शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

शेर कहने की जबसे आदत बन गई
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शेर कहने की जबसे आदत बन गई
वक्त की हर शै ही इबादत बन गई।
लमहा-लमहा जीने का सुरूर आ रहा
लमहा-लमहा मरना किस्मत बन गई।
पीता हूँ जब भी तो बढ़ जाती है प्यास
पीयेे बगैर जिंदगी ही मुसीबत बन गई।
तन्हा कोई पीता कोई पीता भरे-बज़्म
पीये बिन गुफ्तगू एक हसरत बन गई।
अपने-अपने हिस्से का पी रहे हैं सभी
कतरा-ए-ग़म पीने की फितरत बन गई।
पीने की ख़्वाहिश में बेचैन तुम 'अमर'
अश्कों को पी लेने की चाहत बन गई।

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