शनिवार, 28 अगस्त 2010

वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हाबी है. .....see ...

आज कल देश में कई तरह की प्रवृतियाँ और विकृतियाँ एक साथ सक्रिय हैं. साहित्य, खेलकूद, संसद, सरकार, शिक्षा और धर्म--प्रत्येक मोर्चे पर कानफाडू चीख-पुकार मची हुयी है. सभी कोई देश सवारने में लगे होने का दावा कर रहे हैं, पर समाज बिखरता जा रहा है. क्यों?
धर्म,जाति, के ठेकेदार जोर-जोर से अपनी बात कहकर जीतने का अहसास कर रहे हैं, राजनीति के चतुर खिलाडी हमारी संवेदनाओं को कुचलते हुए देश को विकास के पाठ पर ले जाने का आलाप कर रहे हैं, शिक्षक पूरे देश को क्रांति का पाठ पढ़ाने में लगे हुए हैं जबकि कॉलेज वीरान हो रहे हैं.
साहित्यकारों की क्या बात करें? अपने अपने मठों के महंत दोसरों की बोटी बोटी नोच लेने पर तुले हुए हैं. हम जो लिखें साहित्य तुम लिखो तो कूड़ा--ये हिंदी जगत की शाश्वत घटिया राजनीति है और लेखक होने के कारण हम जन्मना महान हैं.
क्या कहें, क्या न कहें?
वितृष्णा की हद तक विकृति की प्रवृति हाबी है.
क्या करें हम?
क्या काटो तुम?
क्या करें हम सब?
कैसे करें हम सब?

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें