रविवार, 25 मार्च 2018

ढल रही अब शाम
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अमर पंकज
(डॉ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
ढल रही अब शाम तो फ़िर देखता हूँ प्यार को
ढह रही दीवार थी रोके नदी की धार को।
उठ रहा था जो बवंडर इस समंदर में कभी
बन गया है वो भँवर अब देखकर पतवार को
जो दिखाती जिंदगी अब देख मत चुपचाप वह
ना मिले साहिल कभी तो चूम ले मँझ धार को।
हो सके तो आज पढ़ तुम ज़र्द रुख़ के हर्फ़ को
सुर्ख़ गालों ने छुपाया दुख के पारा वार को।
कशमकश की इस ख़लिश में चाँद गर मिलता मुझे
पूछता ये दाग क्यों है क्या कहें संसार को।
चाहते हो कैद करना देह की इस गंध को
जज्ब कर पहले 'अमर' तुम आँसुओं की धार को

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