मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

विष्णु प्रभाकर जी सादगी की प्रतिमूर्ति थे..

१९९० का वर्ष मेरे लिए ,अब ऐसा लगता है ,काफ़ी महत्वूर्ण था.उस समय मुझमे सकारातमक उर्जा का प्रबल आवेग हिलोरें ले रहा था.मैंने जो कुछ भी समाज को दिया,या सामजिक ऋण से उरिण होने के लिए जिन कार्यों को सम्पन्न किया,उनमे बहुतो की शुरुआत ९० से ही हुई है.ठीक से याद नही आ रहा है की मैं कैसे और किनके साथ सबसे पहले मोहन पैलेस की छत पर चलने वाले काफी हाउस में पहुँचा.शायद प्रो. राजकुमार जैन जी के साथ गया था.वह शनिवार का दिन था.वहीं पर दिल्ली के चर्चित लेखकों और कलाकारों की मंडली लगी हुई थी.उस मंडली के मध्य वयोवृद्ध खादी धरी,गाँधी टोपी पहने विष्णु प्रभाकर जी सुशोभित हो रहे थे.उस समां ने मुझ पर गजब का असर ढाया.फ़िर तो मैं हर शनिवार को उस शनिवारी गोष्ठी मैं बैठने लगा.यह सिलसिला १९९५ तक चला,जबतक विश्वविद्यालय परिसर का रीड्स लाइन हमारा निवास रहा.इन पांच वर्षों में न जाने कितने नामी -गिरामी लेखकों ,कवियों,कलाकारों और पत्रकारों का साहचर्य रहा.पता नहीं कितनी साहित्यिक गोष्ठियों में समीक्षक या वक्ता की हैसियत से शामिल हुआ.उन दिनों मैं दाढी रखता था तथा पाईप पीता था.उन दिनों के उप-कुलपति प्रो.उपेन्द्र बक्षी साहब भी पाईप पीते थे. अतः लोग मुझपर कभी-कभी व्यंग्य भी करते थे की एक बक्षी साहब हैं की एक झा साहब हैं--दूर से पहचाने जाते हैं.मैं भी खादी का कुर्ता पायजामा ही पहनता था,सो मेरी किसी भी बैठक में उपस्थिति अलग अंदाज में ही होती थी.पढाता इतिहास हूँ ,परन्तु उन दिनों भी लोग मुझे हिन्दी का ही शिक्षक समझते थे.काफी हाउस भी इसका अपवाद नही था.मेरे कॉलेज के डॉक्टर हेमचंद जैन अक्सर मुझे कहते थे --आप अपने बौद्धिक लुक से आतंकित करते हैं.देव राज शर्मा पथिक भी कहते थे की झा साहब आपमें स्पार्क है .खैर मैं इन बातो का आदि होता जा रहा था.लेकिन काफी हाउस मैं बस साहित्यिक मंडली का साहचर्य सुख लेने जाता था.वहां मेरे जैसा एक अदना सा व्यक्ति बहुत बोलता था परन्तु वाह रे विष्णु जी की महानता ,मुझे मेरे छोटेपन का कभी अहसास तक नही होने दिया.वल्कि मुझे लगता है मुझे काफ़ी गंभीरता से वे सुनते थे.बहुत गर्वोन्नत महसूस करता था मैं.एक-दो बार हाथ पकड़कर भीड़ भरी सड़क पार कराने के बहने उनका स्नेहिल स्पर्श और सान्निद्ध्य प्राप्त करने का अवसर मुझे भी प्राप्त हुआ,इसका संतोष है .१९९४ में भारतीय भाषाओँ के लिए संघर्ष करने के क्रम में संघ लोक सेवा के बाहर के धरना-स्थल से पुष्पेन्द्र चौहान समेत कई साथियों के साथ मुझे भी पुलिस ने गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल भेज दिया.ज्ञानी जेल सिंह,अटल बिहारी वाजपेयी विशानाथ प्रताप सिंह,मुलायम सिंह यादवऔर अन्य कई बड़े नेताओं तथा साहित्यकारों-पत्रकारों,समाज सेवियों एवं आन्दोलनकारियों के दबाब में एक सप्ताह के बाद हमारे उपर लादे गए सारे केस हटाकर हमें बिना शर्त रिहा किया गया.इसके बाद तो काफी हाउस में मी हमारे प्रति साथियों का आदर भाव बढ़ गया.लेकिन अपने आवारा स्वाभाव के कारण मैं १९९५ के बाद काफी हाउस जाने का सिलसिला चालू नही रख सका.इसका मुझे आज भी अफ़सोस है.आवारा मसीहा के लेखक को इसका भान भी नहीं हुआ होगा की एक यायावरी आवारा किसी दुसरे धुन में उलझ रहा होगा.आज हमारे बीच नही रहने के बाद भी उनकी स्मृतियाँ इतनी मृदुल है की लगता है विष्णु जी अभी भी काफी हाउस की मंडली की शोभा बने हुए हैं.उनकी स्मृति को कोटि-कोटि प्रणाम.

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