शनिवार, 25 मई 2019

सोमवार, 20 मई 2019

किस बात पर वो बारहा मख्मूर रहते हैं (ग़ज़ल)


किस बात पर वो बारहा मख़मूर रहते हैं
कभी सोचा भी है क्यों लोग उनसे दूर रहते हैं
फ़क़त चाहत नहीं उल्फ़त नसीबों से भी मिलती है
तो फिर क्यों ख्वाहिशे-उल्फ़त से हम माज़ूर रहते हैं
कहीं भी हम चले जाएँ फ़साना साथ चलता है
भले ही चुप रहें लेकिन हमीं मज़्कूर रहते हैं
फ़िज़ाओं में न जाने ज़ह्र कैसे घुल गया है अब
चमन के फूल भी तो देखिये बेनूर रहते हैं
पसीने की नहीं कीमत अमीर-ए-शह्र में कोई
'अमर' क्या झुग्गियों में इसलिये मज़दूर रहते है
माज़ूर-helpless
मखमूर-नशे में चूर
मज़्कूर-चर्चा में

आग उल्फ़त की लगी (ग़ज़ल)

(बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़)
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 2122 212
आग उल्फ़त की लगी होने लगा मुझपर असर
चल गया मुझको पता के दर्द का है ये सफ़र
दिल के कोने में अभी भी है बची उनकी जगह
फिर भी क्यों हैं फ़ासले यह सोचता हूँ हर पहर
पास थे जब वो मेरे कीमत कभी समझी नहीं
ढूंढता अब फिर रहा हूँ आज उनको हर डगर
बंद कर अब गीत गाना बेसुरी आवाज़ में
वक़्त ने करवट बदल ली क्यों सहे कोई कहर
अब किसे अपना कहूँ सब दूर मुझसे हो रहे
दिल मेरा बस है खिलौना मैंने ये जाना 'अमर'
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

दुश्मनी अपनी जगह (ग़ज़ल)

ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
दुश्मनी अपनी जगह है दोस्ती अपनी जगह
कुछ तो हो तक़रार में भी प्यार की अपनी जगह
दूर तुमसे हो गया मैं था लिखा किस्मत में पर
अब तलक महफ़ूज तेरी याद की अपनी जगह
हाथ लंबे हैं बहुत क़ानून के तो क्या हुआ
है अदालत में अभी भी झूठ की अपनी जगह
जानते हैं सब मेरा सच पर ये सिस्टम देखिये
न्याय के मंदिर में भी मिलती नहीं अपनी जगह
यह सियासी खेल है चलता रहेगा ऐ 'अमर'
हाल हो बदहाल फिर भी जश्न की अपनी जगह

दिल में हैं अरमाँ बहुत (ग़ज़ल)

दिल में हैं अरमाँ बहुत पर मुख़्तसर है ज़िन्दगी
वक़्त थोड़ा है मगर लम्बा सफ़र है ज़िन्दगी
दूर तक दिखता है मुझको सिर्फ़ काला सा धुआँ
आग अंदर फैलती सोज़े-जिगर है ज़िन्दगी
आपको धोखा हुआ है मिल गयी मंज़िल मुझे
बस भटकती ही रही यूँ दर-ब-दर है ज़िन्दगी
इश्क़ ने बदली है दुनिया तू बदल जाए तो क्या
साथ अब तो राहगीरो-रहगुज़र है ज़िन्दगी
उम्र भर तन्हाईयों में ढूंढता था मैं जिसे
मिल गया वो जो चराग़े-रहगुज़र है ज़िन्दगी
क़त्ल तू करता रहा है मुस्कुराकर ही 'अमर'
फिर भी हम कहते हैं तू ही हमसफ़र है ज़िन्दगी

रविवार, 19 मई 2019

देशहित में अब जवानी भी मचलनी चाहिए (ग़ज़ल)

ग़ज़लः
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

2122 2122 2122 212

देश हित में अब जवानी भी मचलनी चाहिए
क्रांति की आवाज़ दिल से अब निकलनी चाहिए

भेद की दीवार करती मुल्क़ को बर्बाद है
सबको मिलकर मुल्क़ की सूरत बदलनी चाहिए

आग बरसाने लगा पगला गया है सूर्य भी
सब हुए बेहाल अब तो शाम ढलनी चाहिए

चाँद से गोरे बदन ने कर दिया पागल मुझे
रूह पिघली अब नज़र रुख़ से फिसलनी चाहिए

बेड़ियाँ हैं पाँव में ख़ामोश रहती है ज़ुबां
ख़ामुशी में भी 'अमर' इक आग जलनी चाहिए

देशहित में अब जवानी भी मचलनी चाहिए (ग़ज़ल)

ग़ज़लः
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621
2122 2122 2122 212
देश हित में अब जवानी भी मचलनी चाहिए
क्रांति की आवाज़ दिल से अब निकलनी चाहिए
भेद की दीवार करती मुल्क़ को बर्बाद है
सबको मिलकर मुल्क़ की सूरत बदलनी चाहिए
आग बरसाने लगा पगला गया है सूर्य भी
सब हुए बेहाल अब तो शाम ढलनी चाहिए
चाँदनी सा वो बदन था कर दिया पागल मुझे
रूह पिघली अब नज़र रुख़ से फिसलनी चाहिए
बेड़ियाँ हैं पाँव में ख़ामोश रहती है ज़ुबां
ख़ामुशी में भी 'अमर' इक आग जलनी चाहिए

अब मेरे महबूब मुझको दोस्त कहने लग गये (ग़ज़ल)

ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
देहली यूनिवर्सिटी
मोबाइल-9871603621
अब मेरे महबूब मुझको दोस्त कहने लग गये
इसलिए शायद वो मुझसे दूर रहने लग गये
कुछ तो होगा तितलियों के नाचने का भी सबब
सोचकर हम प्रेम की गंगा में बहने लग गये
राज तो अब राज उनका भी नहीं रह पाएगा
झूठ के उनके किले अब रोज ढहने लग गये
शेर कह पाने का जिनको है सलीका ही नहीं
ख़ुद को वो इल्मे-अरूज़ उस्ताद कहने लग गये
लाल नीले या हरे खिलने लगे सब फूल अब
आँधियो के भी 'अमर' आघात सहने लग गये

दर्द दिल का सबसे मैं कहता नहीं हूँ (ग़ज़ल)

ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
देहली यूनिवर्सिटी
मोबाइल-9871603621
दर्द दिल का सबसे मैं कहता नहीं हूँ
कीजिए उपचार कुछ अच्छा नहीं हूँ
क्यों नहीं मुझपर कभी करती भरोसा?
तू बता क्या प्यार में सच्चा नहीं हूँ?
ताड़ तिल का मैं करूँ अफ़वाह सुनकर?
क्यों करूं मैं? कान का कच्चा नहीं हूँ
चाल उनकी अब समझ आती मुझे भी
क्यों न समझूँ? मैं कोई बच्चा नहीं हूँ
कौन क्या अब कह रहे हैं पीठ पीछे
सुन रहा मैं भी 'अमर' बहरा नहीं हूँ

ग़ज़ल:
जाने किस ग़म का वो मारा लगता है
सूरत से ही जो बेचारा लगता है
इश्क़ बना देता है जिसको भी मजनूँ
वह तो सबको ही आवारा लगता है
इश्क़ का दरिया बहता है जिसके दिल में
उसको तो मँझधार किनारा लगता है
देख तुझे बेला क्यों महकी साँसों में
जन्मों का है साथ हमारा लगता है
तिरछी नज़रों से देखा उसने मुझको
मेरा आज बुलंद सितारा लगता है
बारिश करता खुशियों की महबूब मेरा
अब तो वह रंगीन हज़ारा लगता है
पेट भरा हो तो अच्छी लगती है ग़ज़ल
भूख में केवल भोजन प्यारा लगता है
जेब भरी हो तो मिलना साक़ी से तुम
ग़ुरबत में आशिक़ बेचारा लगता है
नग़मे गाओ मुस्काओ तुम चुप क्यों हो
महफ़िल का ग़मगीन नज़ारा लगता है
तूफ़ाँ में जब फँस जाती है नाव 'अमर'
केवल रब तब एक सहारा लगता है
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
देहली यूनिवर्सिटी
मोबाइल-9871603621

अब बग़ावत का शरर पैदा कर (ग़ज़ल)

(अपने ग़ज़ल-गुरु श्रद्धेय गुरुदेव शरद तैलंग साहेब की ज़मीन पर कही /लिखी अपनी यह ग़ज़ल मैं उन्हें ही समर्पित करता हूँ। प्रणाम गुरुवर। आपका आशीष बना रहे।)
ग़ज़लः
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
देहली यूनिवर्सिटी
मोबाइल-9871603621
अब बगावत का शरर पैदा कर
जी के या मर के मगर पैदा कर
लहर तो क्रांति की उठनी है अब
सूरमाओं सा जिगर पैदा कर
गुम अँधेरों में न हो जाएँ हम
आस की कोई सहर पैदा कर
बंद आँखों से भी दिख जाऊँगा
प्यार की कोई नज़र पैदा कर
इश्क़ को मुश्क ही बनना है पर
आशिकी का तो हुनर पैदा कर
बात सारी तेरी मानें हम भी
ऐसे जज़्बात 'अमर' पैदा कर

शुक्रवार, 3 मई 2019