शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
झारखण्ड की राजनीती का खेल
यूँ तो पूरे देश की राजनीती एक खेल की तरह होती जा रही है,परन्तु झारखण्ड का खेल तमासा banta जा रहा है. इस बार के खेल में सभी नेताओ और छुट्भईयों का बेशर्म चेहरा साफ-साफ दिखने लगा है.सिद्धांत और आदर्श का कोई नाम भी नहीं ले रहा है.दिखाने के लिए ही सही राजनीति धर्म का कुछ तो पालन होना चाहिए था.झारखण्ड के संताल परगना की राजनीती तो एकदम गरम हो गयी है.संताल परगना,जो मेरे पूर्वजों की जन्मभूमि-कर्मभूमि के साथ मेरे राजनीतिक कर्म का भी क्षेत्र है,को इस हालत में देखकर दिल दुखता है.संताल परगना के duhakh-दर्द को कोई भी तो नहीं समझ रहा है.बिहार से मुक्तहोकर बनने वाले झारखण्ड में भी यह इलाका उपेक्षित ही रह गया.कहने को तो झारखण्ड के सबसे बड़े नेतागण इसे ही अपनी राजनीति का प्रयोग स्थल बनाते हैं,पर महज इसकी भावनाओं का दोहन करने के लिए ही.इस बार के इस चुनावी तमासे में इसीलिए तमासाबीनों को ही इसका फल भुगतना होगा.किसी न किसी को तो जीतना है ही,पर आख़िर-आख़िर तक कोई भी आश्वस्त नहीं हो सकेगा इस बार.और यह चुनाव संताल परगना के साथ खिलवाड़ का शायद आखिरी चुनाव होगा,क्योंकि अब यहाँ की जनता सोचने लगी है की झारखण्ड के जूए से भी संताल परगना को मुक्त होना ही पड़ेगा.कभी जंगल-तराई के नाम से मशहूर इस क्षेत्र को आस-पास के सांस्कृतिक क्षेत्रों के साथ मिलाकर जंगल-तराई नाम के राज्य के रूप में गठित कराना ही होगा,तभी इसके साथ न्याय हो सकता है.मैं ,जो यहाँ का मूल निवासी हूँ,इस पीड़ा को शिद्दत से महसूस करता हूँ.इसीलिए सोचता हूँ,नहीं कामना करता हूँ की अब जो भी चुनाव होगा उसमे जंगल-तराई राज्य का निर्माण सबसे बड़ा मुद्दा होगा.मैं जाब इस मुद्दे को लेकर संताल-परगना की शोषित-उपेक्षित जनता की आवाज बनकर काम करूंगा,और भविष्य में ऐसे तमासे नहीं होने dunga.
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