शनिवार, 26 नवंबर 2011

वो सुबह कभी न कभी तो आयेगी...........

आम लोगों के धैर्य की परिक्षा लेने में सभी लगे हुए से लगते हैं-- सरकार, विपक्ष, अन्य राजनीतिक दल, बुद्धिजीवी, पत्रकार, ट्रेड-यूनियन के नेतागण, छात्र-संगठनों के प्रतिनिधि, और यहाँ तक कि आर. डब्ल्यू. ए. के नेतागण भी---सब के सब. ऐसा लगता है कि अंधी सुरंग में हम सब बेतहासा दौड़ते चले जा रहे हैं, बिना आगे-पीछे  देखे. सिर्फ गाल बजाने वाले, आज के सन्दर्भों में, कुछ से कुछ उलजलूल विषयों पर तथाकथित आधिकारिक रूप से की-बोर्ड पर अंगुलियाँ नचाने वाले अब बहस- मुबाहिसा में उल्लेखनीय बन रहे हैं. "उष्ट्रानाम विवाहेषु, गर्धवाः गीत गायकाः , परस्परं प्रशिस्यन्ति, अहो रूपं अहो ध्वनि". इस दौर में किसने कितना जलाया खुद को संघर्षों की आग में, कितना तप किया है किसी मुद्दे पर जबान खोलने के पहले, अगर इन तथ्यों की पड़ताल करें तो यहाँ अधिकतर विद्वान् नेटवर्किंग और चापलूसी की ही उपज साबित होंगे. कभी जाति के नाम पर, तो कभी क्षेत्र के नाम पर. कभी विचारधारा के नाम पर तो कभी निजी सेवा-भक्ति के नाम पर, लोग अपना-अपना जुगाड़ मात्र बैठाते आये हैं. यह भयावह स्थिति जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को लीलती जा रही है. लोहिया जी द्वारा प्रयुक्त "छद्म-बुद्धिवीवी" शब्द शायद पहले कभी इतना प्रासंगिक नहीं था, जितना आज हो गया है. हर जगह छद्म ही छद्म. और इस छलिया परिवेश में रहते हुए भी कुछ न कुछ सार्थक करना होगा, बिना आलोचना-प्रत्यालोचना की विशेष परवाह किये हुए. तभी कुछ सार्थक होगा. जरूर कुछ सार्थक होगा. वो सुबह कभी न कभी तो आयेगी........... 

बुधवार, 9 नवंबर 2011

इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी



मैं चुप हूँ क्योंकि चुप रहना ही ठीक है. बात न सिर्फ रामानुजन की है नहीं राम कथा की. बात इतिहास की व्याख्या पर वर्चस्व की है. हम क्रन्तिकारी और तुम प्रतिक्रांतिकारी बनाम हम सच्चे भारतीय और तुम नकली भारतीय के उद्घोषकों के बीच चल रहे इस उठापटक में न तो कोई तीसरी आवाज़ है और न ही कोई उस आवाज़ का संज्ञान लेने वाला. सच तो यह है की इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है. तटस्थ होकर इति...हास की मीमांशा करने के दिन लड़ गए से लगते हैं. पर जो अपने सच से आँखें नहीं मिला सकता वह किसी भी चुनौती का सामना नहीं कर सकता, चाहे चुनौती भ्रष्टाचार की हो या नक्सली हिंसा की या फिर साम्प्रदायिकता की ही क्यों न हो? इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी. संस्कृति के सवाल को बहुत सनसनीखेज बनाकर दोनों खेमों के पहलवान सिर्फ संस्कृति हो ही आहत कर रहे हैं. 




मैं व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी दुखी हूँ क्योंकि दिल्लीविश्वविद्यालय में जब धर्म और संस्कृति के विषय इतिहास में निषिद्ध थे तब भी मैं उन चाँद लोगों में से था जो इस विषय पर खुलकर बात करने की सार्वजनिक वकालत करता था. इसकी अंतिम और सुखद परिणति तब हुयी प्रोफ़ेसर टी. के. वेंकट सुब्रमनियन इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे और मैं इतिहास विभाग के शिक्षकों की जेनेरल बॉडी बैठक से निर्वाचित होकर सिलेबल रिविज़न कमिटी का सदस्य बना था. सिलेबस कमिटी की बैठक में मैं अकेला सदस्य था जिसने सबसे पहले तीन बिन्दुओं को उठाया--



1.दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म तथा संस्कृति पर अलग और स्वतंत्र रूप से पेपर पढाया जाये.

2..आधुनिक भारतीय इतिहास को १९४७ से आगे बढाकर १९७७ तक लाया जाना चाहिए क्योंकि आपातकाल भारत की महत्वपूर्ण घटना है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

3.सोसल फ़ोरमेसन का पेपर थर्ड ईयर से निकालकर फर्स्ट ईयर में लगाया जाये. 

तीसरे मुद्दे को पहले भी कई जेनेरल बॉडी मीटिंग में मैं उठा चुका था, जहाँ मेरी बात अनसुनी कर दी गयी थी. 

खैर अब जबकी मैं खुद ही इस समिति का सदस्य था, इतनी अस्सानी से मेरी बात अनसुनी नहीं की जा सकती थी, हालाँकि कुछ प्रारंभिक विरोध जरूर हुआ था. देशबंधु कालेज के शैलेन्द्र मोहन झा भी उस समिति के सदस्य थे, जिसमे यह पूरी बहस चली थी. अंततः बनकट साहब को भी मेरी बात सही लगी और तीनों मुद्दों पर सहमति बन गयी. यह अलग बात है की जब इन पर्चों के अन्दर विषय-वास्तु के निर्धारण हेतु उप-समिति गठित करने की बैठक हुयी तो मुझे इसकी सूचना नहीं मिली. मैं नहीं जनता हूँ की ऐसा जानबूझकर किया गया या ऐसा होना एक संयोग था, पर मैंने इसे मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि मेरा असली उद्येश्य पूरा हो चुका था--मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे स्वीकृत हो चुके थे.



निर्धारित प्रक्रिया के तहत बी.ए. प्रोग्राम के प्रथम वर्ष में पहले मुद्दे को जगह दी गयी, आनर्स के सिलेबस में तृतीय वर्ष में दूसरे मुद्दे को जगह दी गयी और आनर्स के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में तीसरे मुद्दे को जगह दी गयी.



मुझे मालूम है की इस मंच पर ऐसे लोग भी लगातार गैर जरूरी और निजी विद्वेष से ग्रसित होकर लिखने वाले लोग भी हैं, अतः सबसे विनम्र निवेदन है की मेरी बातों का सत्यापन तत्कालीन अध्यक्ष वेंकट साहब से कर लें तभी किसी के द्वारा प्रितिकूल टिप्पणी और विष-वमन पर ध्यान दें क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ सैडिस्ट होते हैं और किसी के रचनात्मक कार्य से इन्हें चिढ होती है क्योंकि इन्होने जीवनैसे ही नौकरी करते हुए गुजारी होती है. 



खैर, फिर जब २००६ से बी.ए. आनर्स के द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मौजूदा पर्चा आया तो मुझे बेहद हार्दिक प्रसन्नता हुयी क्योंकि मुझे विश्वास हो गया की अब भारत का इतिहास सिर्फ आर्थिक-सामजिक न रहकर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी पढाया जायेगा, इस विश्वविद्यालय में भी. मैं तब से इस परचे को पढ़ा रहा हूँ. मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं है की इस परचे को पढ़ते समय अगर कही असहजता होती है तो नाट्यशास्त्र में वर्णित नायिका के गुणों और श्रृंगारिक भंगिमाओं के वर्णन में न की रामायण को पढ़ने में. इसीलिए जब २००८ में तत्कालीन अध्यक्ष जाफरी साहब के साथ कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया था तो मैंने उसका जमकर विरोध किया था, विद्वत परिषद् के अन्दर और बाहर--दोनों जगहों पर.



जब तत्कालीन कुलपति पेंटल साहब का सर कलम कर देने का किसी ने फतवा जारी किया था तब भी मैंने ऐसा ही विरोध किया था और फरवरी २००८ में विश्वविद्यालय में एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन संस्कृति के सवाल पर कराया था. सनद रहे की इस सेमीनार में ही पहली बार इस विवाद पर चुप्पी तोड़ते हुए कुलपति साहब ने अपना वक्तव्य दिया था. किसी सज्जन की इच्छा हो तो इस सेमीनार की वीडियो मुझसे लेकर देखा सकता है. इस सेमिनार में वेंकट साहेब, भैरवी साहू जी, जाफरी साहेब, ठाकरान साहेब, जे.एन. यूं. से आनद कुमार, जामिया से रिजवान कैसर समेत अन्य कई चर्चित इतिहासकारों तथा समाज शास्त्रियों ने हिस्सा लिया था और इस उबलते सवाल के शांतिपूर्ण शमन का वातावरण बना था.



इस पूरे वृतांत का मेरा आशय यह है की मैं यह पहले बता दूं की इस प्रकरण से मैं किस हद तक जुदा हुआ हूँ--गोया मैं स्वयं इसका एक पात्र हूँ. इसीलिए अब तक मैं इस पर चुप रहा हूँ की कहाँ खो गया मेरा वह प्रयास जिसके तहत संस्कृति का सवाल इस विश्वविद्यालय में भी महत्वपूर्ण सवाल बना था. क्या इस पूरे शोरगुल में कही भी इसकी जायज चिंता किसी भी पक्ष द्वारा दिखाई जा रही है

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है

मैं चुप हूँ क्योंकि चुप रहना ही ठीक है. बात न सिर्फ रामानुजन की है नहीं राम कथा की. बात इतिहास की व्याख्या पर वर्चस्व की है. हम क्रन्तिकारी और तुम प्रतिक्रांतिकारी बनाम हम सच्चे भारतीय और तुम नकली भारतीय के उद्घोषकों के बीच चल रहे इस उठापटक में न तो कोई तीसरी आवाज़ है और न ही कोई उस आवाज़ का संज्ञान लेने वाला. सच तो यह है की इतिहास आज दो विचारधारों के द्वंद्व में लहुलुहान हो रहा है. तटस्थ होकर इति...हास की मीमांशा करने के दिन लड़ गए से लगते हैं. पर जो अपने सच से आँखें नहीं मिला सकता वह किसी भी चुनौती का सामना नहीं कर सकता, चाहे चुनौती भ्रष्टाचार की हो या नक्सली हिंसा की या फिर साम्प्रदायिकता की ही क्यों न हो? इतिहासकारों को इस तस्वीर में लिखी इबारत पढ़नी ही होगी. संस्कृति के सवाल को बहुत सनसनीखेज बनाकर दोनों खेमों के पहलवान सिर्फ संस्कृति हो ही आहत कर रहे हैं.




मैं व्यक्तिगत रूप से इसलिए भी दुखी हूँ क्योंकि दिल्लीविश्वविद्यालय में जब धर्म और संस्कृति के विषय इतिहास में निषिद्ध थे तब भी मैं उन चाँद लोगों में से था जो इस विषय पर खुलकर बात करने की सार्वजनिक वकालत करता था. इसकी अंतिम और सुखद परिणति तब हुयी प्रोफ़ेसर टी. के. वेंकट सुब्रमनियन इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे और मैं इतिहास विभाग के शिक्षकों की जेनेरल बॉडी बैठक से निर्वाचित होकर सिलेबल रिविज़न कमिटी का सदस्य बना था. सिलेबस कमिटी की बैठक में मैं अकेला सदस्य था जिसने सबसे पहले तीन बिन्दुओं को उठाया--



1.दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास के पाठ्यक्रम में धर्म तथा संस्कृति पर अलग और स्वतंत्र रूप से पेपर पढाया जाये.

2..आधुनिक भारतीय इतिहास को १९४७ से आगे बढाकर १९७७ तक लाया जाना चाहिए क्योंकि आपातकाल भारत की महत्वपूर्ण घटना है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है.

3.सोसल फ़ोरमेसन का पेपर थर्ड ईयर से निकालकर फर्स्ट ईयर में लगाया जाये.

तीसरे मुद्दे को पहले भी कई जेनेरल बॉडी मीटिंग में मैं उठा चुका था, जहाँ मेरी बात अनसुनी कर दी गयी थी.

खैर अब जबकी मैं खुद ही इस समिति का सदस्य था, इतनी अस्सानी से मेरी बात अनसुनी नहीं की जा सकती थी, हालाँकि कुछ प्रारंभिक विरोध जरूर हुआ था. देशबंधु कालेज के शैलेन्द्र मोहन झा भी उस समिति के सदस्य थे, जिसमे यह पूरी बहस चली थी. अंततः बनकट साहब को भी मेरी बात सही लगी और तीनों मुद्दों पर सहमति बन गयी. यह अलग बात है की जब इन पर्चों के अन्दर विषय-वास्तु के निर्धारण हेतु उप-समिति गठित करने की बैठक हुयी तो मुझे इसकी सूचना नहीं मिली. मैं नहीं जनता हूँ की ऐसा जानबूझकर किया गया या ऐसा होना एक संयोग था, पर मैंने इसे मुद्दा नहीं बनाया क्योंकि मेरा असली उद्येश्य पूरा हो चुका था--मेरे द्वारा उठाये गए मुद्दे स्वीकृत हो चुके थे.



निर्धारित प्रक्रिया के तहत बी.ए. प्रोग्राम के प्रथम वर्ष में पहले मुद्दे को जगह दी गयी, आनर्स के सिलेबस में तृतीय वर्ष में दूसरे मुद्दे को जगह दी गयी और आनर्स के प्रथम वर्ष के पाठ्यक्रम में तीसरे मुद्दे को जगह दी गयी.



मुझे मालूम है की इस मंच पर ऐसे लोग भी लगातार गैर जरूरी और निजी विद्वेष से ग्रसित होकर लिखने वाले लोग भी हैं, अतः सबसे विनम्र निवेदन है की मेरी बातों का सत्यापन तत्कालीन अध्यक्ष वेंकट साहब से कर लें तभी किसी के द्वारा प्रितिकूल टिप्पणी और विष-वमन पर ध्यान दें क्योंकि ऐसे लोग सिर्फ सैडिस्ट होते हैं और किसी के रचनात्मक कार्य से इन्हें चिढ होती है क्योंकि इन्होने जीवनैसे ही नौकरी करते हुए गुजारी होती है.



खैर, फिर जब २००६ से बी.ए. आनर्स के द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों को पढ़ने के लिए मौजूदा पर्चा आया तो मुझे बेहद हार्दिक प्रसन्नता हुयी क्योंकि मुझे विश्वास हो गया की अब भारत का इतिहास सिर्फ आर्थिक-सामजिक न रहकर धार्मिक-सांस्कृतिक दृष्टि से भी पढाया जायेगा, इस विश्वविद्यालय में भी. मैं तब से इस परचे को पढ़ा रहा हूँ. मुझे कहने में कोई आपत्ति नहीं है की इस परचे को पढ़ते समय अगर कही असहजता होती है तो नाट्यशास्त्र में वर्णित नायिका के गुणों और श्रृंगारिक भंगिमाओं के वर्णन में न की रामायण को पढ़ने में. इसीलिए जब २००८ में तत्कालीन अध्यक्ष जाफरी साहब के साथ कुछ लोगों ने दुर्व्यवहार किया था तो मैंने उसका जमकर विरोध किया था, विद्वत परिषद् के अन्दर और बाहर--दोनों जगहों पर.



जब तत्कालीन कुलपति पेंटल साहब का सर कलम कर देने का किसी ने फतवा जारी किया था तब भी मैंने ऐसा ही विरोध किया था और फरवरी २००८ में विश्वविद्यालय में एक तीन दिवसीय राष्ट्रीय सेमीनार का आयोजन संस्कृति के सवाल पर कराया था. सनद रहे की इस सेमीनार में ही पहली बार इस विवाद पर चुप्पी तोड़ते हुए कुलपति साहब ने अपना वक्तव्य दिया था. किसी सज्जन की इच्छा हो तो इस सेमीनार की वीडियो मुझसे लेकर देखा सकता है. इस सेमिनार में वेंकट साहेब, भैरवी साहू जी, जाफरी साहेब, ठाकरान साहेब, जे.एन. यूं. से आनद कुमार, जामिया से रिजवान कैसर समेत अन्य कई चर्चित इतिहासकारों तथा समाज शास्त्रियों ने हिस्सा लिया था और इस उबलते सवाल के शांतिपूर्ण शमन का वातावरण बना था.



इस पूरे वृतांत का मेरा आशय यह है की मैं यह पहले बता दूं की इस प्रकरण से मैं किस हद तक जुदा हुआ हूँ--गोया मैं स्वयं इसका एक पात्र हूँ. इसीलिए अब तक मैं इस पर चुप रहा हूँ की कहाँ खो गया मेरा वह प्रयास जिसके तहत संस्कृति का सवाल इस विश्वविद्यालय में भी महत्वपूर्ण सवाल बना था. क्या इस पूरे शोरगुल में कही भी इसकी जायज चिंता किसी भी पक्ष द्वारा दिखाई जा रही है?

रविवार, 28 अगस्त 2011

पूरा देश अत्मविश्वास से लबरेज है---वो सुबह कभी तो आयेगी

अब अण्णा का अनशन समाप्त हुआ. अण्णा के शब्दों मे स्थगित हुआ है, समाप्त नहीं. बहुत कुछ देखा-सुना-समझा, पूरे दौर में. रोज रामलीला मैदान गया. डूटा के चुनाव के दिन भी गया अपनी इसी समझ को बढाने हेतु. लिखा भी. लगतार लिखा, कुछ छपा, बहुत नहीं छपा. हां वेब साईट पर जरूर पोस्ट करता रहा. अनुभव की दुनिया जरूर स्मृद्ध हुयी. अगर हमें नया संसार बनाना है तो बहुत कुछ करना होगा. नये भारत के निर्माण के लिये अभी बहुत कुछ योगदान करना होगा. सवाधीनता अन्दोलन के इस चौथे दौर मे हमें कयी असहज सवाल भी पू्छने होंगे, अपने आप से भी और वेसे तमाम लोगों से, जो नया समाज बनाने की प्रक्रिया मे लगे हुए हैं--अरसे से. कयी नवीन मानदंड गढने होंगे, कयी पुरातन मूल्यों को भी अपनाना होगा. ताकत परम्परा से लेनी होगी, समझ नयी बनानी होगी. मौजूदा अन्दोलन की कमजोरियों से भी सबक लेना होगा और इसकी शक्ति से अपना खोया अत्मविश्वास हसिल करना होगा. पूरा देश अत्मविश्वास से लबरेज है---वो सुबह कभी तो आयेगी.

सोमवार, 22 अगस्त 2011

सिर्फ जन-लोकपल--उससे ज्यादा अभी नहीं, उससे कम कभी नहीं


अमरनाथ झा
असोसिएट प्रोफ़ेसर, स्वामी श्रद्धानंद कालेज, दिल्ली विश्वविद्यलय
स्वाधीनता दिवस तो हर साल मनाया जाता है, पर इस वर्ष का स्वाधीनता दिवस एक ऐसे क्रांतिकारी उभार के साथ आया जिसने देश को एक महत्वपूर्ण मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है. इस १५ अगस्त को देश की आन-बान-शान पर मर मिटने वाले अमर बलिदानियों की याद ने पिछले कुछ महीनो से भ्रष्टाचार के विरोध में उभर रही जन भावनाओं को राष्ट्रवादी रंग में रंग दिया. और जब अन्ना को १६ अगस्त से उनके घोषित अनशन और आन्दोलन को रोकने के लए गिरफ्तार कर लिया गया तो पूरे देश में आन्दोलनकारी भावनाएं चरम पर पहुँच गयी और आज अन्ना सही अर्थों में जन-नायक हो गए. पूरी ना सही, अधूरी ही सही, पर मिली तो थी आज़ादी ही १५ अगस्त १९४७ को. वर्षों की तपस्या, हजारों के बलिदान, और लाखों की कुर्बानियों के बाद सदियों की गुलमी से मुक्ति के इस पवित्र दिवस को लोग अपने अपने स्तर पर अमर स्वाधीनता सेनानियों को नमन करते हुए मना रहे थे. यह ठीक है कि देश में सबकुछ ठीक नहीं है और हमें अभी बहुत लम्बा संघर्ष करना है--सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिये. गांधी के सपनों को साकार करने के लिये और वास्तव में लोक-राज कयम करने के लिये हमें कई अन्ना पैदा करना होगा और कई बार लडाईयां लडनी होगी, बार-बार कुर्बानियां देनी होंगी, लेकिन इससे इस पावन दिवस का महत्व कम नहीं हो जाता है. सच तो यह है कि पूरे देश वासियों को यह दिवस अपने शहीदों को नमन करने और उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हुए भरत-भूमि के आन-बान-शान की रक्षा के लिये कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देता है. अतः १५ अगस्त के इस पवन पर्व पर सबको गदगद मन और भाव-विह्वल हृदय से याद करते हुए इस बार लोग अन्ना के आह्वान पर उनके पीछे खड़ा होने का मन बना चुके थे. ठीक इसी घड़ी में सरकार ने दमनकारी कदम उठाकर देशभर को मानो झकझोर दिया और पूरा देश अन्नामय हो गया.
जिस तरह की अद्भुत और अपार ऊर्जा आज अनुशासित, संयमित और समर्पित होकर समाज और देश के लिए कुछ कर गुजरना चाहती है उसे स्वाधीनता आन्दोलन का विस्तार ही मानना चाहिए. उस महान भारतीय स्वाधीनता संग्राम क विस्तार जिसकी लौ औपनिवेशिक गुलामी की प्रक्रिया के तुरंत बाद ही शुरू हो गयी थी. देश के अजाने पर आज के झारखण्ड के संताल परगना परगना के पहाड़िया विद्रोह से ने पलासी की परजय के कुछ ही दिनों के बाद ईस्ट इन्डिया कंपनी के शासन को चुनौति दे डाली. इस बात को मैं ऐसे ही नहीं लिख रहा हूँ, वल्कि विद्रोहियों को पकड़कर उनपर चलाये गए मुकदमे के दौरान उनके दर्ज किये गए बयानों के पुख्ता प्रमाणों के आधार पर कह रहा हूं जिसे हम सब को पढ़ना चाहिए. गिरफ़्तार पहडिया विद्रोहियों ने मजिस्ट्रेट से पूछे गए प्रश्न के जबाब में कहा था कि तुम हमारे अपने देस ले लोग नहीं हो इसलिए हम तुम्हारी अधीनता नहीं मानते हैं. कितनी स्पष्ट सोच और प्रतिक्रिया थी उनकी जिनके बारे में बड़े-बड़े इतिहासकारों ने लिखने में पूरी कंजूसी की है. १७७२-१७८० से शरू हुए इस पहाड़िया विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम का बिगुल हम मानते है, जो आगे चलते हुए, उस इलाके के सन्यासी विद्रोह और संताल विद्रोह से गुजरते हुए १८५७ के महान प्रथम स्वाधीनता संग्राम तक पहुंचा था. याद रहे कि संताल परगना का राजमहल कुछ ही सालों पहले तक आज के बिहार,बंगाल,बंगला देश, ओड़िसा और झारखंड के सम्मिलित बहुत बड़े क्षेत्र की राजधानी थी, शायद इसलिए यहाँ के लोगों को पराधीनता का दर्द औरों से ज्यादा अखर रहा था. इसलिये पराभव और परतन्त्रता के साथ-साथ यहां बलिदान और विद्रोह की गाथा भी शुरु हो जाती है. १८५७ का महान विद्रोह प्रथम स्वाधीनता संग्राम ही था जिसको समझने में इतिहासकारों ने भारी भूल की है. जो भी हो स्वाधीनता की आकांक्षा के लेकर शुरू हुए इस महान आन्दोलन ने राजनितिक विफलता के वावजूद हमारे सामूहिक मानस-पटल पर चिरंतन छाप छोड़ दी. लोकोक्तियाँ, जनश्रुतियाँ, लोकगीत और न जाने कितनी साहित्यिक रचनाओं का अम्बार इस महान क्रांति की गौरव गाथा के रूप में भरा पड़ा है. निःसंदेह यह प्रथम स्वाधीनता संग्राम ही था.
जैसा कि अक्सर होता है विफलता के बाद फिर लोग अपनी ताकत को पुनः एकत्रित करके और अधिक जोशीले अंदाज से दमन का प्रतिरोध तथा संघर्ष करते हैं. महान शूरमाओं और बलिदानियों कि इस धरती पर फिर से स्वाधीनता आन्दोलन का शंखनाद १९०५ के बंग भंग से उत्पन्न वतावरण में ही हो गया, जिसकी अंतिम चरम परिणति १९४२ की महान भारत-छोडो अगस्त क्रांति के रूप में हुयी.गांधी के करो या मरो के मंत्र की आग ने बरतानिया साम्राज्यवाद को भारत से बोरिया-बिस्तरा समेटने पर विवश कर दिया. हाँ उस समय भी कुछ तथाकथित विध्नसंतोषी समूह, दल और बुद्धीजीवी थे, जो स्वाधीनता संघर्ष और पूर्ण स्वाधीनता पर मीन मेख निकालते रहते थे. कुछ समूह तो वैचारिक रूप से अलग-अलग हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खाद पानी भी दे रहे थे. नतीजा? साबरमती के संत फ़कीर के न चाहते हुए भी देश बंट गया और हमारे इतिहास की ही नहीं वल्कि मनव जाति के इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना हो गयी. देश आजाद हुआ पर यह आजादी खंडित आज़ादी थी. इस खंडित आज़ादी के बाद एक तरफ जहां सच्चे स्वाधीनता सेनानी देश के निर्माण में जुट गए तो दूसरी तरफ सत्ता का स्वाद चखने और राज सुख भोगने के लिए देश में ही एक नयी सोच जन्म लेने लगी. स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास को पढ़ते समय यह तस्वीर साफ हो जाती है कि किस तरह इतिहास में नाम दर्ज करने में भी चमचागिरी का बोलबाला रहा और हजारों वीरों की वीरता तथा सिपाहियों का त्याग अनदेखा तथाकथित महान इतिहासकारों द्वारा अनदेखा कर दिया गया. फिर भी स्वाधीनता संग्राम की महान विरासत लोगों को नये युग के निर्माण की प्रेरणा दे रही थी. इसी मायने में १९४७ के इस पड़ाव को हम महान स्वाधीनता संघर्ष का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव मानते हैं क्योंकि औपनिवेशिक शासन के दौर में जो हमारा चारित्रिक पतन शुरू हुआ था उसको अब चरित्र निर्माण की दिशा में मोड़े जाने का अवसर मिला था. क्या यह इबारत आप पढ़ नहीं पाते हैं जब आप गांधी को नयी दिल्ली में स्वाधीनता का जश्न मनाते हुए नहीं बल्कि कोलकाता की गलियों में साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस रहे लोगों में संवेदना और सेवा का पाठ पढाते हुए देखते हैं?
१९४७ से आज तक देश आगे भी बढ़ा और पीछे भी हटा. एक ही देश में दो लोक बन गया. इंडिया और भारत--दो अलग लोकों का निर्माण हो गया. एक तरफ गगन चुम्बी इमारतों और सुख-सुविधापूर्ण भोग और विलासिता में आकंठ डूबा इंडिया और दूसरी तरफ पेट की भूख से बिलबिलाता-मरता, अधनंगा, जाति और धर्म के नाम पर मरता-मरता भारत. चौंकिए मत--इंडिया बनाने वाली फिरका- परस्त ताकतों ने धर्म और जाति के नाम पर जो गुंडागर्दी और लूट खसोट मचाई उसकी बानगी अब तो पूरा देश ही नहीं पूरी दुनिया भी देख रही है. समाज और देश को तोडने वाली इस तरह की बातों को चुनौती देने हेतु तब आगे आये लोकनायक जय प्रकाश नारायण. १९७४ में ही उन्होने भारत की युवा शक्ति की ऊर्जा को समेटकर अधिनायकवाद को खुली चुनौती दी और तानाशाही को १९७७ में ध्वस्त किया. महान भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इस तीसरे दौर ने भारत को एक बार फिर बचा लिया. सारा देश आज भी अपनी आजादी की रक्षा के लिए जे. पी. का मुरीद है.
लेकिन यह क्या? जिनपर देश ने भरोसा किया उन्होंने ही एक बार फिर हमें कुचलने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी? संपूर्ण क्रांति के नारों से निकले महास्वार्थी तत्वों ने पूरे देश को हर तरह के अनाचार, लूट-खसोट और बेशर्म सांप्रदायिक और जातीय आग में झौंक दिया. भ्रष्टाचार मानो उनका जन्मसिद्ध अधिकार हो गया. जो जितना बड़ा भ्रष्टाचारी वह उतना बड़ा नेता बन गया. इंडिया के ये ठेकेदार भारत को, भारत की अस्मिता को रौंदते रहे और हमें व्यवस्था-परिवर्तन का पाठ पढ़ाते रहे. इस नए भ्रष्टाचारियों की जमात में बड़ी आसानी से पहले से भ्रष्टाचार की मैली गंगा में तैर रहे इण्डिया के लोगों ने अपनी भी जगह बना ली. बल्कि दिल खोलकर उन्होंने नये भ्रष्टाचारियों का स्वागत करके अपना हम-जोली बना लिया क्योंकि अब उन्हें कौन चुनौती देता? यहाँ आकर जाति, धर्मं, लिंग, वर्ग, क्षेत्र तथा भाषा का भेद मिट गया क्योंकि सब भ्रष्टाचार के स्वर्ग का सुख भोगने लगे, बिना किसी डर के. अगर किसी ने उनकी कारगुजारियों के खिलाफ बोलने के हिम्मत दिखाई तो उन्हें रस्ते से ही हटा दिया गया. जातिवादी , सांप्रदायिक , और शोषक वर्ग का ख़िताब दिया गया. अगर तब भी कोई सिरफिरा नहीं रुका तो बड़े आराम से ठिकाने लगा दिया गया. हाँ कुछ को खरीदा भी गया ताकि क्रांति करने की विश्वसनीयता ही नहीं बचे किसी में. विश्वसनीयता के इस संकट के दौर में सबको बताया गया की यह तो होगा ही. ऐसा जो कर सकता है वही देश की बागडोर संभल सकता है. राजनीति और भ्रष्टाचार एक दूसरे का पर्याय हो गया. बड़े बेशर्म पर बुलंद आवाज में कहा जाने लगा कि अरे तुम क्या राजनीति करोगे? तुम्हारे पास न तो लूट का धन है और न ही लूट करने का माद्दा. तुम में न तो बाहुबल है और न ही किसी को मारने की ताकत. याद कीजिये पिछले कुछ ही सालों का परिदृश्य. हत्या, डकैती, बलात्कार, फिरौती, अगवा, ठेकेदारी और घुसखोरी के विषैले वातावरण में कोई भी साफ सुथरा व्यक्ति देश और समाज के लिये क्या कुछ भी सोच पाता था? बस बेबसी और चारों ओर बेबसी का आलम पसरा हुआ था अभी.
ऐसे ही परिदृश्य में अन्ना का उदय क्या किसी दैवयोग से कम है? क्या अन्ना के पीछे गोलबंद स्वतः स्फूर्त ऊर्जा की अनदेखी हम कर सकते हैं? कुछ सिरफिरे और स्वार्थी लोग, जो किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी-सत्ता की जूठन चाटने का सुख भोग रहे हैं, अन्ना के आन्दोलन से बेहद डरे हुए हैं. इन डरपोकों में सिर्फ़ राजनीति में ही नहीं वल्कि टी.वी. और अखबारों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज करने को बेताब तथाकथित चिन्तक लेखक भी है जो यह भी नहीं जानते की सभ्य भाषा किसे कहते हैं? कोई अन्ना को फासीवादी कहता है तो कोई उन्हें गुंडा कह कर अपना छुटपन दिखा रहा है. लेकिन इससे क्या? सुकरात को जहर पीना पड़ा था. मीरा को भी जहर पीना पड़ा था. प्रह्लाद को आग की दरिया में बैठना पड़ा था. गाँधी को गोली खानी पडी थी. जयप्रकाश को बर्फ की सिल्लियों पर सोना पड़ा था. खुदीराम बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, सुभास चन्द्र बोस, ने अपनी जाति देखकर सर्वोच्च त्याग और बलिदान की इबारत लिखते हुए क्रांति में हिस्सेदारी नहीं निभाई थी. इन महापुरुषों की महागाथा को कोई रावण या कंस की सोच वाला छद्म बुद्धिजीवी ही अनदेखा कर सकता है. कृष्ण ने अपनी जाति देखकर पांचजन्य नहीं बजाय था और न ही लोगों ने उनकी जाति पूछकर उन्हें भगवान माना था. आपमें से कौन-कौन अन्ना की जाति जानते हो? पता करना. यह भी पता करना कि अन्ना के अन्दोलन में किस जाति के लोग भाग ले रहे हैं. जब पता चल जाए तब फिर और नीचे गिरकर अन्ना के खिलाफ़ नए-नए तर्क गढ़ने की कोशिश करना. अरे कब तक ऐसा करते रहोगे? धर्म और अधर्म के इस युद्ध में विजय धर्म की ही होगी क्योंकि धर्म के साथ त्याग , बलिदान और संघर्ष की विरासत है. कौन सिखाये इन्हें? ये सब कुछ जानते हैं. पर इनका निहित स्वार्थ इन्हें अनाप-सनाप बकने और समाज को बाटने के लिए उकसाता रहता है. परन्तु धीरज रखना साथियों. अन्ना अब वही कर रहा है जो जे. पी. ने किया था, गांधी ने किया था और तात्या टोपे ने किया था. संयम और धीरज से काम लेना. पूरा देश तुम्हारे साथ है. नितीश ने जयप्रकाश की धरोहर बचाने की कोशिश की. चंद्रबाबू नायडू देश और समाज को समझ रहे है--लोगों का साथ दे रहे हैं. अन्ना के झंडे के नीचे सभी परिवर्तनकारी शक्तियां आ रही हैं. परिवर्तन के नाम पर छलावा करने वाली ताकतों से एक बार फिर लोहा लेने हेतु देश उठ खड़ा हुआ है--अन्ना की पुकार पर.
आजादी के इस चौथे दौर में भी बहुत कुछ होगा. महाभारत होता है तो निष्ठाएं भी बदलती हैं. बहुत लोग इधर-उधर होंगे. पर जो भी होगा वह शुभ ही होगा. भ्रष्टाचार के विरूद्ध शुरू हो चुके इस विप्लव को अब कोई नहीं रोक सकेगा. बहुत दूर तक जायेगा यह. सत्ता समीकरण बदलेगा. सत्ता बदलेगी और फिर एक बार होगा लोगों के साथ चलवा करने वालों का कुत्सित षड़यंत्र. बल्कि शुरू हो चुका है यह. देख रहा है देश कि किस तरह आकंठ घोटालों में डूबे व्यक्ति लोक-सभा में गरज रहे हैं अन्ना पर. किस तरह अन्ना के आन्दोलन में कूदने की खुली घोषणा के वाबजूद भाजपा द्वारा लोकसभा और राज्य सभा में अन्ना के जन-हित लोकपाल बिल को खामियों से परिपूर्ण बताया जाता है. सुषमा स्वराज ऑन रिकॉर्ड कहती हैं कि अन्ना द्वारा प्रधान्मंत्री को लिखे गये के पत्र की भाषा अशोभनीय थी. वाह. यही तो असली चेहरा है राजनीति का. लालू और सुषमा महज दो अलग-अलग नाम हैं. वस्तव में परन्तु दोनों और अन्य कई तथाकथित नेता, राजनीति के कुत्सित चहरे के ही प्रतिनिधि हैं.
लोगों को याद दिलाना जरूरी है कि जब भारत छोड़ो क्रांति की सफलता के बाद बरतानिया साम्राज्य ने यहाँ से अपना बोरिया-बिस्तर समेटने की शुरुआत कर दी और कैबिनेट मिशन भारत आया तो भारतीय जनता के नैतिक प्रतिनिधि की हैसियत से ही स्वाधीनता संग्राम के नेताओं ने उनसे विमर्श किया और संविधान सभा का गठन १९४६ में हुआ. १९४६ में इंग्लॅण्ड से भारत आये कैबिनेट मिशन के प्रतिनिधियों के साथ भारतीय नेताओं की वार्ता का ही परिणाम था संविधान सभा का गठन. ९ दिसंबर , १९४६ को इस संविधान सभा की पहली बैठक नयी दिल्ली में हुई थी. ९ महिलाओं समेत २०७ प्रतिनिधियों ने इस पहली बैठक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य जे.बी.कृपलानी, डॉ.राजेंद्र प्रसाद, श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्री हरे कृष्ण महताब, पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त, डॉ. भीम राव अम्बेडकर, श्री शरत चन्द्र बोस, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, श्री एम. अशरफ अली जैसे महानुभाव इस सभा में विराजमान थे. श्री सच्चिदानंद सिन्हा ने बैठक की अध्यक्षता की थी. १४ अगस्त १९४७ की शाम से इस संविधान सभा ने स्वतन्त्र भारत की विधायिका का रूप ग्रहण कर लिया. इसी संविधान सभा ने २ वर्ष,११ महीने,तथा सैट दिनों की अवधि में कुल १६५ दिनों में संपन्न अपनी बैठकों के बाद संविधान का निर्माण किया. २९ अगस्त १९४७ को इसी सभा ने डॉ.भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में ड्राफ्ट-समिति का निर्माण किया. २६ जनवरी १९५० को तमाम संशोधनों के बाद इस सभा द्वारा निर्मित संविधान को अंगीकार किया गया. इसी संविधान सभा के उदार संविधान की बात हम भी कर रहे हैं जो अपने नागरिकों को लिंग, जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के भेदभाव के बिना गरिमापूर्ण जीवन निर्वाह की कामना ही नहीं करता वल्कि उसका अधिकार भी देता है. आज जब संविधान के मूल प्रावधानों को भ्रष्टाचार के सर्वव्यापी तन्त्र द्वारा तार-तार किया जा चुका है हमें इसकी रक्षा करनी होगी. लोकसभा सर्विच्च है, परन्तु उससे भी ऊपर है संविधान, जिसने लोकसभा का निर्माण किया है.. संविधान सभा की बहसों से हम संविधान के प्रावधानों की रक्षा हेतु तर्क और दृष्टि दोनों ले सकते हैं. हम, भरत के हमलोग, वी द पीपल आफ़ इंडिया, ही अपने भग्य के विधाता हैं ---इसमें किसी को संदेह नहीं होना चाहिये. उस समय तक इंडिया और भरत अलग नहीं हुए थे. संविधान भी भारत की जनता की तरफ़ से ही बनाया गया है और इसमें संशोधन भी भारत की जनता के नाम पर ही किया जाता रहा है. अतः जनता की सर्वोच्चता स्थापित करने के इस मुहिम में हम सब अपनी भूमिका खुद ही निरूपित करें. आप तमाम लोग सुन रहे हैं न अन्ना की अवाज़ में लोक की आवाज़?
अब हम सबको, जो किसी भी विचारधारा के हैं, किसी भी दल के हैं, किसी भी उम्र के हैं, अगर खुद को भ्रष्टाचार के विरोध का हिस्सेदार बनाना चहते हैं तो, इस अन्दोलन को उस दिशा मे ले जाना चाहिये जहां इसकी तार्किक परिणति है--सम्पूर्ण बदलाव की ओरे, सम्पूर्ण क्रान्ति की ओर.
इस चतुर्थ स्वाधीनता संग्राम में हमें इतिहास से सबक लेकर आगे बडना चहिये.अब वैसे तमाम लोगों को जो व्यव्स्था परिवर्तन की प्रक्रिया के सह्भागी रहे हैं, तेजी से बदलती जा रही परिस्थिति मे कहीं बैठकर एक मुकम्मल साझी रणनीति का ब्लूप्रिंट तैयार कर लेना चाहिये. किसी भी दल विशेष को इस अन्दोलन को हाईजैक नहीं करने देना चाहिये क्योंकि किसी भी दल ने भ्रष्टाचार का मुखर विरोध नहीं किया है. इस अवसर का फ़ायदा अपने चुनावी हित में करने की मंशा भाजपा की भी साफ-साफ दिख रही है. अतः भाजपा और कांग्रेस के भी ईमानदार लोगों को साथ में लेते हुए, वामपंथियों, समाजवादियों के निष्कलुष लोगों को मिलाते हुए, जनान्दोलनकारियों को जोडते हुए, भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस जंग को अंतिम परिणति तक ले जाना चाहिये. हां अभी तुरंत ही इसके साथ अन्य मुद्दों को जोडने का उतावलापन दिखाने की कोई जरूरत नहीं है. इससे अन्दोलन के प्रति नासमझी पैदा होने और लोगों का विश्वास टूटने का खतरा है. याद रखिये गांधी ने १९१७ से १९४२ तक का सफ़र तय किया था, करो या मरो का मंत्र देने के पहले. ठीक उसी प्रकार बाद में, अवाम को भरोसे में लेते हुए, इस अज़ादी के चौथे अनदोलन को बडाना चाहिये.
राजनैतिक परिदृश्य में तेजी से बदलाव आ रहा है. अन्ना के १६ अगस्त से चल रहे अनशन ने खलबली मचा दी है. अन्ना हजारे अब देश की आवाज हैं. एक तरफ पूरे देशों से भी अन्ना के समर्थन की खबरें आ रहीं हैं, तो दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी और सरकार अन्ना पर आरोप लगगाती रही है, ताकि वे दिस्क्रेडित किये जा सकें. लगता है सरकार अपना संतुलन खो चुकी है. भारतीय जनता पार्टी इस बदले माहौल का पूरा फायदा उठाना चाह रही है क्योकि अन्ना के आन्दोलन ने पूरे देश में सरकार की नीतियों के खिलाफ व्यापक वातावरण बना दिया है. अभी बहुत सावधान रहना है-- सभी तरह की फिरकापरस्त ताकतें भी अब आन्दोलन में शामिल होकर इसके उद्देश्य को भटकाने की कोशिश कर रही हैं. टी. वी. चैनलों पर चल रहे डिबेट गवाह हैं. हम सब, जो देश में व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखते है, इस मुहीम के स्वाभाविक साथी है --- हमें अपने साथ पूरे देश के लोगों को जोड़ने का अवसर मिला है , इस अवसर को चुकना नहीं चाहिए जैसा की अन्ना का भी मानना है.
अब धीरे-धीरे सुर बदल रहा है. भ्रष्टाचार के आरोपों को झेल रही दिल्ली की मुख्यमंत्री के बेटे और सांसद संदीप दीक्षित ने अन्ना की गिरफ़्तारी को तो गलत कहा ही, यह भी कहा कि अन्ना ही कोई रास्ता निकालें. दूसरी तरफ एन डी टी वी के लोग कह रहे थे कि लोगों को अब मान लेना चाहिए कि अन्ना के साथ वास्तव में आम लोग हैं, जबकि इसी चेनल पर ही रात की प्राइम टाइम की बहेसों में लोग अन्ना के जन लोक पल की चर्चा न करके सिर्फ जनतांत्रिक अधिकारों के हनन की ही बात कर रहे थे और जनतांत्रिक अधिकारों के हनन के विरोध में ही स्वर उठा रहे थे. अन्ना का वास्तविक मुद्दा बहस में होता ही नहीं था. भाजपा के प्रवक्ता जोर देकर कह रहे थे कि वे जनतांत्रिक अधिकारों के हनन के विरोध में अन्ना को समर्थन दे रहे है जबकि उनका जन लोक पाल विधेयक बहुत सारी कमियों को समेटे हुए है. क्या कहेंगे आप इसे?
संयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के चुनावी परिदृश्य में अन्ना कहीं नहीं हैं. जब मैंने १५ जुलाई को ही एक लेख लिखकर इस चुनावी अजेंडा में अन्ना द्वारा उठाये गए प्रश्न को रखने की कोशिश की थी तो उसपर गौर फरमाने की बजे कुछ शिक्षकों ने मुझपर व्यक्तिगत हमला बोलकर मुद्दे को भटकाने की पुरजोर कोशिश की. आज एक महीने बाद यह साफ हो गया कि उस समय जो मैं कह रहा था वह मूल प्रश्न तब भी था और आज भी है. खैर अब प्रधान मंत्री की नरमी को बदले हुए सुर की शुरुआत मानी जा सकती है.
अभी भी बहुत लोग जिन्हें मै व्यक्तिगत रूप से क्रन्तिकारी और इमानदार व्यक्ति के रूप में जानता हूँ. वे भी इसी बहस में उलझे हैं कि अन्ना के समर्थन में उमड़ा जन सैलाब मीडीया की ताकत का ही प्रदर्शन है. अन्ना इस भीड़ की ताकत के प्रदर्शन के बल पर संसदीय सर्वोच्चता को चुनौती दे रहे है. एक टी वी चेनल पर एक महिला अन्ना को फासिस्ट कह रही थी तो एक व्यक्ति फ़ेसबुक पर अन्ना को गुण्डा कह रहा था.
लेकिन तमाम लोगों से विनम्र आग्रह है की एक बार रामलीला मैदान जाकर देखें, लोगों का वर्ग चरित्र भी समझें और लोगों को सांप्रदायिकता के तराजू पर भी तौल लें. कुछ लोगों से बातचीत करें -- तभी पता चलेगा कि लोगों के आक्रोश को कितनी सशक्त अभिव्क्यक्ति दी है अन्ना ने. क्या आप विश्वास करेंगे कि रामलीला मैदान में आज मेरी मुलाकात और बातचीत दो ऐसी अन्ना समर्थक महिलाओं से हुई जो छुट्टी लेकर वहां आयी थी? अरे तनिक जानिए तो सही कि वे नौकरी कहाँ करती हैं? वे दिल्ली पुलिस में सिपाही हैं और पुलिसिया भ्रष्टाचार के विरोध में वहां आयी थी जो अन्ना के आन्दोलन को ही भ्रष्टाचार से मुक्ति का एकमात्र रास्ता मान रही थी.
लेकिन खतरा यहीं है. जब पूरे समाज के आँखें एक व्यक्ति पर केन्द्रित हो जाती है तो तमाम तरह के स्वार्थी तत्त्व भी घुसपैठ करने की कोशिश करते हैं. संदीप दीक्षित अब क्यों ऐसी भाषा बोल रहे हैं, हमें यह जरूर समझाना होगा. ऐसे तत्वों से भी सावधान रहना होगा जो भ्रष्टाचार के सतम्भ हैं पर भ्रष्टाचार की इस लड़ाई में घुसपैठ करने की जुगाड़ में हैं-- मैने वहां यह भी महसूस किया. लेकिन ऐसा नहीं कि इन निहित स्वार्थी तत्वों से निपटा नहीं जा सकता है.
एक बात और, अभी बहुत दिन नहीं हुए जब लालू यादव के तमाम भ्रष्टाचार के खबरों के आने के वावजूद लोग उनकी लाठी रैली में उमड़ पड़ते थे. यह वही जनता थी जो सबकुछ जानते हुए भी लालू यादव की जातिवादी राजनीति को समर्थन देकर उन्हें बिहार को बर्बाद करने देती रही. अतः जनता को भी जानना होगा कि भ्रष्ट लोगों को चुनाव में जिताने से भ्रष्टाचार बढेगा ही, घटेगा नहीं. जाति और धर्मं के नाम पर वोट डालना भी भ्रष्टाचार ही है. अतः अब पहले से अधिक मुखर होकर कहना चाहिए कि सिर्फ जन-लोकपाल विधेयक--उससे कम कुछ भी नहीं.
भ्रष्टाचार सर्वव्यापक है, असीम है, और यत्र-तत्र-सर्वत्र है. यह निराकार है. परंतु यह स्थूल भी है और साकार भी है. अतः इससे लडने के लिये हमेम भी कुछ साकार बिंबों की जरूरत है. जन लोकपाल एक साकार बिंब है. भ्रष्टाचार से लडने का एक मूर्त औजार.
लेकिन हमारी लडायी यहां खतम होने की बजाय यहां से शुरु होती है. पूरे देश के इस अभूतपूर्व जन सैलाब की तकत को बहुत दिनों तक सिर्फ़ प्रदर्शन में ही समेटकर नहीं रखा जा सकता है. इसलिये जरूरी है कि जन लोकपाल पर आसन्न जीत के बाद अन्दोलन को कुछ विराम दिया जाय. अगर अभी ही सारे मुद्दों को उठा लिया जाता है और उसमें त्वरित सफ़लता नहीं मिलती है तो लोगों का अन्दोलन के प्रति मोहभंग हो सकता है जो देश के लिये बहुत अशुभ होगा. अतः हमें लोगों की उम्मीद की उफ़ान को भी समझकर अपने को अभी कहीं तो रोकना ही होगा. इस अन्दोलन की सफ़लता के बाद कुछ दिन विराम लेकर, फिर पूरी तैयारी करके, हमे निर्वाचित जन-प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार हासिल करना होगा. इसी तरह से क्रमशः इसमें धीरे-धीरे अन्य मुद्दों को जोडना होगा.
हम इस सचाई से इन्कार नहीं कर सकते हैं कि इस अभूतपूर्व जन सैलाब के वाबजूद अन्ना का अन्दोलन अभी तक लोगों की स्वतःस्फूर्त भागीदारी से ही बना और टिका हुआ है. अभी भी इसका मूल चरित्र भ्रष्टाचार से मुक्ति हेतु आम अदमी की पीडा की अभिव्यक्ति ही है. अभी भी अन्ना के पास वैसा संगठन नहीं है जो इस जनाक्रोश को क्रान्तिकारी जनसंगठन मे बदल सके. इस दृष्टि से स्वामी रामदेव उनकी बडी मदद कर सकते हैं. स्वामी रामदेव ने भी अब तक बहुत कुछ सीख लिया है. इसका उदाहरण है उनकी हालिया दिल्ली यात्रा और प्रदर्शनकारी युवाओं तथा अन्ना से जेल में उनका मिलना तथा मीडीया के सामने दिया गया उनका शालीन वक्तव्य. यह सही समय है जब टीम-अन्ना को रामदेव से बनयी गयी दूरी खत्म कर देनी चाहिये और अन्ना की अपील तथा रामदेव की सांगठनिक ताकत को मिलाकर आज़ादी के अन्दोलन के इस चौथे दौर को जनमानस की अपेक्षाओं के अनुरूप चरण्बद्ध तरीके से सम्पूर्ण बदलाव की दिशा में ले जाना चाहिये. एसा करके ही लोगों को निराशा तथा मोहभंग से बचाया जाना संभव होगा.

रविवार, 21 अगस्त 2011

अद्भुत शिक्षक को मेरा कोटिशः अंतिम प्रणाम.

प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा की मृत्य भारतीय इतिहास लेखन की ही नहीं बल्कि प्रगतिशील चिन्तन की अपूरणीय क्षति है. लगातार कई पीढ़ियों को इतिहास की उस अवधारण से, जो भारत में डी.डी.कोशाम्बी और इंगलैंड में ए.एल .बाशम विकसित कर  रहे थे, के मूल तत्वों से बनी थी वे पिछले आधे दशक से भी ज्यादा समय से परिचित करा रहे थे. आज ४-४ पीढ़ियों के लोग उनके विद्यार्थी बनाने का गौरव हासिल कर चुके है और उनकी अगाध विद्वता से सनी हुई अद्भुत शिक्षण शैली से से इतिहास की समझ बनाने में सफल हुए हैं.
१९८४-१९८६ में दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास , प्राचीन इतिहास में एम. ए. करने के दौर में मुझे भी उनका छात्र बनाने का गौरव मिला था. हालाँकि वे सेवा निवृत हो चुके थे परन्तु प्रोफ़ेसर डी.एन. झा के निवेदन पर तथा हमलोगों के अनुनय -विनय पर उन्होंने अपने आवास पर ही एक पेपर हमें पढाया  था. हमारा बैच उनसे  पढ़ने वाले विद्यार्थियों का आख़िरी बैच था. सचमुच हमने उनके जैसे महान विद्वान और उत्कृष्ट शिक्षक के विद्यार्थी के रूप में जीवन  की अमूल्य निधि हासिल की है. 
प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा के सच्चे शिष्य के रूप में प्रोफ़ेसर डी.एन.झा ने बिलकुल वही मेनारिज्म और पढ़ने का अंदाज़ पाया है जिनसे उनके छात्र उनमे प्रोफ़ेसर  शर्मा का विस्तार देखते हैं. 
एक और बात. मेरे कॉलेज, एस. पी. कॉलेज, दुमका के दिवंगत गुरुदेव, प्रोफ़ेसर देवेन्द्र कुवर, जो पटना विश्वविद्यालय में गुरुदेव प्रोफ़ेसर डी.एन.झा के सहपाठी और गुरुदेव प्रोफ़ेसर आर.एस.शर्मा के शिष्य थे भी हमें इनके बारे में बहुत बाते बताया करते थे. मेरे स्वर्गीय पूज्य पिताजी पंकज जी जो अपने समय में उस क्षेत्र के हिन्दी साहित्य के मर्मज्ञ और उद्भट विद्वान समझे जाते थे, ने अपनी औपचारिक अंगरेजी शिक्षा पद्धति देर से शुरू की थी. जब आर.एस.शर्मा टी.एन. बी. कॉलेज में शिक्षक थे तब मेरे पिताजी हिन्दी के सुविख्यात विद्वान् और हमउम्र होने के वावजूद शर्मा जी के आई.ए. के छात्र  थे. दुर्भाग्य से मेरे पिताजी १९७७ में ही ५८ वर्ष की अल्पायु में ही दिवंगत हो गए. परन्तु यह बात संयोग नहीं है की मुझे विज्ञानं पी पढ़ाई से हटाकर इतिहास की पढ़ाई करने को विवश करते हुए पिताजी ने जो सोचा था उसी के तहत आज मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ. क्या शर्मा जी जैसे मित्र और  शिक्षक से प्रभावित होकर उन्होंने ऐसा किया था? जो भी हो परन्तु यह तो सुखद संयोग और अभिमान की बात है की शर्मा जी मेरे दिवंगत  पिताजी और मेरे --दोनों के शिक्षक थे.
इस सुविख्यात इतिहासकार, मौलिक चिन्तक, उद्भट विद्वान् और अद्भुत शिक्षक को मेरा कोटिशः अंतिम प्रणाम.

शनिवार, 20 अगस्त 2011

सिर्फ जन लोक पल विधेयक--उससे कम कुछ भी नहीं

सिर्फ जन लोक पल विधेयक--उससे कम कुछ भी नहीं

स्वाधीनता दिवस तो हर साल मनाया जाता है, पर इस वर्ष का स्वाधीनता दिवस एक ऐसे क्रांतिकारी उभार  के साथ आया जिसने देश को एक महत्वपूर्ण मोड़ पर ला खड़ा कर दिया है. इस १५ अगस्त को देश की आन बान शान पर मर मिटने वाले अमर बलिदानियों की याद ने पिछले कुछ महीनो से भ्रष्टाचार के विरोध में उभर रही जन  भावनाओं को राष्ट्रवादी रंग में रंग दिया. और जब अन्ना को  १६ अगस्त से उनके  घोषित अनशन और आन्दोलन को रोकने के लए गिरफ्तार कर लिया गया तो पूरे देश में आन्दोलनकारी भावनाएं चरम पर  पहुँच गयी और आज अन्ना सही अर्थों में जन-नायक हो गए. पूरी ना सही, अधूरी ही सही, पर मिली तो थी आज़ादी ही १५ अगस्त १९४७ को.  वर्षों की तपस्या, हजारों के बलिदान, और लाखों की कुर्बानी के बाद सदियों की गुलमी से मुक्ति के इस पवित्र  दिन को लोग अपने अपने स्तर पर अमर स्वाधीनता सेनानियों को नमन करते हुए मना रहे थे. यह ठीक है कि देश में सबकुछ ठीक नहीं है और हमें अभी बहुत लम्बा संघर्ष करना है--सम्पूर्ण स्वाधीनता के लिये. गांधी के सपनों को साकार करने  के लिये और  वास्तव में लोक-राज कयम करने के लिये हमें कई अन्ना पैदा करना  होगा और कई बार लडाईयां लडनी होगी, बार-बार कुर्बानियां देनी होंगी, लेकिन इससे इस पावन दिवस का महत्व कम नहीं हो जाता है. सच तो यह है कि पूरे देश वासियों को यह दिवस अपने शहीदों को नमन करने और उनके प्रति  कृतज्ञता अर्पित करते हुए भरत-भूमि के आन-बान-शान की रक्षा के लिये कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देता है. अतः १५ अगस्त के इस पवन पर्व पर सबको गदगद मन और भाव-विह्वल हृदय से  याद  करते हुए इस बार लोग अन्ना के आह्वान पर उनके पीछे खड़ा होने का मन बना चुके थे. ठीक इसी घड़ी में सरकार ने दमनकारी कदम उठाकर देशभर को मनो  झकझोर दिया और पूरा देश अन्नमय हो गया. जिस तरह की उर्जा आज अनुशासित और समर्पित होकर समाज और देश के लिए कुछ कर गुअजरना चाहती है उसे स्वाधीनता आन्दोलन का विस्तार ही मानना चाहिए. 
महान भारतीय स्वाधीनता संग्राम जिसकी लौ औपनिवेशिक  गुलामी की प्रक्रिया के तुरंत बाद ही शुरू हो गयी थी,  देश के अजाने पर आज के झारखण्ड के संताल परगना परगना के पहाड़िया विद्रोह से. इस बात को मैं ऐसे ही नहीं लिख रहा हूँ, वल्कि विद्रोहियों को पकड़कर उनपर चलाये गए मुकदमे के दौरान उनके दर्ज किये गए बयानों के पुख्ता प्रमाणों का आधार है जिसे हम सब को पढ़ना चाहिए. विद्रोहियों ने मजिस्ट्रेट से पूछे गए प्रश्न के जबाब में कहा था कि तुम हमारे  अपने देस का नहीं हो इसलिए हम तुम्हारी अधीनता नहीं मानते हैं. कितनी स्पष्ट सोच और प्रतिक्रिया थी उनकी जिनके बारे में बड़े-बड़े इतिहासकारों ने लिखने में कंजूसी की है. १७७२-१७८०  से शरू हुए इस पहाड़िया विद्रोह को स्वाधीनता संग्राम का बिगुल हम मानते है, जो आगे चलते हुए, उस इलाके के सन्यासी विद्रोह और संताल विद्रोह से होता हुआ १८५७ के महान प्रथम स्वाधीनता संग्राम तक पहुंचा था. यद् रहे कि संताल परगना का राजमहल कुछ ही सालों पहले तक आज के बिहार,बंगाल,बंगला देश, ओड़िसा और झारखंड के बहुत बड़े क्षेत्र की राजधानी थी इसलिए यहाँ के लोगों को पराधीनता का दर्द औरों से ज्यादा आखर रहा होगा. जो भी हो स्वाधीनता की आकांक्षा के लेकर शुरू हुए इस महान आन्दोलन ने राजनितिक विफलता के वावजूद समरे सामूहिक मानस-पटल पर चिरंतन छाप छोड़ दी. लोकोक्तियाँ, जनास्रूतियाँ, लोकगीत और न जाने कितनी  साहित्यिक रचनाओं का अम्बार इस महान क्रांति से अटा पड़ा है. यह निःसंदेह प्रथम स्वाधीनता संग्राम था.

जैसा कि अक्सर होता है विफलता के बाद फिर लोग अपनी  ताकत को पुनः  एकत्रित करके संघर्ष और अधिक जोशीले अंदाज से दमन का प्रतिरोध करते हैं. महान शूरमाओं और बलिदानियों कि इस धरती पर फिर से स्वाधीनता आन्दोलन का शंखनाद हुआ, जिसकी अंतिम चरम परिणति १९४२  की महान अगस्त क्रांति के रूप में हुयी. करो या मरो के मंत्र की आग ने बरतानिया साम्राज्यवाद को भारत से बोरिया बिस्तरा समेटने पर विवश किया. हाँ उस समय भी कुछ तथाकथित विध्नसंतोषी समूह, दल और बुद्धीजीवी थे जो स्वाधीनता संघर्ष और पूर्ण स्वाधीनता पर मीन मेख निकालते रहते थे. कुछ समूह तो वैचारिक रूप से अलग-अलग हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता को खाद पानी भी दे रहे थे. नतीजा? साबरमती के संत फ़कीर के न चाहते हुए भी देश बाँट गया और हमारे इतिहास की सबसे बड़ी दुर्घटना हो गयी. एक तरफ स्वाधीनता सेनानी देश के निर्माण में जुट गए तो दूसरी तरफ सत्ता का स्वाद चखने और राज सुख भोगने के लिए देश में ही एक नयी सोच जन्म लेने लगी. स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास को पढ़ते समय यह तस्वीर साफ हो जाती है कि किस तरह इतिहास में नाम दर्ज करने में भी चमचागिरी का बोलबाला रहा और हजारों वीरों की वीरता तथा सिपाहियों का त्याग अनदेखा कर दिया गया. जो भी हो इस पड़ाव को हम महान स्वाधीनता संघर्ष का दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव मानते हैं क्योंकि औपनिवेशिक शासन के दौर में जो हमारा चारित्रिक पतन शुरू हुआ था उसको अब चरित्र निर्माण कि दिशा में मोड़े जाने का अवसर मिला था. क्या यह इबारत आप पढ़ नहीं पते हैं जब आप गांधी को स्वाधीनता का जश्न मनाते नहीं बल्कि कोलकाता की गलियों में लोगों में संवेदना और सेवा का पाठ पढाते हुए देखते हैं

देश आगे भी बढ़ा और पीछे भी गया. इंडिया और भारत का निर्माण हो गया. एक तरफ गगन चुम्बी इमारते, भोग और विलासिता में आकंठ डूबा इंडिया और दूसरी तरफ पेट की भूख से बिलबिलाता-मरता, अधनंगा, जाती और धर्म के नाम पर मरता-मरता भारत. नहीं चौंको मत--इंडिया बने या बनाने कि फ़िराक वाले फरका परस्त ताकतों ने धर्म और जाती के नाम पर जो गुंडागर्दी और लूट खसोट मचाई उसकी बानगी अब तो पूरा देश ही नहीं पूरी दुनिया देख रही है. इस तरह की बातों को चुनौती देने आगे आये लोकनायक जय प्रकाश नारायण. भारत की उर्जा को समेटकर अधिनायकवाद को खुली चुनौती दी और तानाशाही को ध्वस्त किया. तीसरे  स्वाधीनता आन्दोलन ने भारत को एक बार फिर बचा लिया. सारा देश आज भी अपनी आजादी की रक्षा के लिए जे पी का मुरीद है.

लेकिन यह क्या? जिनपर देश ने भरोसा किया उन्होंने ही एक बार फिर हमें कुचलने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी? संपूर्ण क्रांति के नारों से निकला महास्वार्थी तत्वों ने पूरे देश को हर तरह के अनाचार, लूट खसोट और बेशर्म सांप्रदायिक और जातीय आग में झुक दिया. भ्रष्टाचार मनो उनका जन्म्सिध्ह अधिकार हो गया. जो जितना बड़ा भ्रष्टाचारी वह उतना बड़ा क्रांतिकारी बन गया. इंडिया के ये ठेकेदार भारत को, भारत की अस्मिता को रौंदते रहे और हमें परिवर्तन का पाठ पढ़ते रहे. तो फिर इस नए भ्रष्टाचारियों की जमात में बड़ी आसानी से पहले से भ्रष्टाचार के मैली गंगा में तैर रहे इण्डिया के लोगों ने अपने जगह बना ली. बल्कि दिल खोलकर उन्होंने नये भ्रष्टाचारियों का स्वागत करके अपना हम जोली बना लिया क्योंकी अब उन्हें कौन चुनौती देता? यहाँ आकर जाती, धर्मं, लिंग, वरगा का भेद मिट गया क्योंकि सब भ्रष्टाचार के स्वर्ग का सुख भोगने लादे, बिना किसी के दर के. अगर किसी ने उनकी कारगुजारियों के खिलाफ बोलने के हिम्मत दिखाई तो उन्हें रस्ते से ही हटा दिया गया. जातिवादी , सांप्रदायिक , और शोषक वर्ग का ख़िताब दिया गया. अगर तब भी कोई सिरफिरा नहीं रुका तो बड़े आराम से ठिकाने लगा दिया गया. हाँ कुछ को खरीदा भी गया ताकि क्रांति करने की विश्वसनीयता ही नहीं बचे किसी में. विश्वसनीयता के इस संकट के दौर में सबको बताया गया की यह तो होगा ही, ऐसा जो कर सकता है वही देश की बागडोर संभल सकता है. राजनीती और भ्रष्टाचार एक दूसरे का पर्याय हो गया. बड़े बेशर्म पर बुलंद आवाज में कहा जाने लगा की अरे तुम क्या राजनीती करिगे? तुम्हारे पास न तो लूट का धन है और न ही लूट करने का मदद. तुम में न तो बहुबल है और न ही किसी को मरने की ताकत. याद कीजिये पिछले कुछ ही सालों का परिदृश्य. हत्या, डकैती, बलात्कार, अगवा, ठेकेदारी और घुसखोरी के विषैले वातावरण में कोई भी साफ सुथरा व्यक्ति कुछ भी सोच पता था? बस बेबसी और बेबसी. 

ऐसे ही परिदृश्य में अन्ना का उदय क्या किसी दैवयोग से कम है? क्या अन्ना के पीछे स्वतः स्फूर्त उर्जा की अनदेखी हम कर सकते हैं? कुछ सिरफिरे और स्वार्थी लोग, जो किसी न किसी रूप में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी सत्ता का सुख भोग रहे हैं अन्ना के आन्दोलन से बेहद डरे हुए हैं. इन डरपोकों में राजनीती ही नहीं वल्कि टी.वी. और अखबारों में अपनी उपस्थिति दर्ज करने को बेताब तथाकथित चिन्तक लेखक बी है जो यह भी नहीं जानते की सभ्य भाषा किसे कहते हैं. कोई अन्ना को फासीवादी कहता है तो कोई उन्हें गुंडा कह कर अपना छुटपन दिखा रहा है. लेकिन इससे क्या? सुकरात को जहर पीना पड़ा था. मीरा को भी  जहर पीना पड़ा था. प्रह्लाद को आग की दरिया में बैठना पड़ा था. गाँधी को गोली कहानी पडी थी. जयप्रकाश को बर्फ की सिल्लियों पर सोना पड़ा था. खुदीराम बोस, भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुखदेव, सुभास चन्द्र बोस, ने अपनी जाती देखकर क्रांति में हिस्सेदारी नहीं निभाए थी. इन महापुरुषों की महागाथा को कोई रावन या कंस ही अनदेखा कर सकता है. कृष्ण ने अपनी जाती देखकर पांचजन्य नहीं बजाय था.   कोई अन्ना की जाती जानते हो? पता करना फिर और नीचे गिराकर तर्क गढ़ने की कोशिश करना. अरे कब तक ऐसा करते रहोगे? धर्मं और अधर्म के इस युद्ध में विजय धर्म की ही होगी क्योंकि वहां पूरी की पूरी त्याग , बलिदान और संघर्ष की विरासत है. कौन सिखाये इन्हें? ये सब कुछ जानते हैं. पर इनका निहित स्वार्थ इन्हें अनाप-सनाप बकने और समाज को बाटने के लिए उकसाता रहता है. परन्तु धीरज रखना साथियों.  अना अब वही कर रहा है जो गांधी ने किया  था, तात्या टोपे ने किया था. संयम और धीरज से काम लेना. पूरा देश तुम्हारे साथ है. नितीश ने जयप्रकाश की धरोहर बचने की कोशिश की. चंद्रबाबू नायडू देश और समाज को समझ रहे है--लोगों का साथ दे रहे हैं. अन्ना के झंडे के नीचे सभी परिवर्तनकारी शक्तियां आ रही हैं. परिवर्तन के नाम पर छलावा करने वाली ताकतों से एक बार फिर लोहा लेने हेतु देश उठ खड़ा हुआ है अन्ना की पुकार पर. 

आजादी के इस चौथे दौर में भी बहुत कुछ होगा. महाभारत होता है तो निष्ठाएं भी बदलती हैं. बहुत लोग इधर-उधर होंगे. पर जो खुछ भी होगा वह शुभ ही होगा. ब्रश्ताचार के विरूद्ध शुरू हो चुके इस विप्लव को अब कोई नहीं रोक सकेगा. बहुत दूर तक जायेगा यह. सत्ता समीकरण बदलेगा. सत्ता बदलेगी और फिर एक बार होगा लोगों के साठ चलवा करने वालों का कुत्सित षड़यंत्र. बल्कि शुरू हो चूका है. देख रहा है देश की किस तरह आकंठ घोटालों में डूबा लोक सभा में गरज रहा है अन्ना पर. किस तरह अन्ना के आन्दोलन में कूदने की खुली घोषणा के वाबजूद लोकसभा और राज्य सभा में अन्ना के जन-हित लोकपाल बिल को खामियों से परिपूर्ण बताया जाता है. सुषमा स्वराज ऑन रिकॉर्ड कहती हैं की अन्ना के पत्र की भाषा अशोभनीय थी. वाह. यही तो असली चेहरा है राज नीति का. लालू और सुषमा महज दो नाम हैं, परन्तु दोनों राजनीति के कुत्सित चहरे के ही प्रतिनिधि हैं.

लोगों को याद दिलाना जरूरी है की जब भारत छोड़ो क्रांति की सफलता के बाद बरतानिया साम्राज्य ने यहाँ से अपना बोरिया बिस्तर समेटने की शुरुआत कर दी और कैबिनेट मिशन भारत आया तो भारतीय जनता के नैतिक प्रतिनिधि की हैसियत से ही स्वाधीनता संग्राम के नेताओं ने उनसे विमर्श किया और संविधान सभा का गठन १९४६ में हुआ. १९४६ में इंग्लॅण्ड से भारत आये कैबिनेट मिशन के साथ भारतीय नेताओं और के बीच वार्ता का परिणाम था कि संविधान सभा का गठन हुआ.   दिसंबर , १९४६ को संविधान सभा की पहली बैठक नयी दिल्ली में हुई. ९ महिलाओं समेत २०७ प्रतिनिधियों ने इस पहली बैठक में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई. पंडित जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य जे.बी.कृपलानी, डॉ.राजेंद्र प्रसाद, श्रीमती सरोजिनी नायडू, श्री हरे कृष्ण महताब, पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त, डॉ. भीम राव अम्बेडकर, श्री शरत चन्द्र बोस, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, श्री एम. अशरफ अली जैसे महानुभाव इस सभा में विराजमान थे. श्री सच्चिदानंद सिन्हा ने बैठक की अध्यक्षता  की. इस संविधान सभा ने २ वर्ष,११ महीने,तथा सैट दिनों की अवधि में कुल १६५ दिनों में संपन्न अपनी बैठकों के बाद संविधान का निर्माण किया. १४ अगस्त १९४७ की शाम से इस संविधान सभा ने स्वतन्त्र भारत की विधायिका का रूप ग्रहण कर लिया. २९ अगस्त १९४७ को इसी सभा ने  डॉ.भीमराव अम्बेडकर की अध्यक्षता में ड्राफ्ट-समिति का निर्माण किया.  २६ जनवरी १९५० को तमाम संशोधनों के बाद इस सभा द्वारा निर्मित संविधान को अंगीकार किया गया.  इसी संविधान  सभा के उदार संविधान की बात हम भी कर रहे हैं जो अपने  नागरिकों को लिंग,जाती,धर्म,क्षेत्र और भाषा के भेदभाव के बिना गरिमापूर्ण जीवन निर्वाह की कामना ही नहीं करता वल्कि उसका अधिकार भी देता है. आज जब संविधान के मूल प्रावधानों को तर-तर किया जा चूका है हमें इसकी रक्षा करनी होगी. लोकसभा सरवोछ है, परन्तु उससे भी ऊपर है संविधान, जिसने लोकसभा का गठन किया. संविधान सभा की बहसों से हम संविधान के प्रावधानों की रक्षा हेतु तर्क और दृष्टि दोनों ले सकते हैं. हम, भरत के हमलोग, वी द पीपल आफ़ इंडिया, ही अपने भग्य के विधाता हैं ---इसमें किसी  को संदेह नहीं होना चाहिये. संविधान भी भरत की जनता की तरफ़ से ही बनाया गया है और इसमें संशोधन भी भारत की जनता के नाम पर ही किया जाता रहा है. अतः जनता की सर्वोच्चता स्थापित करने के इस मुहिम में हम सब अपनी भूमिका खुद ही निरूपित करें. आप तमाम लोग सुन रहे हैं न अन्ना की अवाज़ में लोक की आवाज़?


अब सबको, जो किसी भी विचारधारा के हैं, किसी भी दल के हैं, किसी भी उम्र के हैं, अगर खुद को भ्रष्टाचार के विरोध का हिस्सेदार बनाना चहते हैं तो इस अन्दोलन को उस दिशा मे ले जाएं जहां इसे जाना चाहिये---सम्पूर्ण बदलाव के ओर.
इस चौथे अज़ादी के अन्दोलन में हमें इतिहास से सबक लेकर आगे बडना चहिये.
अब वैसे तमाम लोगों को जो व्यव्स्था परिवर्तन की प्रक्रिया के सह्भागी रहे हैं, तेजि से बदलती जा रही परिस्थिति मे कहीं बैठकर एक मुकम्मल साझी रणनीति का ब्लूप्रिंट तैयार कर लेना चाहिये.किसी भी दल विशेष को इस अन्दोलन को हाईजैक नहीं करने देना चाहिये क्योंकि किसी भी दल ने भ्रष्टाचार का मुखर विरोध नहीं किया है. इस अवसर का फ़ायदा अपने चुनावी हित में करने की मंशा भाजपा की साफ़ दिख रही है. अतः भाजपा के भी ईमानदार लोगों को साथ में लेते हुए, वामपंथियों, समाजवादियों के निष्कलुष लोगों को मिलते हुए, जनान्दोलनकारियों को जोडते हुए, भ्रष्टाचार के विरूद्ध इस जंग को अंतिम परिणति तक ले जाना चाहिये. हां अभी ही इसके साथ अन्य मुद्दों को जोडने का उतावलापन दिखाने की कोई जरूरत नहीं है. इससे लोगों का विश्वास टूटने का खतरा है. याद रखिये गांधी ने १९१७ से १९४२ तक का सफ़र तय किया, करो या मरो का मंत्र देने के पहले. ठीक उसी प्रकार इसे बाद में, अवाम को भरोसे में लेते हुए इस अज़ादी के चौथे अनदोलन को बडाना चाहिये.

राजनैतिक परिदृश्य में तेजी से बदलाव आ रहा है. अन्ना के १६ अगस्त से चल रहे  अनशन ने खलबली मचा दी है. अन्ना हजारे अब देश की आवाज हैं. एक तरफ पूरे देश से अन्ना के समर्थन की खबरें आ रहीं हैं, तो दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी और सरकार अन्ना पर आरोप लगा रही है, ताकि वे दिस्क्रेडित किये जा सकें. लगता है सरकार अपना संतुलन खो चुकी है. भारतीय जनता पार्टी इस बदले माहौल का पूरा फायदा उठाना छह रही है क्योकि अन्ना के आन्दोलन ने पूरे देश में सरकार की नीतियों के खिलाफ व्यापक वातावरण बना दिया है. अभी बहुत सावधान रहना है-- सभी तरह की फिरकापरस्त ताकतें भी अब आन्दोलन में शामिल होकर इसके उद्देश्य को भटकाने की कोशिश कर रही हैं. टी. वी. चैनलों पर चल रहे डिबेट गवाह हैं. हम सब जो देश में  व्यवस्था परिवर्तन का सपना देखते है, इस मुहीम के स्वाभाविक साथी है --- हमें अपने साथ पूरे देश के  लोगों को जोड़ने का अवसर मिला है , इस अवसर को चुकाना नहीं चाहिए जैसा की अन्ना का भी मानना है.


अब धीरे-धीरे सुर बदल रहा है. भ्रष्टाचार के आरोपों को झेल रही दिल्ली की मुख्यमंत्री के बेटे और सांसद संदीप दीक्षित ने अन्ना की गिरफ़्तारी को तो गलत कहा ही यह भी कहा कि अन्ना ही कोई रास्ता निकालें. दूसरी तरफ एन डी टी वी के राविश आज कह रहे थे कि लोगों को अब मान लेना चाहिए कि अन्ना के साथ वास्तव में आम लोग हैं, जबकि उनके चेनल पर कर रात तक की प्राइम टाइम बहस पर लोग अन्ना के जन लोक पल की चर्चा न करके सिर्फ जनतांत्रिक अधिकारों के हनन की ही बात और उसके विरोध में स्वर उठा रहे थे. अन्ना का वास्तविक मुद्दा बहस में होता ही नहीं था. भाजपा के प्रवक्ता जोर देकर कह रहे थे कि वे जनतांत्रिक अधिकारों के हनन के विरोध में अन्ना को समर्थन दे रहे है जबकि उनका जन लोक पाल विधेयक बहुत सारी कमियों को समेटे हुए है. क्या कहेंगे आप इसे?
संयोग से दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के चुनावी परिदृश्य में अन्ना कहीं नहीं हैं. जब मैंने १५ मई को ही एक लेख लिखाकर इस चुनावी अजेंडा में अन्ना द्वारा उठाये गए प्रश्न को रखने की कोशिश की थी तो उसपर गौर फरमाने की बजे कुछ शिक्षकों ने मुझपर व्यक्तिगत हमला बोलकर मुद्दे को भटकने की पुरजोर कोशिश की. आज एक महीने बाद यह साफ हो गया कि उस समय जो मैं कह रहा था वह मूल प्रश्न तब भी था और आज भी है.
अभी भी बहुत लोग जिन्हें मै व्यक्तिगत रूप से क्रन्तिकारी औरऔर इमानदार के रूप में जानता हूँ, इस बहस में उलझे हैं कि अन्ना के समर्थन में उमड़ा जन सैलाब की ताकत का ही प्रदर्शन है. अन्ना इस भीड़ की ताकत के प्रदर्शन के बल पर संसदीय सर्वोच्चता को चुनौती दे रहे है. आज भी एक टी वी चेनल पर एक महिला अन्ना को फासिस्ट कह रही थी.
लेकिन तमाम लोगों से विनम्र आग्रह है की एक बार रामलीला मैदान जाकर देखें, लोगों का वर्ग चरित्र भी समझें और लोगों को सांप्रदायिकता के तराजू पर भी तौल लें. कुछ लोगों से बातचीत करें -- तभी पता चलेगा कि लोगों के आक्रोश को कितनी सशक्त अभिव्क्यक्ति दी है अन्ना ने. आप विश्वास करेंगे कि रामलीला मैदान में आज मेरी मिलाकात और बातचीत दो ऐसी अन्ना समर्थक महिलाओं से हुई जो छुट्टी लेकत वहां आयी थी. अरे जरा जानिए तो कि वे नौकरी कहाँ करती हैं? वे दिल्ली पुलिस में सिपाही हैं और पुलोसिया भ्रष्टाचार के विरोध में वहां आयी थी जो अन्ना के आन्दोलन को ही एकमात्र रास्ता मान रही थी.
लेकिन खतरा यहीं है. जब पूरे समाज के आँखें एक व्यक्ति पर केन्द्रित हो जाती है तो तमाम तरह के स्वार्थी तत्त्व भी घुसपैठ करने की कोशिश करते हैं. संदीप दीक्षित अब क्यों ऐसी भाषा बोल रहे हैं, यह जरूर समझाना होगा. ऐसे तत्वों से भी सावधान रहना होगा जो भ्रष्टाचार के सतम्भ हैं पर भ्रष्टाचार की इस लड़ाई में घुसपैठ करने की जुगाड़ में हैं-मैने वहां यह भी महसूस किया. लेकिन ऐसा नहीं कि इन निहित स्वार्थी तत्वों से निपटा नहीं जा सकता है.
एक बात और, अभी बहुत दिन नहीं हुए जब लालू यादव के तमाम भ्रष्टाचार के खबरों के आने के वावजूद लोग उनकी लाठी रैली में उमड़ पड़ते थे. यह वही जनता थी जो सबकुछ जानते हुए भी लालू यादव की जातिवादी राजनीति को समर्थन देकर उन्हें बिहार को बर्बाद करने देती रही. अतः जनता को भी जानना होगा के भ्रष्ट लोगों को चुनाव में जितने से भ्रष्टाचार बढेगा, घटेगा नहीं. जाति और धर्मं के नाम पर वोट डालना भी भ्रष्टाचार ही है. अतः अब पहले से अधिक मुखर होकर कहना चाहिए के सिर्फ जन लोक पल विधेयक--उससे कम कुछ भी नहीं.