शुक्रवार, 18 मई 2018

36.
(2212 2212 2212 212)
ढहने लगी ईमारतें
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ढहते गए सारे मकां, जलती फ़सल खलिहान में
खोजूँ कहाँ मैं आदमी, बस भीड़ है दालान में।
करते रहे हम कोशिशें, उनको बताने की सदा
रखते नहीं कुछ फ़ासले, इंसान वो भगवान में।
पोखर सभी थे भर चुके, हम रह गए पर फिर वहीं
सब लौट आए छू तरल, तल आप के फ़रमान में।
रातें कटे ना चैन से, आती नहीं है नींद अब
होने लगी बेजान भी, जम्हूरियत मैदान में।
बीती कहानी भर नहीं, जज्बा तिरा था मीत वह
अपनों भरी दुनिया यही, थी बात कुछ मुस्कान में।
कैसे उसे दें छोड़ जो, दे जिंदगी का हौसला
उलफ़त “अमर” अहसास है, बसता नहीं शैतान में।

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