रविवार, 4 फ़रवरी 2018

बहरे कामिल मुसम्मन सालिम
(मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन मुतफ़ाइलुन)
ललगालगा ललगालगा ललगालगा ललगालगा
(11212 11212 11212)
दिन-रात तो सब साथ है
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
दिन-रात तो सब साथ है फिर भी कहाँ वह पास है
दिन भर सभी कहते रहे किस शख़्स की अब आस है।
कहना नहीं कुछ भी तुझे अब जो हुआ बस हो गया
कुछ बात तुम अब भी कहो कहना तेरा सब खास है।
बहकी हुई धड़कन कहे बस और तू कुछ पूछ मत
महकी हुई इस साँस में ही प्यार का अहसास है।
गुल की फिज़ा हँसके कहे अब खार से तुम दूर हो
गुल की हँसी जब भी हटी बस खार का परिहास है।
अब भी शहर सब देखता बिन गुफ़्तगू यह जानता
कुछ लोग ही बस देखते दिखती बहार उदास है।
बहती हवा फिर पूछती सब भूलकर वह झूमती
वह जानती कि "अमर" सभी अब भी करें उपहास है।

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