में प्रगति नहीं कर सकता।
इससे भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि ‘पंकज’ ने 1970 के दशक में, ‘दलित’ पैंथर आंदोलन, जिसने वास्तव में ‘दलित' शब्द को परिभाषित किया है, से बहुत पहले ही अपनी कविता में ‘दलित’ शब्द का व्यापक रूप से इस्तेमाल किया है जबकि ‘गांधी’ द्वारा प्रयुक्त 'हरिजन' शब्द ही उस समय प्रचलन में था। इसके बावजूद ‘पंकज’ ने जानबूझकर हरिजन के बजाय ‘दलित’ शब्द का प्रयोग करने का विकल्प चुना। ऐसा लगता है कि कवि ने जानबूझकर 'हरिजन' शब्द का प्रयोग करने से परहेज किया है। इसलिए भले ही ‘पंकज’ विचारधारा से गांधीवादी थे, लेकिन उनकी कविता में आंबेडकर और उनके विचारों की पर्याप्त झलक मिलती है। ‘पंकज’ के काव्य विचारों में आंबेडकर और ‘गांधी’ दोनों एक साथ मिले-जुले दृष्टिगोचर होते हैं। ऐसा लगता है कि वे दोनों ही विचारों के सर्वश्रेष्ठ विचार ग्रहण कर उन्हें अपनी कविताओं में समाहित कर रहे हैं। यह प्रशंसनीय है!
यद्यपि, उनकी कविता में ‘दलित’ शब्द का प्रयोग एकरूप नहीं है तथापि व्यापक रूप से वे पूर्व-अछूतों का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसका प्रयोग करते प्रतीत होते हैं। अपनी एक कविता ‘दलित’ कुसुम’ में वे एक युवा विधवा का प्रतिनिधित्व करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं, जो जरूरी नहीं कि ‘दलित’ समुदाय से हो। ‘दलित’ कुसुम’ में युवा विधवा की पीड़ा बहुत करुणापूर्ण है। लगता है कवि का व्यक्तित्व ही स्वयं विधवा है। विधवा कहती हैः
*छाँह भी दूषित हमारी,
आँख में डायन बसी है।
यह सुनहला रूप मेरा,
आज जग के हित हँसी है।
(*लेखक द्वारा किए काव्यानुवाद को छोड़कर पंकजकी मूल कविता से लिया गया उद्धरण)
उपर्युक्त पंक्तियाँ भारतीय विधवाओं द्वारा झेले जाने वाले सामाजिक बहिष्कार को दर्शाती हैं। उनकी छाया ही प्रदूषित हो जाती है। उनकी आँखें एक तरह से ‘भूतग्रस्त’ होती हैं और इसलिए एक प्रकार का अपशकुन लिए होती हैं। ऐसा माना जाता था कि यदि किसी को यात्रा या अन्य किसी उद्देश्य से बाहर निकलते समय कोई विधवा दिखाई पड़ जाए तो उसकी यात्रा या उद्देश्य अवश्य विफल हो जाता है। यह संभव है कि कवि विधवाओं की स्थिति की तुलना दलितों की सामाजिक स्थिति से कर रहा हो।
सारांशतः यह कहा जा सकता है कि आचार्य ज्योतींद्र प्रसाद झा ‘पंकज’ अपने समय के महान कवि थे। ‘पंकज’, ‘गांधी’ और आंबेडकर दोनों के विचारों को अपने काव्य में समाहित करने का हर संभव प्रयास करते मिलते हैं। ‘गांधी’ और आंबेडकर- दोनों ही उनकी काव्य प्रेरणा में एकाकार होते दिखते हैं। दुख की बात है कि उन्हें अपने स्वयं के संथाल क्षेत्र के बाहर वह पहचान नहीं मिल पायी जिनके वे हकदार हैं। उनकी कविताओं को अंग्रेजी सहित अन्य भाषाओं में अनूदित किया जाना चाहिए और बेहतर शैक्षणिक लाभ के लिए इनपर चर्चा की जानी चीहिए और इनका विश्लेषण किया जाना चाहिए।
संदर्भः
बिमल, जी. पी. और झा, ए. एन. (संपादक)। स्नेदीप, उदगार और अर्पणा, दिल्ली: हर्ष प्रकाशन, 2019 संस्करण।
डांगळे, अर्जुन (संपादक)। ‘जहरीली रोटी’ : आधुनिक मराठी ‘दलित’ साहित्य से अनुवाद, मुंबई, ओरियंट
लॉन्गमैन, 2009 संस्करण।
मून, वसंत। (संकलक) डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरः लेखन और भाषण, (1979) खंड 1. नई दिल्ली: सामाजिक न्याय मंत्रालय, दूसरा संस्करण 2014 (ई-बुक)।
पलका, प्रभाकर. लेखन की राजनीति: ओडिया लेखन में दलितों का अध्ययन, नई दिल्ली: ऑथर्स प्रेस, 2016 संस्करण।
वामन शिवराम ए. व्यावहारिक संस्कृत-अंग्रेजी शब्दकोश, नई दिल्ली: मोतीलाल बनारसीलाल, 1986 संस्करण।
ज़ेलियट, एलेनोर. अछूत से ‘दलित’ तक: आंबेडकर आंदोलन पर निबंध,1992, नई दिल्ली: मनोहर। 2001 संस्करण।
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