शुक्रवार, 19 जून 2020

कैसे होगी करोना के बाद की दुनिया (4 अप्रैल, 2020)

कैसी होगी 'करोना' के बाद की दुनिया:
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क्या 'करोना' नामक विषाणु किसी दृश्य-अदृश्य महाशक्ति द्वारा प्रक्षेपित कोई 'अमोघ अस्त्र' है, जो अपने 'लक्ष्य-बेधन' के पश्चात ही शमित होगा?
हम सभी देख-सुन रहे हैं कि किस तरह से इसने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है!
हम इससे लड़ भी रहे हैं तो अपने-अपने घरों में ख़ुद को बंद करके!
मानव जाति द्वारा विकसित किसी युद्घ में विजय प्राप्त करने की यह संभवतः नवीवतम रणनीति है।
चीन के द्वारा इस 'विषाणु-अमोघास्त्र' के सृजन का सिद्धांत सही हो सकता है या नहीं भी हो सकता है,  लेकिन यह तो लगभग स्थापित तथ्य बनता जा रहा है कि 'करोना-उत्तर' विश्व का चित्र एकदम अलग होगा। 'महाशक्तियों' की समझ के नये मानदंड विकसित होंगे। 'विकास' की समझ को लेकर बहस तो बहुत दिनों से चल रही है, लेकिन अब 'विकास' की नयी और संभवतः अधिक स्वीकृत समझ विकसित होगी।
दुनिया भर की अर्थव्यवस्था बदलेगी, बल्कि विश्वव्यापी आर्थिक संकट से मानव जाति को जूझना होगा।
भूख और बेकारी की मार से कैसे हम बचें, यह प्रश्न अर्थशास्त्रियों के चिंतन का केंद्रीय प्रश्न होगा।
अमेरिका, इटली, स्पेन, ब्रिटेन और जर्मनी समेत पूरा यूरोप जिस तरह से विकसित अर्थव्यवस्था होने के बावजूद इसकी मारक क्षमता के आगे घुटने ही नहीं टेक रहा, बल्कि इसकी भयंकर विनाशलीला को झेलने को अभिशप्त सा नीरीह दिख रहा है, उससे पश्चिम का 'स्वनिर्मित साँस्कृतिक-श्रेष्ठताबोध' का अहंकार टूटने लगेगा।
'दक्षिण कोरिया' और 'चीन' दोनों देशों ने अलग-अलग तरीकों से इस संकट का बहुत हद तक सफलतापूर्वक मुकाबला किया है। तो क्या 'अधिनायकवादी' और 'लोकतंत्रीय' --- दोनों तरह के माॅडल दुनिया को विकल्प देंगे रहेंगे?
क्या 'वैश्विकता' के अश्वमेध पर लगाम लगेगा? 'ग्लोबलाईजेशन' की संकल्पना को बड़ा झटका लगेगा और अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, प्रादेशिक, जनपदीय और स्थानीय सीमाएँ अधिक प्रबल होंगी?
भारत अगर कमोबेश एक 'राष्ट्रीय नीति' के तहत, न्यूनतम  जन-धन की हानि के साथ इसका सफलतापूर्वक सामना कर लेता है तो क्या 'विभिन्नताओं' और 'विशिष्टताओं' के 'समावेशी समाज' के रूप में भारत दुनिया को एक नया 'माॅडल' देने में सक्षम होगा?
या तमाम सुविचारित 'कर्मकांडों' को जबतक संकीर्तन-मंडली मात्र 'कल्ट-फाॅर्मेशन' का औजार बनाती रहेगी तब तक इस तरह की कवायद पर क्या बौद्धिक बँटे नहीं रहेंगे? ऐसी स्थिति में जन-सामान्य को सही दिशा कौन दिखलाएगा?
राजनीति तो हर्गिज़ नहीं।
तो फिर क्या दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को ही इस विभीषिका की सर्वाधिक मार झेलनी पड़ेगी?
भारतीय सामाजिक संदर्भों में, बदले हुए परिप्रेक्ष्य में, क्या  करोना के बाद 'शुचिता' की नवीन संकल्पना विकसित होगी?
क्या 'लोकजीवन' में फैला विश्वास/अंधविश्वास खंडित होगा जिसके तहत पंडित, पादरी, मुल्ला, ग्रंथी, लामा, आचार्य, ओझा और मांझी या ऐसे तमाम लोग महत्वहीन या अप्रासंगिक हो जाएँगे जिन्हें तथाकथित 'दुर्लभ दैवीय शक्तियों से संपन्न' माना जाता रहा है?
संसार के लगभग सभी नृतत्वीय समूहों में महत्वपूर्ण माने जाने वाले सामुदायिक पुजारी वर्ग के लोग भी अपने-अपने सामाजिक परिवेश में आने वाले संभावित परिवर्तनों के बरख़श नवीन कर्मकांडों या अनुष्ठानों के विकास तथा प्रचार-प्रसार की नवीन रणनीति अपनाएँगे?
क्या सदा-सर्वदा के लिये 'विचार' और 'कर्म' के स्तर पर मानव-समूह अब 'वैज्ञानिक' हो जाएगा और 'अवैज्ञानिक परंपराएँ'  तिरोहित हो जाएँगी?
क्या तकनीक की 'श्रेष्ठता' के समक्ष 'आस्था' और 'परंपरागत पूजा पद्धतियाँ' दम तोड़ देंगी?
क्या पारंपरिक 'धर्म' की समझ बदलेगी?
क्या 'धर्म' के नाम पर 'घृणा' और 'साम्प्रदायिक संघर्ष' का परिवेश समाप्त हो जाएगा और अपनी-अपनी जीवन-रक्षा के निमित्त लोग 'धर्म के घेरे' से विमुक्त होने लगेंगे?
क्या 'धर्म' या अन्य 'पारलौकिक संस्थाओं' को स्थानापन्न करने वाली नवीन संस्था या संस्थाओं का विकास होगा? या फिर असहाय मानव-समूह और भी अधिक 'धर्मभीरु' हो जाएगा? धर्म, आस्था और विश्वास या अंधविश्वास नये सिरे से, नये उपकरणों के बल, पर अपनी गिरफ़्त में मानव समूह को जकड़ लेंगे?
क्या करोना-उत्तर विश्व 'पोस्ट-माॅर्डनिज्म' की वास्तविक परिणति होगी?
या फिर हमारी समझ उन सिद्धांतों से भी बहुत आगे तक जाएगी जिन्हें 'पोस्ट-पोस्टमाॅडर्निज्म' कहकर कई विद्वान कई वर्षों से समझने की कोशिश कर रहे हैं ?
क्या इतिहासकार युवल नोवा हरारी की 'होमोडियस' की प्रस्थापना एक वास्तविकता बनकर शीघ्र ही हमारी लघुता सिद्ध कर देगी?
या ऐसा कुछ भी नहीं होगा और करोना को हराने के बाद दुनिया थोड़े बहुत जोड़-घटाव के साथ जैसे चल रही है, वैसे ही चलती रहेगी?
इस तरह के कई प्रश्नों के उत्तर हमें निकट भविष्य में तलाशने होंगे।

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