सोमवार, 27 अप्रैल 2009

हाँ ये वो मंजर तो नहीं...२....( धारावाहिक ).

हां तो में कह रहा था कि बहुत पहले ही गोसाई जी कह गए है --पर उपदेश कुशल बहु तेरे --सो भाई जब तक अपनी नौकरी , चाहे टी वी की नौकरी हो , चाहे अखबार की नौकरी या फ़िर चाहे विश्वविद्यालय की ही नौकरी क्यों न हो , सब के सब अपनी चमड़ी बचाकर बोलेंगे और लिखेंगे भी.व्यवस्था के खिलाफ खूब लिखेंगे और खूब बोलेंगे.बेचारी व्यवस्था तो किसी का कुछ कर नही सकती अब , क्योंकि उसने तो तुम्हें एंकर , पत्रकार , लेखक , प्रोफ़ेसर और न जाने क्या-क्या पहले ही बना रखा है। सो तुम कलन तोड़ते जाओ ,पन्ने भरते जाओ ,स्टूडेंट्स को भासन पिलाते जाओ , समाचार चेनलो पर मशीन की तरह बजाते जाओ ,व्यवस्था तुम्हारा कुछ आमदानी ही करेगी,कुछ जेब गरम ही होगी.और लगे हाथ तुम महान भी बन जाओगे-महान पत्रकार ,महान लेखक ,महान आचार्य आदि-इत्यादि। सो भाई हम सब क्या कर रहे है ,बखूबी जानते हैं। हम यह भी जानते है कि नेता लोग जो नही कहते है और करते रहते है उससे भी नेता लोगो की धाक बढाती ही है। पैसे से सबकुछ ख़रीदा जाता है हमारे लोकतंत्र , महान लोकतंत्र में। बुद्धिजीवी तो सब दिन से नेताओं की दरबारी करते रहे , बिकते रहे और लिखते रहे। राजा-महाराजाओं के पास भी तो दरबारी लेखक ,कवि ,इतिहासकार , विदूषक आदि होते ही थे--प्रशस्ति हेतु। दरबार के रत्न बनकर उतने ही गौरवान्वित होते थे जितने आज के राज ,और राज्य पुरस्कार प्राप्त करके हमारे लेखक.सो सही तो यही है कि रघुकुल रीति सदा चली आयी .....रामचंद्र जी ने रावण को मारा तो जय,शम्बूक को मारा तो भी जय और सीता को बनवास दिया तो भी जय ....... और जनता बेचारी ,उसे तो राज की खुशी में दीप तो जलाने ही हैं। नेताजी चाहे जो कहें ,उनकी जी हजूरी तो करनी ही है.हाँ उनके छुभइए दादा लोग जरूर पथ-प्रदर्शक बनते हैं इस वक्त ,यही तो उनकी भी मस्ती काटने की वेला होती है.पब्लिक पर रॉब भी की नेताजी के ख़ास हैं और नेताजी के दरबार में नंबर की काम का आदमी है। सो उनके दोनों हाथो बोतल ,प्लेट में कबाब और जेब में नोट। ऐ सी की गाड़ी में ,घुमाने का मजा सो फाव में। है न यह मंजर अलग किस्म का... (...जारी...)

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