रविवार, 19 मई 2019

ग़ज़ल:
जाने किस ग़म का वो मारा लगता है
सूरत से ही जो बेचारा लगता है
इश्क़ बना देता है जिसको भी मजनूँ
वह तो सबको ही आवारा लगता है
इश्क़ का दरिया बहता है जिसके दिल में
उसको तो मँझधार किनारा लगता है
देख तुझे बेला क्यों महकी साँसों में
जन्मों का है साथ हमारा लगता है
तिरछी नज़रों से देखा उसने मुझको
मेरा आज बुलंद सितारा लगता है
बारिश करता खुशियों की महबूब मेरा
अब तो वह रंगीन हज़ारा लगता है
पेट भरा हो तो अच्छी लगती है ग़ज़ल
भूख में केवल भोजन प्यारा लगता है
जेब भरी हो तो मिलना साक़ी से तुम
ग़ुरबत में आशिक़ बेचारा लगता है
नग़मे गाओ मुस्काओ तुम चुप क्यों हो
महफ़िल का ग़मगीन नज़ारा लगता है
तूफ़ाँ में जब फँस जाती है नाव 'अमर'
केवल रब तब एक सहारा लगता है
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
देहली यूनिवर्सिटी
मोबाइल-9871603621

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