शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

जब भी कदम उस ओर बढ़े
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जब भी कदम उस ओर बढ़े कोई बीच डगर क्यों आता है
होती है सुबह जब यादों पर फिर से अंधेरा सा छा जाता है।
भूलूँ कैसे उस दिन को भी जब भाग मिले तुम मेरे सीने से
कैसे मिटाऊँ यादों का घरौंदा हरपल जो फिर भरमाता है।
अब शाम हुई तारे भी चमके रजनी चली करने को सिंगार
बिजली चमकी तो सुधियों में आकर रूप तेरा लहराता है।
चाँद भी रूठा चाँदनी सिसकी और शबनम की बौछार हुई
भोर ने जबसे देखा तुमको मन अंदर तक अब पछताता है।
कैसे कहें जाकर उनसे कि ऊसर मिट्टी में उगी दूब 'अमर'
देखकर बढ़ता प्रेम का बिरुवा दिल अपना अब इतराता है।

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