शुक्रवार, 3 नवंबर 2017

रौशन दरो-दीवार थी जगमगाता था जहाँ चाँदी का दीया
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रौशन दरो-दीवार थी जगमगाता था जहाँ चाँदी का दीया
वख्त की मार पड़ी ऐसी कि न नसीब है मिट्टी का दीया।
चौखट व दालान उजियाते रहे वर्षों खून से जलकर चराग़
फूँकते दौलत बेशुमार शान से वो जलाते रहे घी का दीया।
एक दौर था कभी मिटती न थी रौनक उस कूचे की कभी
गुलाम भी जलाते रहे उनकी इनायत से उधारी का दीया।
जमीं बाँट ली सरहदें बनाकर चलता रहा सितम का खेल
जाँबाज़ भी जलाते रहे क़त्लो-गारद बदगुमानी का दीया।
हालते-मुल्क बदला आबो-हवा बदली बदल गए हुक्मरान
नवाबों को जलाते देखा तरसती आँखों से पानी का दीया।
हर साल आती दीवाली 'अमर' दिये भी जलते हैं हर बार
इस बार जलाओ दिल में इन्सानियत की बाती का दीया।
हमे हुए चमन के दिल में बसा चिनगरियों का अंधेरा
चुप सिसकते रहे परिन्दे कोई देख नहीं पाया उनको।
हाँफती हवाओं में बेजान दरख़्त खड़े बेज़ार रो रहे थे
कलियों के संग रूत थी उदास देख नहीं पाया उनको।
चैन की नींद नसीब किसको शोर-ए-आतिश में ‘अमर’
लौ-ए-चराग़ में अटक गई साँसें देख नहीं पाया उनको

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