शुक्रवार, 19 जून 2020

भाषा आंदोलन की यादें

भारतीय भाषा आंदोलन के पुराने साथी और आज के दौर के उत्तराखंड के प्रतिष्ठित पत्रकार श्री रवीन्द्र धामी जी ने पुराने दिनों की यादें ताज़ा करने वाली एक पोस्ट अपने वाल पर डाली है। धामी जी ने उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और युवा साथियों ( डाॅ चांदकिरण सलूजा जी, आज के इंडिया टीवी के पत्रकार नित्यानद निशांत जी, बिहार के आज के प्रतिष्ठित पत्रकार संजीव कुमार जी, दिल्ली विश्वविद्यालय की आज की शिक्षिका अल्का आनंद जी, आदि) के साथ मेरे द्वारा चलाये जा रहे "मातृभाषा मुक्ति वाहिनी" के मजबूत आंदोलन की कुछ गतिविधियों से संबन्धित अखबार की कतरनें भी पोस्ट की है। इस प्रकरण में सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा कि धन्यवाद धामी जी!
आपने 30-32 वर्ष पुरानी यादें ताजी कर दी।
सचमुच वो कैसे दिन थे या यूँ कहें कि हमारे लिए वो क्या दिन थे! एक जज़्बा, एक जुनून, एक सोच और संघर्ष! निरंतर संघर्ष! इन्क़लाबी सपने!
बस हमलोग कुछ कर रहे थे, विश्वास था कि अगर लोगों को जगाने में हम सफल रहे तो देश की तस्वीर, देश के लोगों की तस्वीर, हमारी, हम-सबकी  तस्वीर कुछ और होगी।
परंतु काश! एसा कुछ हो न सका! अंग्रेज़ियत के रंग में सब कुछ रंगता चला गया और भारत-भारतीयता, लोक और लोकधर्मिता सिर्फ शब्दाडंबर बनकर रह गए! व्यथित महसूस कर रहा हूँ यह संकेत करते हुए कि नये दौर में  किस तरह से मैं अपने ही भारत और अपनी ही भारतीयता के दमन का शिकार हुआ हूँ।
अपने पूर्व पक्ष के विश्लेषण से मैं भी कुछ ठोस नतीजों पर पहुंचा हूँ, जिसे हाल के दौरान "सी सैट विरिद्धी छत्र-युवा आंदोलन" में भागीदारी के कटु अनुभवों ने और मजबूत किया है।
हमें ईमानदारी से सोचना होगा कि क्रांति या इन्क़लाब या आंदोलन के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा क्या रही है? संसाधनों की कमी और एक मुक्कमिल रणनीति का अभाव? आन्दोलनों को चलाने के लिए न्यूनतम संसाधनों की ज़रूरत होती है। परंतु इसके लिए जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे हम ऐसी शक्तियों पर आश्रित हो जाते हैं, जो विचार के स्तर पर स्पष्ट नहीं होते हैं। और जब समर्थक शक्तियाँ विचारविहीन भावुकता के प्रवाह में बहते हुए हमारा साथ देती हैं तो भावुकता के ज्वार के थमने के बाद आंदोलनों का वही हस्र होता है जो इस आंदोलन का हुआ।
इतिहास गवाह है कि निहित स्वार्थी ताक़तें ऐसे आंदोलनों का इस्तेमाल अपनी बेजा लिप्सा-पूर्ति हेतु करतीं रहीं हैं और 'पुष्पेंद्र चौहान' जैसा अप्रतिम योद्धा भूख से बिलबिलाता रह जाता है, 'राजकारण' जैसा क्रांतिकारी टूटते हुए सपनों को बार-बार साकार करने की कोशिश में मोहभंग के कगार पर पहुँच जाता है और अंततः जीवनसंग्राम से ही विदा ले लेता है।
हम सब अपने-अपने घोंसलों मे नहीं पिंजरों में क़ैद हो जाते हैं और उसे ही अपना ठिकाना समझने लगते हैं। ज़िंदगी खिसटती चली जा रही है। वही शक्तियाँ, जो कभी  हमारे साथ रहने का भ्रम हमें दिलातीं रहीं होती हैं, जब हम उनके असली मंसूबों को अच्छी तरह से जानने-पहचाने लगते हैं, तो वे दोस्त नहीं हमें दुश्मन समझने लगती हैं। सबसे बड़ा दुश्मन समझकर अपनी समस्त राजकीय शक्तियों का दुरुपयोग हमें प्रताड़ित करने में करती हैं।
"मातृभाषा मुक्ति" हेतु संघर्ष का बिगुल बजाने के कारण, 25-26 साल पहले तिहाड़ जेल की तंग सेल की सलाखों के पीछे बंद रहते हुये और जेल में भयंकर उत्पीड़न का सामना करते हुए भी, अपनी भारत माता के नाम का जैकारा लगाकर जेल में ही अनशन करते हुए वहाँ के कैदियों और अधिकारियों तक को संवेदनशील बनाने वाले, जेल से बाहर निकलते ही पुनः अपने विद्यार्थियों, युवा आन्दोलनकारियों के साथ-साथ जनसामान्य को भी जगाने की निरंतर कोशिश वाले वाले, मेरे जैसे लोकधर्मा भारतीय को नये दौर में भी क्या-क्या नहीं सहना पड़ा या क्या-क्या नहीं सहना पड़ रहा है!
मैं निजी तौर पर व्यवस्था की धूर्तता का भुक्तभोगी रहा हूँ। आपमें से कई मित्र इस तथ्य से भलीभांति परिचित भी हैं।
तो इस रूप में मेरे साथ घटित दुर्घटनाएँ (?) सिर्फ़ मेरा निजी सच न रहकर क्या इतिहास का एक ऐसा अजूबा सच नहीं बन गया है जो नव-राष्ट्रवाद का एक विशिष्ट चारित्रिक अध्याय होगा।
कोई चाहे तो इसे व्यवस्था की सडांध और बू से उपजा हुआ मोहभंग भी कह सकता है। परंतु, अब मैं इन सबसे दूर, सिर्फ पठन-पाठन और ग़ज़ल लेखन में लग गया हूँ।

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