सोमवार, 6 अप्रैल 2009

चुनाव और हम.

न जाने इस चुनावी मौसम में कौन क्या-क्या लिख रहा है.नामी- गिरामी लेखकों से लेकर स्वयम्भू चिन्तक--मेरी तरह,सभी कुछ न कुछ लिख रहा है ,इसकी परवाह किए बिना की कोई पढ़ भी रहा की नही?ना, ना आतंकित मत होइए ,नामी-गिरामी लेखक भी बस नाम की ही कमाई खा रहे हैं.वे भी क्या लिखते हैं उनसे उनका कोई सरोकार है या नहीं ये तो वही जाने पर पढ़ने वल्लों का शायद ही कोई सरोकार हो ऐसे लेखकों से ऐसा मैं जरूर कह सकता हूँ.सो भाई यहाँ पाठकों की नहीं लेखकों की रेलमपेल है.अगर आप लेखक हैं तो माफ़ करना मैं अपना और समय बर्बाद क्यों करूं?आपको तो पढ़ना है नहीं.अगर आप पाठक हैं तो आपका भाव बढ़ा होगा.आप मेरा लिखा क्यों पढेंगे,आपको तो मैं टिकेट देकर चुनाव जितवा सकता नही?तो मैंने सोचा क्यों न सारे रोल खुद ही कर लूँ?टिकट लेकर चुनाव लड़ लूँ,लेखक बनकर पन्ने भर लूँ,और पाठक बनकर अपना लिखा ख़ुद ही पढ़ लूँ.सो वही कर रहा हूँ यार .तुम सब भी तो वही कर रहे हो--कोई किसी के लिखे पर कमेन्ट नहीं कर रहा है,बस अपना -अपना देख रहा है.चुनाव में भी तो यही होता है.नेतागण अपना-अपना देखते हैं,चमचे-बेलचे अपना-अपना देखते हैं.जय हो इस लोकतंत्र की जय हो.इतनी साधना के बाद इसे तो मैं ही समझ पाया हूँ.इसीलिए तो यह चुनावी मौसम है और मैं हूँ.नही समझोगे तुम--कुछ भी नही समझोगे.आख़िर साधना का सवाल है.हाँ चाहो तो मुझे फालो करके देखो--शायद कुछ-कुछ समझ जाओ.

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