बुधवार, 13 सितंबर 2017

ये है साझी विरासत अपनी

  

ये है साझी विरासत अपनी

.................................
अमर पंकज
(डा अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय

ये है साझी विरासत अपनी फिक्र में जिस्म हम गलाते रहे
वो हँसते रहे बेफिक्र क्या हुआ जो आपको हम रूलाते रहे।
कोई दिल के करीब था न था क्या बताऐँ ये राज तुमको
मगर शिद्दत से मिलकर उसको यूँ हर बार हम बचाते रहे।
जमीं से आसमां तलक थी फतह की गूँज कुछ ऐसी फैली
गर्दो-गुबार की फिर चली आँधी चश्मे-तर हम छिपाते रहे।
है आसां नहीं तेरे भी लिए जज्ब करना वो मजबूर सी हँसी
सबको है पता अस्मत खुद की ही रोज-रोज हम लुटाते रहे।
हर बार छलकता ही रहा जो सब्र का पैमाना ऐ नूरे-हयात
पूछिए दिल से कि क्यों हर हाल आपको ही हम मनाते रहे।
मुर्दों को सुकूँ वहाँ भी ना था जमीं-आसमां मिले थे जहाँ
बेखौफ "अमर" खूँ के छींटे तेरे निजाम में सब उड़ाते रहे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें