रविवार, 28 जून 2020

फिर घिरी है शाम वैसी (ग़ज़ल)


फिर घिरी है शाम वैसी और डेरा फिर वही
रोशनी के बीच भी फैला अँधेरा फिर वही

शोर ये शमशान में है चल रही है लाश, पर
दफ़्न हूँ मैं कब्र में मेरा बसेरा फिर वही

रात अँधियारी बहुत है सब्र कब तक हम करें
दिल हुआ बेचैन क्या होगा सवेरा फिर वही

धुन पुरानी ही बजेगी खेल होगा साँप का
साँप है बाजू में उसके है सँपेरा फिर वही

नाचतीं अटखेलियाँ करतीं हैं जब भी मछलियाँ
जाल में उनको फँसाता तब मछेरा फिर वही

हट गया है चीन अब इस बात का चर्चा बहुत
पर दिखाया सैटलाइट ने है घेरा फिर वही

धान, गेहूँ, साग-सब्ज़ी मुल्क़ में भरपूर है
पर 'अमर' क्यों हाल अब भी तेरा मेरा फिर वही

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