बुधवार, 31 मई 2017

ऐ जिन्दगी

ऐ जिन्दगी
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अमर पन्कज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
चहक-चहक कर जीना है तुझे ऐ जिन्दगी जी भरकर
छक-कर पीना रस सभी तेरे ऐ जिन्दगी जी भरकर।
पास आ रही मौत को भी आज ही कह दिया है मैनें
लौट जा यहाँ से तुम फासले बना अभी दूर रहकर।
अभी तो है बसेरा सभी चाहने वाले दिलों में ही मेरा
अनगिनत हाथ खड़े आज भी दुआ में कवच बनकर।
पुतलियों की कोर से यूँ जब कभी छलक जाते आँसू
चूम लेते हैं वो उन्मत्त होठ झट से उन्हें आगे बढ़कर।
मेरी ही धड़कनों के साथ धड़कती है पूरी कायनात
मैं हूँ जो महका करता इस खुदाई में खुशबू बनकर।
मौत से मिलन की उचित घड़ी जब भी आएगी 'अमर'
सीने से लगा लेंगे उसे लिपट जाएंगे तब बाहें भरकर।

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