शुक्रवार, 18 मई 2018

चली थी किधर से किधर जा रही है
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चली थी किधर से किधर जा रही है
न मालूम कैसी जिया आ रही है।
नहीं था वहाँ आज भी कुछ नहीं है
हवा आज सौगात क्या ला रही है।
देखूँ गर कभी कुछ नहीं दीखता है
अभी धूप थी अब घटा छा रही है।
मचलता रहा जिस्म जलता जिगर है
देखो आग अब किस कदर खा रही है।
रोती सी वो सूरत पे हँसने की आदत
ख़ुशी और ग़म के ग़ज़ल गा रही है।
समा क्या अजब कुछ 'अमर' देख तुम भी
नई है ये रंगत गजब ढा रही है।

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