सिर्फ जन लोक पल विधेयक--उससे कम कुछ भी नहीं
स्वाधीनता दिवस तो हर साल मनाया जाता है, पर इस वर्ष का स्वाधीनता दिवस एक ऐसे क्रांतिकारी उभार के साथ आया जिसने देश को एक महत्वपूर्ण मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है. इस १५ अगस्त को देश की आन बान शान पर मर मिटने वाले अमर बलिदानियों की याद ने पिछले कुछ महीनो से भ्रष्टाचार के विरोध में उभर रही जन भावनाओं को राष्ट्रवादी रंग में रंग दिया. और जब अन्ना को १६ अगस्त से उनके घोषित अनशन और आन्दोलन को रोकने के लए गिरफ्तार कर लिया गया तो पूरे देश में आन्दोलनकारी भावनाएं चरम पर पहुँच गयी और आज अन्ना सही अर्थों में जन-नायक हो गए. पूरी ना सही, अधूरी ही सही, पर मिली तो थी आज़ादी ही १५ अगस्त १९४७ को. वर्षों की तपस्या, हजारों के बलिदान, और लाखों की कुर्बानी के बाद सदियों की गुलमी से मुक्ति के इस पवित्र दिन को लोग अपने अपने स्तर पर अमर स्वाधीनता सेनानियों को नमन करते हुए मना रहे थे. यह ठीक है कि देश में सबकुछ ठीक नहीं है और हमें अभी बहुत लम्बा संघर्ष करना है--सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिये. गांधी के सपनों को साकार करने के लिये और वास्तव में लोक-राज कयम करने के लिये हमें कई अन्ना पैदा करना होगा और कई बार लडाईयां लडनी होगी, बार-बार कुर्बानियां देनी होंगी, लेकिन इससे इस पावन दिवस का महत्व कम नहीं हो जाता है. सच तो यह है कि पूरे देश वासियों को यह दिवस अपने शहीदों को नमन करने और उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हुए भरत-भूमि के आन-बान-शान की रक्षा के लिये कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देता है. अतः १५ अगस्त के इस पवन पर्व पर सबको गदगद मन और भाव-विह्वल हृदय से याद करते हुए इस बार लोग अन्ना के आह्वान पर उनके पीछे खड़ा होने का मन बना चुके थे. ठीक इसी घड़ी में सरकार ने दमनकारी कदम उठाकर देशभर को मनो झकझोर दिया और पूरा देश अन्नमय हो गया. जिस तरह की उर्जा आज अनुशासित और समर्पित होकर समाज और देश के लिए कुछ कर गुअजरना चाहती है उसे स्वाधीनता आन्दोलन का विस्तार ही मानना चाहिए.
महान भारतीय स्वाधीनता संग्राम जिसकी लौ औपनिवेशिक गुलामी की प्रक्रिया के तुरंत बाद ही शुरू हो गयी थी, देश के अजाने पर आज के झारखण्ड के संताल परगना परगना के पहाड़िया विद्रोह से. इस बात को मैं ऐसे ही नहीं लिख रहा हूँ, वल्कि विद्रोहियों को पकड़कर उनपर चलाये गए मुकदमे के दौरान उनके दर्ज किये गए बयानों के पुख्ता प्रमाणों का आधार है जिसे हम सब को पढ़ना चाहिए. विद्रोहियों ने मजिस्ट्रेट से पूछे गए प्रश्न के जबाब में कहा था कि तुम हमारे अपने देस का नहीं हो इसलिए हम तुम्हारी अधीनता नहीं मानते हैं. कितनी स्पष्ट सोच और प्रतिक्रिया थी उनकी जिनके बारे में बड़े-बड़े इतिहासकारों ने लिखने में कंजूसी की है. १७७२-१७८० से शरू हुए इस पहाड़िया विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम का बिगुल हम मानते है, जो आगे चलते हुए, उस इलाके के सन्यासी विद्रोह और संताल विद्रोह से होता हुआ १८५७ के महान प्रथम स्वाधीनता संग्राम तक पहुंचा था. यद् रहे कि संताल परगना का राजमहल कुछ ही सालों पहले तक आज के बिहार,बंगाल,बंगला देश, ओड़िसा और झारखंड के बहुत बड़े क्षेत्र की राजधानी थी इसलिए यहाँ के लोगों को पराधीनता का दर्द औरों से ज्यादा आखर रहा होगा. जो भी हो स्वाधीनता की आकांक्षा के लेकर शुरू हुए इस महान आन्दोलन ने राजनितिक विफलता के वावजूद समरे सामूहिक मानस-पटल पर चिरंतन छाप छोड़ दी. लोकोक्तियाँ, जनास्रूतियाँ, लोकगीत और न जाने कितनी साहित्यिक रचनाओं का अम्बार इस महान क्रांति से अटा पड़ा है. यह निःसंदेह प्रथम स्वाधीनता संग्राम था.
जैसा कि अक्सर होता है विफलता के बाद फिर लोग अपनी ताकत को पुनः एकत्रित करके संघर्ष और अधिक जोशीले अंदाज से दमन का प्रतिरोध करते हैं. महान शूरमाओं और बलिदानियों कि इस धरती पर फिर से स्वाधीनता आन्दोलन का शंखनाद हुआ, जिसकी अंतिम चरम परिणति १९४२ की महान अगस्त क्रांति के रूप में हुयी. करो या मरो के मंत्र की आग ने बरतानिया साम्राज्यवाद को भारत से बोरिया बिस्तरा समेटने पर विवश किया. हाँ उस समय भी कुछ तथाकथित विध्नसंतोषी समूह, दल और बुद्धीजीवी थे जो स्वाधीनता संघर्ष और पूर्ण स्वाधीनता पर मीन मेख निकालते रहते थे. कुछ समूह तो वैचारिक रूप से अलग-अलग हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खाद पानी भी दे रहे थे. नतीजा? साबरमती के संत फ़कीर के न चाहते हुए भी देश बाँट गया और हमारे इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना हो गयी. एक तरफ स्वाधीनता सेनानी देश के निर्माण में जुट गए तो दूसरी तरफ सत्ता का स्वाद चखने और राज सुख भोगने के लिए देश में ही एक नयी सोच जन्म लेने लगी. स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास को पढ़ते समय यह तस्वीर साफ हो जाती है कि किस तरह इतिहास में नाम दर्ज करने में भी चमचागिरी का बोलबाला रहा और हजारों वीरों की वीरता तथा सिपाहियों का त्याग अनदेखा कर दिया गया. जो भी हो इस पड़ाव को हम महान स्वाधीनता संघर्ष का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव मानते हैं क्योंकि औपनिवेशिक शासन के दौर में जो हमारा चारित्रिक पतन शुरू हुआ था उसको अब चरित्र निर्माण कि दिशा में मोड़े जाने का अवसर मिला था. क्या यह इबारत आप पढ़ नहीं पते हैं जब आप गांधी को स्वाधीनता का जश्न मनाते नहीं बल्कि कोलकाता की गलियों में लोगों में संवेदना और सेवा का पाठ पढाते हुए देखते हैं?
देश आगे भी बढ़ा और पीछे भी गया. इंडिया और भारत का निर्माण हो गया. एक तरफ गगन चुम्बी इमारते, भोग और विलासिता में आकंठ डूबा इंडिया और दूसरी तरफ पेट की भूख से बिलबिलाता-मरता, अधनंगा, जाती और धर्म के नाम पर मरता-मरता भारत. नहीं चौंको मत--इंडिया बने या बनाने कि फ़िराक वाले फरका परस्त ताकतों ने धर्म और जाती के नाम पर जो गुंडागर्दी और लूट खसोट मचाई उसकी बानगी अब तो पूरा देश ही नहीं पूरी दुनिया देख रही है. इस तरह की बातों को चुनौती देने आगे आये लोकनायक जय प्रकाश नारायण. भारत की उर्जा को समेटकर अधिनायकवाद को खुली चुनौती दी और तानाशाही को ध्वस्त किया. तीसरे स्वाधीनता आन्दोलन ने भारत को एक बार फिर बचा लिया. सारा देश आज भी अपनी आजादी की रक्षा के लिए जे पी का मुरीद है.
लेकिन यह क्या? जिनपर देश ने भरोसा किया उन्होंने ही एक बार फिर हमें कुचलने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी? संपूर्ण क्रांति के नारों से निकला महास्वार्थी तत्वों ने पूरे देश को हर तरह के अनाचार, लूट खसोट और बेशर्म सांप्रदायिक और जातीय आग में झुक दिया. भ्रष्टाचार मनो उनका जन्म्सिध्ह अधिकार हो गया. जो जितना बड़ा भ्रष्टाचारी वह उतना बड़ा क्रांतिकारी बन गया. इंडिया के ये ठेकेदार भारत को, भारत की अस्मिता को रौंदते रहे और हमें परिवर्तन का पाठ पढ़ते रहे. तो फिर इस नए भ्रष्टाचारियों की जमात में बड़ी आसानी से पहले से भ्रष्टाचार के मैली गंगा में तैर रहे इण्डिया के लोगों ने अपने जगह बना ली. बल्कि दिल खोलकर उन्होंने नये भ्रष्टाचारियों का स्वागत करके अपना हम जोली बना लिया क्योंकी अब उन्हें कौन चुनौती देता? यहाँ आकर जाती, धर्मं, लिंग, वरगा का भेद मिट गया क्योंकि सब भ्रष्टाचार के स्वर्ग का सुख भोगने लादे, बिना किसी के दर के. अगर किसी ने उनकी कारगुजारियों के खिलाफ बोलने के हिम्मत दिखाई तो उन्हें रस्ते से ही हटा दिया गया. जातिवादी , सांप्रदायिक , और शोषक वर्ग का ख़िताब दिया गया. अगर तब भी कोई सिरफिरा नहीं रुका तो बड़े आराम से ठिकाने लगा दिया गया. हाँ कुछ को खरीदा भी गया ताकि क्रांति करने की विश्वसनीयता ही नहीं बचे किसी में. विश्वसनीयता के इस संकट के दौर में सबको बताया गया की यह तो होगा ही, ऐसा जो कर सकता है वही देश की बागडोर संभल सकता है. राजनीती और भ्रष्टाचार एक दूसरे का पर्याय हो गया. बड़े बेशर्म पर बुलंद आवाज में कहा जाने लगा की अरे तुम क्या राजनीती करिगे? तुम्हारे पास न तो लूट का धन है और न ही लूट करने का मदद. तुम में न तो बहुबल है और न ही किसी को मरने की ताकत. याद कीजिये पिछले कुछ ही सालों का परिदृश्य. हत्या, डकैती, बलात्कार, अगवा, ठेकेदारी और घुसखोरी के विषैले वातावरण में कोई भी साफ सुथरा व्यक्ति कुछ भी सोच पता था? बस बेबसी और बेबसी.
ऐसे ही परिदृश्य में अन्ना का उदय क्या किसी दैवयोग से कम है? क्या अन्ना के पीछे स्वतः स्फूर्त उर्जा की अनदेखी हम कर सकते हैं? कुछ सिरफिरे और स्वार्थी लोग, जो किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी सत्ता का सुख भोग रहे हैं अन्ना के आन्दोलन से बेहद डरे हुए हैं. इन डरपोकों में राजनीती ही नहीं वल्कि टी.वी. और अखबारों में अपनी उपस्थिति दर्ज करने को बेताब तथाकथित चिन्तक लेखक बी है जो यह भी नहीं जानते की सभ्य भाषा किसे कहते हैं. कोई अन्ना को फासीवादी कहता है तो कोई उन्हें गुंडा कह कर अपना छुटपन दिखा रहा है. लेकिन इससे क्या? सुकरात को जहर पीना पड़ा था. मीरा को भी जहर पीना पड़ा था. प्रह्लाद को आग की दरिया में बैठना पड़ा था. गाँधी को गोली कहानी पडी थी. जयप्रकाश को बर्फ की सिल्लियों पर सोना पड़ा था. खुदीराम बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, सुभास चन्द्र बोस, ने अपनी जाती देखकर क्रांति में हिस्सेदारी नहीं निभाए थी. इन महापुरुषों की महागाथा को कोई रावन या कंस ही अनदेखा कर सकता है. कृष्ण ने अपनी जाती देखकर पांचजन्य नहीं बजाय था. कोई अन्ना की जाती जानते हो? पता करना फिर और नीचे गिराकर तर्क गढ़ने की कोशिश करना. अरे कब तक ऐसा करते रहोगे? धर्मं और अधर्म के इस युद्ध में विजय धर्म की ही होगी क्योंकि वहां पूरी की पूरी त्याग , बलिदान और संघर्ष की विरासत है. कौन सिखाये इन्हें? ये सब कुछ जानते हैं. पर इनका निहित स्वार्थ इन्हें अनाप-सनाप बकने और समाज को बाटने के लिए उकसाता रहता है. परन्तु धीरज रखना साथियों. अना अब वही कर रहा है जो गांधी ने किया था, तात्या टोपे ने किया था. संयम और धीरज से काम लेना. पूरा देश तुम्हारे साथ है. नितीश ने जयप्रकाश की धरोहर बचने की कोशिश की. चंद्रबाबू नायडू देश और समाज को समझ रहे है--लोगों का साथ दे रहे हैं. अन्ना के झंडे के नीचे सभी परिवर्तनकारी शक्तियां आ रही हैं. परिवर्तन के नाम पर छलावा करने वाली ताकतों से एक बार फिर लोहा लेने हेतु देश उठ खड़ा हुआ है अन्ना की पुकार पर.
आजादी के इस चौथे दौर में भी बहुत कुछ होगा. महाभारत होता है तो निष्ठाएं भी बदलती हैं. बहुत लोग इधर-उधर होंगे. पर जो खुछ भी होगा वह शुभ ही होगा. ब्रश्ताचार के विरूद्ध शुरू हो चुके इस विप्लव को अब कोई नहीं रोक सकेगा. बहुत दूर तक जायेगा यह. सत्ता समीकरण बदलेगा. सत्ता बदलेगी और फिर एक बार होगा लोगों के साठ चलवा करने वालों का कुत्सित षड़यंत्र. बल्कि शुरू हो चूका है. देख रहा है देश की किस तरह आकंठ घोटालों में डूबा लोक सभा में गरज रहा है अन्ना पर. किस तरह अन्ना के आन्दोलन में कूदने की खुली घोषणा के वाबजूद लोकसभा और राज्य सभा में अन्ना के जन-हित लोकपाल बिल को खामियों से परिपूर्ण बताया जाता है. सुषमा स्वराज ऑन रिकॉर्ड कहती हैं की अन्ना के पत्र की भाषा अशोभनीय थी. वाह. यही तो असली चेहरा है राज नीति का. लालू और सुषमा महज दो नाम हैं, परन्तु दोनों राजनीति के कुत्सित चहरे के ही प्रतिनिधि हैं.
लोगों को याद दिलाना जरूरी है की जब भारत छोड़ो क्रांति की सफलता के बाद बरतानिया साम्राज्य ने यहाँ से अपना बोरिया बिस्तर समेटने की शुरुआत कर दी और कैबिनेट मिशन भारत आया तो भारतीय जनता के नैतिक प्रतिनिधि की हैसियत से ही स्वाधीनता संग्राम के नेताओं ने उनसे विमर्श किया और संविधान सभा का गठन १९४६ में हुआ. १९४६ में इंग्लॅण्ड से भारत आये कैबिनेट मिशन के साथ भारतीय नेताओं और के बीच वार्ता का परिणाम था कि संविधान सभा का गठन हुआ. ९ दिसंबर , १९४६ को संविधान सभा की पहली बैठक नयी दिल्ली में हुई. ९ महिलाओं समेत २०७ प्रतिनिधियों ने इस पहली बैठक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य जे.बी.कृपलानी, डॉ.राजेंद्र प्रसाद, श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्री हरे कृष्ण महताब, पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त, डॉ. भीम राव अम्बेडकर, श्री शरत चन्द्र बोस, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, श्री एम. अशरफ अली जैसे महानुभाव इस सभा में विराजमान थे. श्री सच्चिदानंद सिन्हा ने बैठक की अध्यक्षता की. इस संविधान सभा ने २ वर्ष,११ महीने,तथा सैट दिनों की अवधि में कुल १६५ दिनों में संपन्न अपनी बैठकों के बाद संविधान का निर्माण किया. १४ अगस्त १९४७ की शाम से इस संविधान सभा ने स्वतन्त्र भारत की विधायिका का रूप ग्रहण कर लिया. २९ अगस्त १९४७ को इसी सभा ने डॉ.भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में ड्राफ्ट-समिति का निर्माण किया. २६ जनवरी १९५० को तमाम संशोधनों के बाद इस सभा द्वारा निर्मित संविधान को अंगीकार किया गया. इसी संविधान सभा के उदार संविधान की बात हम भी कर रहे हैं जो अपने नागरिकों को लिंग,जाती,धर्म,क्षेत्र और भाषा के भेदभाव के बिना गरिमापूर्ण जीवन निर्वाह की कामना ही नहीं करता वल्कि उसका अधिकार भी देता है. आज जब संविधान के मूल प्रावधानों को तर-तर किया जा चूका है हमें इसकी रक्षा करनी होगी. लोकसभा सरवोछ है, परन्तु उससे भी ऊपर है संविधान, जिसने लोकसभा का गठन किया. संविधान सभा की बहसों से हम संविधान के प्रावधानों की रक्षा हेतु तर्क और दृष्टि दोनों ले सकते हैं. हम, भरत के हमलोग, वी द पीपल आफ़ इंडिया, ही अपने भग्य के विधाता हैं ---इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिये. संविधान भी भरत की जनता की तरफ़ से ही बनाया गया है और इसमें संशोधन भी भारत की जनता के नाम पर ही किया जाता रहा है. अतः जनता की सर्वोच्चता स्थापित करने के इस मुहिम में हम सब अपनी भूमिका खुद ही निरूपित करें. आप तमाम लोग सुन रहे हैं न अन्ना की अवाज़ में लोक की आवाज़?
अब सबको, जो किसी भी विचारधारा के हैं, किसी भी दल के हैं, किसी भी उम्र के हैं, अगर खुद को भ्रष्टाचार के विरोध का हिस्सेदार बनाना चहते हैं तो इस अन्दोलन को उस दिशा मे ले जाएं जहां इसे जाना चाहिये---सम्पूर्ण बदलाव के ओर.
इस चौथे अज़ादी के अन्दोलन में हमें इतिहास से सबक लेकर आगे बडना चहिये.
अब वैसे तमाम लोगों को जो व्यव्स्था परिवर्तन की प्रक्रिया के सह्भागी रहे हैं, तेजि से बदलती जा रही परिस्थिति मे कहीं बैठकर एक मुकम्मल साझी रणनीति का ब्लूप्रिंट तैयार कर लेना चाहिये.किसी भी दल विशेष को इस अन्दोलन को हाईजैक नहीं करने देना चाहिये क्योंकि किसी भी दल ने भ्रष्टाचार का मुखर विरोध नहीं किया है. इस अवसर का फ़ायदा अपने चुनावी हित में करने की मंशा भाजपा की साफ़ दिख रही है. अतः भाजपा के भी ईमानदार लोगों को साथ में लेते हुए, वामपंथियों, समाजवादियों के निष्कलुष लोगों को मिलते हुए, जनान्दोलनकारियों को जोडते हुए, भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस जंग को अंतिम परिणति तक ले जाना चाहिये. हां अभी ही इसके साथ अन्य मुद्दों को जोडने का उतावलापन दिखाने की कोई जरूरत नहीं है. इससे लोगों का विश्वास टूटने का खतरा है. याद रखिये गांधी ने १९१७ से १९४२ तक का सफ़र तय किया, करो या मरो का मंत्र देने के पहले. ठीक उसी प्रकार इसे बाद में, अवाम को भरोसे में लेते हुए इस अज़ादी के चौथे अनदोलन को बडाना चाहिये.
राजनैतिक परिदृश्य में तेजी से बदलाव आ रहा है. अन्ना के १६ अगस्त से चल रहे अनशन ने खलबली मचा दी है. अन्ना हजारे अब देश की आवाज हैं. एक तरफ पूरे देश से अन्ना के समर्थन की खबरें आ रहीं हैं, तो दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी और सरकार अन्ना पर आरोप लगा रही है, ताकि वे दिस्क्रेडित किये जा सकें. लगता है सरकार अपना संतुलन खो चुकी है. भारतीय जनता पार्टी इस बदले माहौल का पूरा फायदा उठाना छह रही है क्योकि अन्ना के आन्दोलन ने पूरे देश में सरकार की नीतियों के खिलाफ व्यापक वातावरण बना दिया है. अभी बहुत सावधान रहना है-- सभी तरह की फिरकापरस्त ताकतें भी अब आन्दोलन में शामिल होकर इसके उद्देश्य को भटकाने की कोशिश कर रही हैं. टी. वी. चैनलों पर चल रहे डिबेट गवाह हैं. हम सब जो देश में व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखते है, इस मुहीम के स्वाभाविक साथी है --- हमें अपने साथ पूरे देश के लोगों को जोड़ने का अवसर मिला है , इस अवसर को चुकाना नहीं चाहिए जैसा की अन्ना का भी मानना है.
अब धीरे-धीरे सुर बदल रहा है. भ्रष्टाचार के आरोपों को झेल रही दिल्ली की मुख्यमंत्री के बेटे और सांसद संदीप दीक्षित ने अन्ना की गिरफ़्तारी को तो गलत कहा ही यह भी कहा कि अन्ना ही कोई रास्ता निकालें. दूसरी तरफ एन डी टी वी के राविश आज कह रहे थे कि लोगों को अब मान लेना चाहिए कि अन्ना के साथ वास्तव में आम लोग हैं, जबकि उनके चेनल पर कर रात तक की प्राइम टाइम बहस पर लोग अन्ना के जन लोक पल की चर्चा न करके सिर्फ जनतांत्रिक अधिकारों के हनन की ही बात और उसके विरोध में स्वर उठा रहे थे. अन्ना का वास्तविक मुद्दा बहस में होता ही नहीं था. भाजपा के प्रवक्ता जोर देकर कह रहे थे कि वे जनतांत्रिक अधिकारों के हनन के विरोध में अन्ना को समर्थन दे रहे है जबकि उनका जन लोक पाल विधेयक बहुत सारी कमियों को समेटे हुए है. क्या कहेंगे आप इसे?
संयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के चुनावी परिदृश्य में अन्ना कहीं नहीं हैं. जब मैंने १५ मई को ही एक लेख लिखाकर इस चुनावी अजेंडा में अन्ना द्वारा उठाये गए प्रश्न को रखने की कोशिश की थी तो उसपर गौर फरमाने की बजे कुछ शिक्षकों ने मुझपर व्यक्तिगत हमला बोलकर मुद्दे को भटकने की पुरजोर कोशिश की. आज एक महीने बाद यह साफ हो गया कि उस समय जो मैं कह रहा था वह मूल प्रश्न तब भी था और आज भी है.
अभी भी बहुत लोग जिन्हें मै व्यक्तिगत रूप से क्रन्तिकारी औरऔर इमानदार के रूप में जानता हूँ, इस बहस में उलझे हैं कि अन्ना के समर्थन में उमड़ा जन सैलाब की ताकत का ही प्रदर्शन है. अन्ना इस भीड़ की ताकत के प्रदर्शन के बल पर संसदीय सर्वोच्चता को चुनौती दे रहे है. आज भी एक टी वी चेनल पर एक महिला अन्ना को फासिस्ट कह रही थी.
लेकिन तमाम लोगों से विनम्र आग्रह है की एक बार रामलीला मैदान जाकर देखें, लोगों का वर्ग चरित्र भी समझें और लोगों को सांप्रदायिकता के तराजू पर भी तौल लें. कुछ लोगों से बातचीत करें -- तभी पता चलेगा कि लोगों के आक्रोश को कितनी सशक्त अभिव्क्यक्ति दी है अन्ना ने. आप विश्वास करेंगे कि रामलीला मैदान में आज मेरी मिलाकात और बातचीत दो ऐसी अन्ना समर्थक महिलाओं से हुई जो छुट्टी लेकत वहां आयी थी. अरे जरा जानिए तो कि वे नौकरी कहाँ करती हैं? वे दिल्ली पुलिस में सिपाही हैं और पुलोसिया भ्रष्टाचार के विरोध में वहां आयी थी जो अन्ना के आन्दोलन को ही एकमात्र रास्ता मान रही थी.
लेकिन खतरा यहीं है. जब पूरे समाज के आँखें एक व्यक्ति पर केन्द्रित हो जाती है तो तमाम तरह के स्वार्थी तत्त्व भी घुसपैठ करने की कोशिश करते हैं. संदीप दीक्षित अब क्यों ऐसी भाषा बोल रहे हैं, यह जरूर समझाना होगा. ऐसे तत्वों से भी सावधान रहना होगा जो भ्रष्टाचार के सतम्भ हैं पर भ्रष्टाचार की इस लड़ाई में घुसपैठ करने की जुगाड़ में हैं-मैने वहां यह भी महसूस किया. लेकिन ऐसा नहीं कि इन निहित स्वार्थी तत्वों से निपटा नहीं जा सकता है.
एक बात और, अभी बहुत दिन नहीं हुए जब लालू यादव के तमाम भ्रष्टाचार के खबरों के आने के वावजूद लोग उनकी लाठी रैली में उमड़ पड़ते थे. यह वही जनता थी जो सबकुछ जानते हुए भी लालू यादव की जातिवादी राजनीति को समर्थन देकर उन्हें बिहार को बर्बाद करने देती रही. अतः जनता को भी जानना होगा के भ्रष्ट लोगों को चुनाव में जितने से भ्रष्टाचार बढेगा, घटेगा नहीं. जाति और धर्मं के नाम पर वोट डालना भी भ्रष्टाचार ही है. अतः अब पहले से अधिक मुखर होकर कहना चाहिए के सिर्फ जन लोक पल विधेयक--उससे कम कुछ भी नहीं.
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