शुक्रवार, 19 जून 2020

चाहते हो तुम मिटाना (ग़ज़ल)

ग़ज़ल:
अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
दिल्ली विश्वविद्यालय

चाहते हो तुम मिटाना नफ़रतों का गर अँधेरा
हाथ में ले लो किताबें जल्द आएगा सवेरा

है जहालत का कुआँ गहरा बहुत मत डूबना तू
लोग हों खुशहाल गुरबत ख़त्म हो ये काम तेरा

ज़ह्र भी अमृत बने जो प्यार की ठंढी छुअन हो
नाचती नागिन है बेसुध जब सुनाता धुन सपेरा

गुफ़्तगू के चंद लमहों ने बदल दी ज़िंदगी अब
बन गया सूखा शजर फिर से परिन्दों का बसेरा

आग का मेरा बदन मैं आँख में सिमटा धुआँ हूँ
इश्क़ में अब बन गया सुख चैन का ख़ुद मैं लुटेरा

फिर 'अमर' आने लगे वो रात दिन ख़्वाबों में मेरे
अपने बस में दिल नहीं अब दिल ने छोड़ा साथ मेरा

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